Tuesday, July 31, 2012

लल्ला पुराण २४


मित्रों, उपरोक्त पोस्ट एक घटना की भूमिका के रूप में शुरू हुई थी, किन्तु कभी कभी भूमिका (या फूट नोट भी) ही एक्स्ट बन जाती है. उपरोक्त पोस्ट का निहितार्थ आप विद्वत-जनों को जातिवाद और उससे जुड़े पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों पर विमर्श के लिए उकसाना था. अजीब बात हैं हम शिक्षित लोग यह तो मानते हैं कि देश की राजनीति और समाज को जो दीमक चाट रहे हैं, उनमें जातिवाद (और उससे जुड़े पूर्वाग्रह-दुराग्रह; रीति-रिवाज ..) भी प्रमुख है, फिर भी हम इस पर बात करने से ऐसे कतराते कि “लहू-लुहान नज़ारों की जब बात चली, शरीफ लोग उठे दूर जाकर बैठ गए.” १९९० में, जब मंडल विरोधी उन्माद चरम पर था. आम स्थितियों में विद्यार्थियों को पुस्तकों तक सीमित रहने की सलाह देने वाले. “जाति-पांत से ऊपर उठ चुके” तमाम प्रोफेसरों ने एक-बैग द्रोणाचार्य का रूप धारण कर, अर्जुनों को एकलव्यों की अनुपस्थित सेना के विरुद्ध, गांडीव उठाने को ललकार रहे थे. डूटा(दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ) की एक ऐतिहासिक आम सभा में, आरक्षण से ब्रह्माण्ड डावांडोल हो जाने की आशंका से द्रोणाचार्यों का एक समूह इतने जोश एवं आवेश में आ गया कि बे “जैश्रीराम..” और “जिस हिन्दू का खून न खौला  ....” lunge power प्रतियोगिता में हम भी पीछे नहीं रहते. हम भी “मनुवाद मुर्दाबाद/ ब्राहणवाद हो बर्बाद.....” किस्म के नारे लगा रहे थे. सभा के बाद काफी पीटे हुए, सोने की सीकड़ से सुसज्जित एक सज्जन (प्रोफ़ेसर) आकर बगल में बैठ गए और पूँछा, “What is your name, by the way?”. मैंने कहा, “Not by the way, my name is Ish Mishra”. …. ”Mishras are Brahmins, I believe!”. .. “You are absolutely right.” .. But you were shouting slogans like  Manuvaad and all that..” मैं उनकी क्लास लेने में समय नहीं बर्बाद करना कहता था, इसलिए इतना ही कहा, “क्यों कोई पाबंदी है?”

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