गीतों और नारों में व्यंजना/अतिरंजना... सब होता है. स्वर्ग एक भ्रम है, रावण के बारे में कहा जाता है कि वह स्वर्ग पहुँचने की सीढ़ी बना रहा थ. यह बातें तुलसी के रामचरित मानस में ही है, और रामायण दूसरी बातें कहते हैं. रामचरित मानस एक कविता(महाकाव्य है) और कोई भी रचना सोद्देश्य होती है. १६वीन शताब्दी में ब्राह्मणवाद संकट के दौर से गुजर रहा थ और तुलसी दास जी ने अपानी अद्भुत काव्य-प्रतिभा का इस्तेमाल उसके मूल्यों की पुनर्स्थापना के लिए किया. इसके लिए उन्होंने पहले से ही मौजूद महाकाव्यों के पात्रों को अपने समय काल के परिप्रेक्ष्य में, ब्राह्मणवाद की ऐतिहासिक आवश्यकताओं के अनुसार पुनर्स्थापित करने के उद्देश्य से किया. महाकाव्य से सामजिक इतिहास समझने के लिए उसे demystify करना पड़ता है. अगर महाभारत की घटनाओं को सही मानें तो इन्द्रप्रस्थ/पांचाल/हस्तिनापुर/मथुरा.....यानि दिल्ली की १००किमी परिधि में स्थित तमाम सम्राटों/महारथियों की सेनाओं की संख्या की गणना करें तो आज की दुनिया की आबादी का की गुना होगा. स्वर्ग-नरक की अवधारणाएं धार्मिक चिंतकों ने पृथ्वी की अमानवीय शोषण की व्यवस्थाओं की रक्षा और निहित स्वार्थों की पूर्ती के लिए किया, भगवान की ही अवधारणा की तरह. यदि आप तुलसी के ही रामायण को उसके ऐतिहासिक सन्दर्भ में तर्कसंगत ढंग से पढ़े तो पायेंगे कि राम का चरित्र रावण की तुलना में ज्यादा अनैतिक है. एक अफ्रीकी कहावत है, जब तक शेरों के अपने इतिहासकार नहीं होंगे, इतिहास शिकारी का महिमा-मंडन ही होगा. तुलसी शिकारी के इतिहासकार हैं.
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