अतीत-आत्मावलोकन से लगता है कि मैं बचपन से ही एक चिंतनशील बालक था और मेरे पहले और बाद के दसेक सालों तक अपने गाँव का विश्वविद्यालय में दाखिला लेने वाला मैं एकमात्र बालक(बालिकाओं का प्रश्न ही नहीं उठता) था. तफरीह में गणित विभाग में सहसचिव का चुनाव लड़ गया, १०-२० निजी मित्रों ने कहाँ से और कैसे पोस्टरों और हैन्द्बिल्स का प्रबंध किया, जिसके विस्तार का अवसर यहाँ नहीएँ है, और मुझे ७५% से अधिक वोट मिल गए. उस समय छात्रसंघ का सेक्रेटरी परिषद का ब्रजेश कुमार था(जो कल्याण सिंह के पहले मंत्रालय में परिवहन मंत्री बना) उसने मुझे सम्मान से चाय के लिए आमंत्रित किया और विश्वविद्यालय चौराहे पर ठाकुर की पान की दूकान के ऊपर परिषद के दफ्तर ले गया, १७ साल के बालक को भगत सिंह, लक्ष्मी बाई भारतमाता आदि की तस्वीरों ने प्रभावित किया. मुझे संविधान दिया गया जिसमें लिखा थ कि परिषद एक, स्वतंत्र, जनतांत्रिक छात्र संगठन है. संघियों में लिखने-पढ़ने की परंपरा तो होती नहीं, सो प्रेस-विज्ञप्ति आदि के लिए मुझे प्रकाशन मंत्री बना दिया. मुझे भी गाहे-बगाहे अखबारों में अपना नाम देखकर आनन्द आता थ. जल्दी ही स्वतंत्र और जनतांत्रिक की पोल खुल गयी. सब कुछ पर नियंत्रण करने वाला संघ का एक प्रचारक हरिमंगल प्रसाद त्रिपाठी (एह.एम.टी.) थे, जो न तो विद्यार्थी थे न् ही जनतांत्रिक. मेरी विडम्बना यह थी कि जब मैं विद्यार्थी परिषद में गया तब तक जाति-धर्म से ऊपर उठ कर प्रामाणिक नास्तिक बन गया था. स्संघी परभाषा में चर्त्र्वान नहीं था क्योंकि सिगरेट पीता था और लड़कियों से बात-चीत करता था उस समय लड़कियों से बात करना संघ में अनैतिक माना जाता था क्योंकि छुपी हुई बालकबाजी आम बात थी) और मेरा निजी सामाजीकरण समाजवादियों और प्रगतिशील साहित्यिक छात्रों (कृष्ण प्रताप सिंह, विभूति राय, देवी प्रसाद त्रिपाठी....) के साथ होता था.परिषद के दफ्तर में बैठ कर मूर्खतापूर्ण,फिरकापरस्ती की और लम्पटता की बातों से मोहभंग हो रहा था. परिषद के दफ्तर के नीचे कटरा रोड पर पी.पी.एह. की दूकान थी, वहाँ जाकर किताबें पढता था और एक-दो आने की प्राग्रेस प्रकाशन की किताबें होती थीं जो अच्छी लगतीं खरीद लेता था. बचपन से ही गरीबी और असमानता(खासकर जातीय असमानता) मुझे खलती थी. ब्राह्मणीय श्रेष्ठता के अंत पर अलग से कभी अपने अनुभव लिखूंगा) पी.पी.एह में बैठकर मैंने गोर्की, ब्रेख्त, प्रेमचंद, राहुल सान्क्रियायन, मार्क्स, लेनिन, थामस हार्डी, दोस्तोवस्की, फारेस्ट के उपन्यासों के अमृत राय के अनुवाद( अग्निदीक्षा, समरगाथा,आदिविद्रोही) एवं मार्क्स,एंगेल्स,लेनिन, माओ की रचनाएँ पढ़ना और खरीदना शुरू किया. मार्क्स की पहली रचना मैंने पर्स कम्यून और फिर मार्क्स एंगेल्स की कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो पढ़ा और एक पत्रिका निकालते थे करीं प्रताप एवं अन्य मार्क्सवादी उसमें छपी कवितायें एवं गोष्ठियों की चर्चाओं एवं मित्रों से विमर्श आदि के चलते मैं विचारों से मार्क्सवादी बन गया और नास्तिक तो पहले से ही था. विद्यार्थी परिषद के राष्ट्रीय वार्षिक सम्मलेन में पर्चा बांटकर त्यागपत्र दिया कुछ और लोग भी साथ थे. काफी हंगामा हुआ थ. सी.पी.आई के अखबार जनयुग ने छापा था. १९७७ में जे.एन.यू. के सीपीआई के एक श्याम कश्यप ने वह खबर मुझी दिखाकर ब्लैक मेल करना चाहा तो मेरा जवाब था हममे से कोई लाल चम्मच मुंह में लेकर नहीं पैदा होता ज्यादातर लोग केशरिया या हरे चम्मच के साथ पैदा होते हैं.
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