दीक्षा मिश्रा मैं शिक्षक हूं अौर किसी को किसी के विचारों का मोहताज बनने की नहीं बल्कि मस्तिष्क-चक्षुओं को खोलने की सलाह देता हूं अौर विचारों को दुनियां को द्रष्टव्य बनाने के लिये चंद दिये जलाता हूं. ग्राम्सी के अनुसार (जो हम सब जानते हैं), चूंकि हर मनुष्य के पास चिंतनशक्ति होती है इसलिये हर व्यक्ति संभावित बुद्धिजीवी है, लेकिन चिंतनशील व्यक्ति ही बुद्धिजीवी बन पाता है. विचारों से प्रभावित होना विचारों का मोहताज होना नहीं, विरासत मानन है. हम ग्राम्सी के विचारों के मोहताज नहीं है, विवेक सम्मत पाकर उसे अपनी विरासत मानते हैं. इतिहास की गाडी में रिवर्स गीयर नहीं होता. कुल मिलाकर हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है. अतीत में सारी महानतायें खोजना भविष्य के विरुद्ध गहरी साज़िश का हिस्सा है. हर अगली पीढ़ी पिछली पीढ़ियों की विरासत को सहेजती अौर अागे बढ़ाती है.इतिहास के अग्रगामी-परिवर्तनकरी प्रयाण में जो प्रमुख विघ्न बाधायें हैं उनमें एक नियतिवाद भी है. मैं विचारों की गुलामी की नहीं, समाजीकरणं के दौरान,बिना चैतन्य प्रयास के स्कारजन्य दुराग्रहों, पूर्वाग्रहों, पूर्व-अवधारणाओं सेै मुक्ति तथा मुक्त दिमाग से उन्मुक्त चिंतन का हिमायती हूं. शिक्षक को प्रवचन से नही, उदाहरण से समझाना चाहिये. मुक्त दिमाग से उन्मुक्त चिन्तन का नतीजा है कि एक कर्मकांडी ब्राह्मण से प्रामाणिक नास्तिकता तक की; विद्यार्थी परिषद की संकीर्णता से जनवाद की उन्मुक्तता की मुश्किल यात्रा किशोर वय खत्म होते होते तय कर लिया.नियति के दायरे में बने रहने के लिये कुछ नहीं करना होता लीक पीटने के सिवा. नियति को ललकारने के लिये अदम्य साहस की जरूरत होती है जिसकी कमी अाप में नहीं है, मेरा मक्सद अापको अापके अंतर्निहित साहस का एहसास कराना है. असंभव महज एक सैद्धांतिक अवधारणा है.
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