ठहराव मनुष्य के मन का
भ्रम है
प्रवाह प्रकृति का साश्वत नियम
दुबारा पार करना वही नदी एक छलावा है
बदल चुका होता है उसका सारा नीर
स्थिरता की बात एक चाल है हुक़्मरानों
की
गतिमान विधान इतिहास का
भरता है समाज मन में अज्ञात नव्य का एक
अमूर्त भय
निरंतर आत्मान्वेषण है किरदार हिम्मत का
गरीब की आस्था से चलती दुकान भगवान की
भरता है झोली वह मगर थैलीशाह का
कहते हैं सब उसे सहारा बेसहारा का
बनता वो मगर सारथी किसी राजकुमार का
मालुम जिसे हकीकत भगवान के छलावे की
लगता नहीं है उनको भूत-ओ-भगवान का डर
धर्म है बैशाखी मन से अपाहिज़ की
नास्तिक के मजबूत पैर रचते नित नई डगर
होती विचारों की दृढ़ता जब
तब बेरोजगार हो जाती हैं धर्म की
बैशाखियां
बहते रहो झरने की तरह सोचे बिन थमने की
बात
करते रहो आत्मान्वेषणों से नित नयी मुलाकात
(ईमिः27.11.2014)
No comments:
Post a Comment