Sunday, July 22, 2012

लल्ला पुराण ११

@राजू जी, मलेरिया का ३-४ दिन का समय होता है, ठीक हो जाएगा. दिन में थोड़ा सो लिया था बहुत देर से सोने की नाकाम कोशिस के बाद और लिखने-पढ़ने की मनःस्थिति न् बन पाने के कारण फेसबुक खोल लिया और यह पेज खुल गया.नास्तिक तो मैं इलाहाबाद पहुँचने के पहले ही बन गया था, कट्टर धार्मिक संस्कारों और पाखंडों  पर सवाल करते करते. सबसे पहले तो भूत का भय खत्म हुआ और फिर भगवान का. १. मेरे पिताजी बिच्छू का 'मन्त्र' जानते थे और काफी सफल थे. मुझे याद नहीं कितना बड़ा था लेकिन  ९ साल से हर हालात में छोटा. पीड़ित का हाथ या पैर मिट्टी या राख पर खींची एक रेखा पर रखवा कर कुछ लिखता और फिर अपने हाथ पर और कुछ मं ही मं पढते हुए ३ बार टाली बजाते और ५-६ बार यह प्रक्रया करने से पीड़ित को राहत मिलती. एक बकर वे घर पर नहीं थे और कोई  बुलाने आया, मैंने कहा मुझे आता है मन्त्र, मैं गया और दर्द से लोट-पोत होती कन्या की बिच्छू की पीड़ा उतर गयी. रात-ओ-रात मैं इतना मशहूर हो गया कि अस-पास के गाँव में भी किसी को बिच्छू मरता तो वे मुझे सोते में गोद में उठा कर ले जाते और फायदा होता. मेरे पिताजी ने कभी नहीं पूछा कि तुम्हे किसने मन्त्र बताया? दीवाली को हम-उम्र लड़के मेरी जासूस करते कि मैं मन्त्र जगाता होऊंगा. मुझे कोई मन्त्र आता तब तो जगाता. छाथी-सावीं कक्षा तक मैं ऊब गया थ बिच्छू झाड़ते झाड़ते और बोल दिया मन्त्र तंत्र मुझे कुछ नहीं आता तबसे मेरे मन्त्र का असर समाप्त हो गया. तभी लग गया सभी मन्त्र तंत्र का  मनोवैज्ञानिक असर होता है और सारे तांत्रिक फरेबी होते हैं. २. कल मेरे गाँव का एक व्यक्ति आया था जो उम्र में मुझसे बड़ा किन्तु प्राइमरी में १-२ छलांग के चलते क्लास में एक साल पीछे था. हम लोग उस समय की चर्चा कर रहे थे मैं सातवी में अपने गाँव का अकेला था आठवी में कोई नहीं और छठीं में ४ लड़के थे. मिडिल स्कोल ७-८ किलोमीटर दूर था. २ ठाकुर लड़के थे एक यादव और एक धोबी. सामंती वर्णाश्रमी माहौल था. मैं दुबला-पतला था और बाकी लड़के मुझसे लंबे-चौड़े. यादव और धोबी मेरा बस्ता धोते थे काफी दूर तक. एक दिन भगवती  धोबी (आजकल अकबरपुर में ब्लाक कर्मचारी है) ने पहले पड़ाव पर कहा अब मैं अपना बस्ता खुद ले चलूँ कुछ देर मुझे गुसा आ गया और मैंने उसे मारने के लिए बेल्ट निकाल लिया और उसने मेरा हाथ पकड़ लिया. मैं अपमानित महसूस कर रोते हुए घर चला गया और मरे दादाजी ओ अपने क्रोध के लिए मसहूर थे, बिना पूरी बात सुने धोबियों की बस्ती में हंगामा मचाकर आ गए और पहली बार मेरे अंदर  जाति-आधारित श्रेष्ठता पर उथल-पुथल मची और जाती-पांत की व्यवस्था पर सवाल करने और अपने अंदर के ब्राह्मण को खत्म करने का सील-सिला शुरू हुआ जो शहर जाकर  हाई स्कूल तक पहुँचते-पहुँचते पूरा हो गया और उससे पहले ही मैं जनेऊ तोड़ चुका था. (बाकी बाद में). 

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