Tuesday, November 4, 2014

क्षणिकाएं ३७ (५८०-९०)

581
दीवाली की बधाइयां अनेक 
तुम हो मेरे लिए लाखों में एक 
हरने को अमावस्या का तिमिर
लगाओ प्रज्वलित दीपकों का शिविर
डालो दियली में तेल अमन-चैन का 
आओ मनाएं त्यौहार मेल जोल का
बढ़ो आगे लिए जनवाद के मशाल 
जला दो पूजी का मोहक मायाजाल 
बुलंद करो ज्योति के रोशन जज्बात 
राख हो फिरकापरस्ती-ओ-जात-पांत
करो समाजभंजकों का बहुत बुरा हाल  
करके शानदार साझी वरासत बहाल 
आओ करें दियली-बाती का ऐसा कमाल 
चारों दिशाएँ हो जाएँ रोशनी से लाल लाल 
दीपावली की अनेकों शुभकामनाएं 
समानता स्वतंत्रता का रास्ता अपनाएं
(इमि/२३.१०.२०१४)
582
सभ्यता करती है संचार दोगलेपन का
छिपाता है इंसान मर्म अपने मन का
करता कोशिस  होने से अलग दिखने का
और स्वरुप से सार को  ढकने का
सबसे साफ़ दिखता दोगलापन उन रिश्तों में
गिनते जो खुद को फरिश्तों में
एक ही छत के नीचे रहते बच्चे और माँ-बाप
करते  नहीं एक-दूजे से कभी भी मन के बात
करते प्रेमी युगल अंतरंगता की बात
लगाते एक दूजे की निजता पर घात
डालने को एक दूजे पर व्यक्तित्व का असर
होने से अलग दिखने में छोड़ते नहीं कोई कसर
ऐसे लोग खुद को सभी में ढूंढते हैं
सफ़ेद दाढ़ी  को मेकअप समझते हैं
होते है ये लोग वहम-ओ-गुमाँ के शिकार
ख़त्म नहीं करते अन्तर्विरोधों का विकार
शायर को है खुदी से इतना अधिक प्यार
होने से अलग दिखने का आता नहीं विचार
मार्क्सवादी की कथनी-करनी में होता नहीं फर्क
करता है वह वही कहता जो उसका तर्क
(इमि/२३.१०.२०१४)
583
फेस्बुक पर एक करने में एक कविता बन गयी थी पर येन-केन प्रकारेण गायब हो गयी, पूरी कोशिस से वही नहीं लिख पाया, यह लिा गया.
जंगल में मंगल
मुझे आता है जंगल में भी मंगल का हुनर
होता अरण्यपथ का नहीं कोई भी हमसफर
हो गऱ साथ से अपनों को गफलत
एकाकीपन को एकांत बना लेते हम
होते हैं एकांत में ख़याल नये प्रियतम
ख़यालों से आशिकी का मजाए लाजवाब
बुनतें है एक सुंदर दुनियां का ख़ाब
करेंगे बेपर्दा वैचारिक वर्चस्व का राज
भार से जिसके तड़प रहा सारा समाज
करेंगे खड़ा वैकल्पिक वैचारिक वर्चस्व
मेहनतकश का ही है दुनियां का सर्वस्व
बताना है मेहनतकश की मुफलिशी का मूल
समझता है जिसको वह कुदरत की भूल
समझेगा जब यह दुनियां का किसान-मजदूर
जीतोड़ मेहनत भी कर पाती नहीं फाकाकशी दूर
दो धेले का भी काम करता नहीं परजीवी ठेकेदार
तोंद फुलाकर शूट-बूट में बना हुआ है उनका सरदार
होगी किसान-मजदूरों की तब इंक़िलाबी लामबंदी
टूट जायेगी देश-काल की सारी-की-सारी हदबंदी
बनेगा जनवाद तब वैकल्पिक नयी युगचेतना
खत्म होगी धरती से तब शोषण दमन की वेदना
स्थापित होगा समाज सें वैकल्पिक वर्चस्व नया
हरामखोर ठेकेदारों पर भी करेगा सर्वहारा दया
मगर करना पड़ेगा उसे भी उत्पादक काम
मिलेगा उसको भी काम का बराबर दाम
ज़ाहिर है पुरजोर विरोध इसका करेगा वह बेशक
लूट के कुकर्म समझता आया है ये कुदरती हक़
पलटने को नया निज़ाम मचायेगा शोर पुरजोर
दबा देगा जिसे किसान-मजदूर का संगठित जोर
दफ्न हो जायेगी तब हर किस्म की गैरबराबरी
सारी कायनात होगी एक आज़ाद इंसानी बिरादरी
खत्म होंगे लूट-पाट और अत्याचार के कारोबार
सारा जहां मनायेगा मानवता की मुक्ति का त्योहार
होंगे सभी के साझे सामाजिक सरोकार
हो जायेगा इतिहास इंसानियत से सरोबार
(ईमि/25.10.2012)
584
बेहतर है मिलना रख कर दरमियान थोड़ा
ख़लूश को बदनीयती समझ लेता है संस्कारी जन
बेहतर है खत-ओ-किताब़त का रिश्ता
अब मुखातिब-मुलाकात का करता नहीं मन
बेहतर है खुद चुनना अरण्य पथ
वानप्रस्थ हो ग़र समाज का क़ायदा
नियति हो ग़र वनवास
 बेहतर है जंगल को उपवन मान लेना
ग़फलत हो ग़र अपनों को
बेहतर है एकाकीपन को एकांत बना लेना
परिस्थिति हो गर प्रतिकूल
बेहतर है उसे बदले भेष में बरदान मान लेना
ग़र पद्य बन जाये गद्य में कमेंट की कोशिस
बेहर है कलम की अाज़ादी का सम्मान करना. 
(हा हा यह भी कविता सी हो गयी, शुक्रिया पुष्पा -- ईश)
(ईमिः 24.10.2014)
585
विवादित है नंद की परिभाषा
किसी को मिलता परोपकार मे
तो किसी को परसंताप में
होता है कोई पुलकित अावाम पे कहर ढाकर
तो कोई घाव पर मरहम लगाकर
मिलता है किसी को सुख माल-पूअा खाकर
तो किसी को ज़ंग-ए-आज़ादी के नारे लगाकर
अानंदित होते कुछ लोग अंधेरे में दिये जलाकर
तो कुछ मिटाते अंधेरा गरीब का घर जलाकर
अाह्लादित होता है कोई ईमानदारी के गुरूर में
तो कोई हरामखोरी के शुरूर में
सुखी होता है कोई कार्य की संपूर्णता में
 तो कोई कामचोरी की निपुणता में
देखते कुछ लोग अच्छे दिन मुल्क नीलामी में
तो कुछ साम्राज्यवाद की बर्बादी में
यथार्थ की ही तरह द्वंद्वात्मक भाव है अानंद की परिभाषा में
ढूंढता हूं मैं कथनी-करनी की द्वंद्वात्मक एकता में.
 (हा हा यह भी कविता हो गयी. सौजन्य- शैलेंद्र)
(ईमिः26.10.2014)
586
आज़ाद आवारगी को आतुर ये पाँव हैं हसीन 
लगता है मगर देखा नहीं है इनने कभी जमीन 
तमन्ना है करने की आज़ादी की इबादत 
रोकती है इन्हें मगर पालकी की हिफाज़त 
दौड़ना ऊबड़-खाबड़ में बात है बहुत दूर की  
आदत नहीं है इनको समतलों पर चलने की 
सोचते नहीं ये थहाने को सागर का अतल 
डालता कोइ और इनपर पोखर का जल 
इन हसीं पैरों में बेड़ियों से दिखते ये पाजेब
अलंकार से संज्ञा  की संभावना है ये पाजेब 
कर रहे ये पाँव इरादा-ए-आज़ादी का इज़हार 
हो जायेगी अब पाजेब की पकड़ तार-तार 
आवारा शायर का कलम भी है आवारा 
बने-बनाए  रास्ते हैं इसे नहीं गंवारा 
मारना चाहता था पाकीज़ा का डायलाग 
लगा कलम अलापने आवारगी का राग 
(इमि/३०.१०.२०१४)
587
जब भी होता है कहीं भी चुनावबढ़ता है साम्प्रदायिक तनाव|
जो जितना दंगा भड़काए, ह्त्या बलात्कार करवाये 
भाई को भाई से लड़ाए, धर्मोन्माद का जहर फैलाये 
जनता को वह उतना ही भाये,
 हो जिसको दंगों की महारत , सर पर बैठाये चुनावी भारत 
 जनपक्ष के जो कहते हरकारा , भूल गए हैं क्रान्ति का ककहरा,
 आती नहीं जब तक आंधी जनवाद की , कसती जायेगी जकड़न फासीवाद की 
चढ़ता है गरीब पर आसानी से मजहब का नशा, गरीब ही गरीब की करता भयानक दुर्दशा 
लड़ता है आपस में गरीब-गुरबा, बनता है आसानी से सियासत का  मुर्गा
होगी नहीं जब तक जनवादी जनचेतना, सहता रहेगा मुल्क नफ़रत की वेदना 
करेगा जिस दिन गरीब गरीब से लड़ना बंद,  छेडेगा मिलकर गरीबी से फैसलाकुन जंग 
जनवादी परचम तले होगा मेहनतकश लामबंद, हो जायेगी तब मजहब के तिजारत की दूकान बंद 
बनते हैं हम जो जनवाद के हरकारा, जाति धर्म के मुद्दों से करते रहे किनारा 
शासक जातियां ही रही हैं शासक वर्ग, जातिवाद करता कुंद जनचेतना का तर्क  
आइये छेड़ें गरीबी के खिलाफ जंग, हो जाएगी खुद नफ़रत की तिजारत बंद
(इमि/०२.११.२०१४) 
५८८
दोगला है ज़र का निजाम,
 कहने से दीगर करता है काम
करता चोरी धर कोतवाल का भेष
भरता दिलों में सांप्रदायिकता का विष
मनाता है मगर स्वच्छता दिवस
बांटता है फिरकों में देश
देता राष्ट्रीय एकता का संदेश
राष्ट्रीय एकता दिवस उसके नाम पर
चढ़ा था सेना लेकर जो मुल्क के अवाम पर
टूटी नहीं निरंतरता वर्दी के किरदार की
था पहले अंग्रेजी हुक़्म अब आज्ञा सरदार की
थैलीशाहों को बेचते हैं देश
बताते जिसे राष्ट्रीय विनिवेश
वालमार्ट को सौंपते हैं फुटकर बाजार
कहते हैं होगा इसीसे राष्ट्रीय उद्धार
होंगे इससे करोड़ों बेरोजगार
बताते इसे ये समय की पुकार
होता पीठ पर अंबानी का हाथ
बताते खुद को जनता के साथ
समझने लगी है जनता अब धोखे की विसात
दिखने लगे हैं उसको बाज़ार के अदृष्य हाथ
चढेगी जनचेतना पर जब शान जनवादी
शुरू होगी तब निज़ाम-ए-ज़र की बर्बादी
होगा तब दुनियां का मेहनतकश आज़ाद
चारों दिशाओं में गूंजेगा इंक़िलाब ज़िंदाबाद
(ईमिः 02.11.2014)
589
बिक रहा है हाट में खुले-आम ईमान
बेईमान है क्योंकि ज़र का निज़ाम
कल तक करते थे जो ईमान का व्यापार
देते थे ग्राहकों को बेहिचक उधार
जानते नहीं ये व्यापारी राज की बात
ईमान की तिजारत का होता अलग अंदाज़
लगा उनको ये घाटे का कारोबार
तख्ती हटाने को हो गये लाचार
चलने लगा बेईमानी का धंधा धुआंधार
तख्ती के बिना ही चलता यह कारोबार
तख्ती है मगर हर व्यापाररी की अभिलाषा
बदल दिया उसने ईमानदारी की परिभाषा
रंग-चुंग कर लगा दी उसने पुरानी तख्ती
शब्द-कर्म की खाई कुछ को ही दिखती
कुछ बनेगा ही बहुत एक-न-एक दिन
तब शुरू होगा इन तिजारतियों का दुर्दिन
(ईमिः03.11.2014)
५९०
झूठ बोलती हो कि मुहब्बत में कुछ नहीं मिला
लंबा तो चला था अतरंग क्षणों का सिलसिला
हैं तुम्हारे पास यादों के बेपनाह तोहफे
करता हूं मैं भी बेपनाह मुहब्बत तुमसे.

(इमि/०३.११.२०१४)

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