Sunday, July 1, 2012

बबूल


मेरी बड़ी बेटी एक नामी चैनल की नौकरी छोड़कर आयी तो मजाक में बोली, आप ही की वजह से, आप नौकरियां छोड़ देते थे इसी लिए मैंने भी छोड़ दिया. मैंने कहा मैं छोडता नहीं निकाल दिया जाता था.(इस पर कुछ अनुभवों को मौक़ा मिलने पर शेयर करूँगा.) वह ४ साल की उम्र से मेरे साथ रहने आयी तब तक गाँव में थी (यह कहानी भी फिर कभी, जब भी मौक़ा मिलता है इसका ताना मरने से नहीं चूकती). जब मैं घर जाता तो उसे साइकिल पर बैठकर इधर-उधर लेकर चला जाता. २ साल की थी, एक दिन उसने कहा, गाना सिखाओ. बच्चों का एक गाना आता था: एवं बतूता, पहन के जूता निकल पड़े तूफ़ान में, कुछ तो हवा नाक में घुस गयी कुछ तो घुस गई कान में. इसके अलावा मुझे तो जंग है जंगे आजादी टाइप के ही गाने आते है. अगली फरमाइश पर मैंने फैज़ का “हम मेहनतकश जग वालों से     जब  अपना हिस्सा मांगेगे, एक खेत नहीं एक देश नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगे.....”; “तू ज़िंदा है तू ज़िंदगी की जीत में यकींन कर........”; “नफस-नफस. कदम कदम......”. अब अगर कुछ कहता हूँ तो कहती है जानते नहीं थे कि २ साल की लड़की को “जंग है जंगे आजादी .....” सिखाओगे तो कैसी  निकलेगी? बबूल के पेड़ लगाओगे तो आम कहाँ से आएगा? खैर मुझे फक्र है अपनी बबूलों पर.

No comments:

Post a Comment