मित्रों, जब से मेरी एक कवितानुमा पोस्ट से जो विवाद शुरू होकर एक
चुटकुले के रास्ते आचार संहिता के निर्माण तक पहुंचा तभी से एक लंबा वक्तव्य देने
की सोच रहा हूँ लेकिन 'to write or not to' दुविधा और अन्य व्यस्तताओं के चलते टलता रहा और अब याद ही नहीं क्या लिखना
चाहता था और तबसे अब तक संगम पर गंगा-यमुना के कई मिलन-ताक़रारें हो चुकीं. "इन शेखों-बरह्मिनों से हमें क्या लेना राही/हम अज्म-ए यकीं वाले हैं, वे वहम-ओ-गुमां वाले" के अंदाज़ वाले, राही मासूम रजा ने 'टोपी शुक्ला' की भूमिका में लिखा
है कि लोगों कि शिकायत थी कि आधा गाँव में गालियाँ बहुत हैं, लेकिन अगर पात्र वेद के मन्त्र और कुरआन की आयतें पढते तो
मैं वही लिखता लकिन भाषा की मर्यादा के लिए मैं पात्रों की ज़बान नहीं काट सकता.
टोपी शुक्ला में एक भी गाली नहीं है,
लेकिन पूरा उपन्यास एक बड़ी सी गाली है पूरे समाज पर.
(उद्धरण-चिन्ह नहीं लगाया, हो सकता है, शब्दशः न हो).
मैं अनुशासन परिभाषा और स्तापित मानदंडों का
हमेशा विरोधी रहा हूँ और इसी के चलते १८ साल की उम्र में खेतिहर पिटा के साथ आर्थिक सम्बन्ध-विच्छेद करना पडा. भाषा की मर्यादा के लिए अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता नहीं
रोकी जा सकती. लोग खुद-ब-खुद कुतर्क और दुराग्रह
खारिज कर देंगे. युग-चेतना और आत्म-चेतना में reciprocating,
गतिशील सम्बन्ध है. विपरीत विचारों के टकराव और सृजनात्मक संवाद के बिना युग-चेतना में परिवर्तन नहीं हो सकता. जिस किसी ने मुझे इस मंच से जोड़ा उसका आभार,
आग्रह है कि विचारों का खंडन विचारों से हो व्यक्तिगत
आक्षेपों से नहीं. मुक्त एवं पारदर्शी बहस और विमर्श से ही ज्ञान आगे बढ़ता है.
मित्रों मैं ३ विश्वविद्यालय परिसरों से सम्बद्ध रहा हूँ. इलाहाबाद और जे.एन.यू.में छात्र के रूप में और दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक के रूप में. मैं औपचारिक-अनौपचारिक रूप से जे.एन.यू. में लगभग १० साल रहा, जिसमें आपातकाल का वह लगभग एक साल भी शामिल है जब मैं बिना छात्र हुए कैम्पस का सदस्य था, जो कहानी फिर कभी. इसे अन्यथा न लें, यद्यपि १७-२१ के महत्वपूर्ण साल इलाहाबाद में बीते फिर भी मुझे जे.एन.यू. जिस तरह अपना गाँव-देश महसूस होता है, उतना इलाहाबाद नहीं. हम लोग आत्मावलोकन और आत्मालोचना से इतना डरते हैं कि ताल जाते हैं और महापुरुषों पर आलोचनात्मक मूल्यांकन तो कोहराम मचा सकता है. इलाहाबाद के, माफ कीजियेगा, सामंती-पुरुषवादी माहौल से आकर जे.एन.यू.(उन शुरुआती सालों में कैप्स की आबादी बहुत कम थी.) अद्भुत लगा. जो लोग साक्षात्कारों/कोचिंग के लिए आते, वे भी इसके जनतांत्रिक-शैक्षणिक/राजनैतिक वातावरण से प्रभावित हुए बिना नहीं रहे(वीपी सर की गवाही ली जा सकती है. हा हा). मैंने जब इलाहाबद में दाखिला लिया तब सहीए-सही के गुंडे और सही-सही की बंदूकें होती थीं. नृपेन्द्र और वीपी सर गवाह हैं. जे.एन.यू. में एक बार लखनऊ के एक लड़के ने कहा कि यहाँ तो कोई भी चुनाव लड़ सकता है क्योंकि मार खाने का डर नहीं होता.
मित्रों, अपने अनुभव लिखते समय डर रहता है कि आत्म-प्रशस्ति न समझ ली जाये. फिर भी व्यापक विमर्श के लिए मैं अपना एक अनुभव आपके साथ शेयर करना चाहता हूँ.
मित्रों मैं ३ विश्वविद्यालय परिसरों से सम्बद्ध रहा हूँ. इलाहाबाद और जे.एन.यू.में छात्र के रूप में और दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक के रूप में. मैं औपचारिक-अनौपचारिक रूप से जे.एन.यू. में लगभग १० साल रहा, जिसमें आपातकाल का वह लगभग एक साल भी शामिल है जब मैं बिना छात्र हुए कैम्पस का सदस्य था, जो कहानी फिर कभी. इसे अन्यथा न लें, यद्यपि १७-२१ के महत्वपूर्ण साल इलाहाबाद में बीते फिर भी मुझे जे.एन.यू. जिस तरह अपना गाँव-देश महसूस होता है, उतना इलाहाबाद नहीं. हम लोग आत्मावलोकन और आत्मालोचना से इतना डरते हैं कि ताल जाते हैं और महापुरुषों पर आलोचनात्मक मूल्यांकन तो कोहराम मचा सकता है. इलाहाबाद के, माफ कीजियेगा, सामंती-पुरुषवादी माहौल से आकर जे.एन.यू.(उन शुरुआती सालों में कैप्स की आबादी बहुत कम थी.) अद्भुत लगा. जो लोग साक्षात्कारों/कोचिंग के लिए आते, वे भी इसके जनतांत्रिक-शैक्षणिक/राजनैतिक वातावरण से प्रभावित हुए बिना नहीं रहे(वीपी सर की गवाही ली जा सकती है. हा हा). मैंने जब इलाहाबद में दाखिला लिया तब सहीए-सही के गुंडे और सही-सही की बंदूकें होती थीं. नृपेन्द्र और वीपी सर गवाह हैं. जे.एन.यू. में एक बार लखनऊ के एक लड़के ने कहा कि यहाँ तो कोई भी चुनाव लड़ सकता है क्योंकि मार खाने का डर नहीं होता.
मित्रों, अपने अनुभव लिखते समय डर रहता है कि आत्म-प्रशस्ति न समझ ली जाये. फिर भी व्यापक विमर्श के लिए मैं अपना एक अनुभव आपके साथ शेयर करना चाहता हूँ.
मैं बचपन से ही अपने अंदर
प्रशासनिक क्षमता की कमी के प्रति आश्वस्त रहा हूँ. २००६ में मै होस्टल का वार्डन
बना. नोएडा के अपने फ़्लैट से ट्रक में सामान लादते समय, दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियाँ
बरबस याद आ गयीं: “आप तो दीवार गिराने के लिए आये थे, आप दीवार उठाने लगे, ये तो
हद है” हा हा ............ जो लोग दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्र (अ)राजनीति से
वाकिफ हैं वे जानते हैं कि यहाँ उसी तरह अमिट शत्रुता के उसे तरह जाट-बिहारी खेमें
हैं जैसे विगत दिनों(अभी का पता नहीं) इलाहाबाद में बांदा-बलिया खेमे थे. हिंदू
कालेज हॉस्टल केन्द्र था. मैंने अपने लिए वर्जनाओं और वांछनीयाताओं की सूची बनाई. १.
नाक के मुद्दे पर खींची गयी इनकी अमिट सी दिखने वाली विभाजन-रेखा को मिटा दूंगा.
२. जिस दिन पुलिस बुलाने की नौबत आयी उस दिन अपना सामान पैक करूँगा.(फुट नोट:
हमारे विद्यार्थी अपराधी नहीं हैं जैसे हम विद्यार्थी थे तब अपराधी नहीं थे. यदि
किसी शिक्षक को छात्रों से निपटने के लिए पुलिस बुलाना पड़े तो वह शिक्षक होने के
अयोग्य है, तिकडम से शिक्षक बना है.) ३. किसी भी विद्यार्थी को रस्टिकेसन का
सम्मान नहीं दूंगा. (रस्तिकेसन के सम्मान की बात पर एक अलग कहानी सुनाऊंगा.) और तीनों काम बखूबी किया. और मैं चंद शिक्षकों
में हूँ जो ३ साल बाद कहे कि ये तीन साल मेरे लिए असीम आनंद के थे. हिन्दू कालेज
होस्टल मिनी जे.एन.यू. बन गया था. दूसरे साल सीनियर लड़के पूंछते थे सर हास्टल कैसे
चल रहा है, मैं कहता, I have become gainfully unemployed. होस्टल में चुनाव हो रहा
होता और मैं दिल्ली स्कूल आफ इकोनामिक्स में काफी पी रहा होता था. कोई कहता आपने
हास्टल को ऐसा कर दिया, मैं कहता मैं अपनी तरह की ज़िंदगी जिया बाकी उसके अनचाहे
परिणाम हैं. जीवन का कोई जीवनेतर उद्देश्य नहीं होता. कथनी करनी में एकता के
निरंतर प्रयास के साथ एक गुणवत्तापूर्ण ज़िंदगी जीना अपने आप एक पूर्ण उद्देश्य है
बाकी अनचाहे परिणामों की तरह साथ चलते हैं.
कुछ मूल मन्त्र: १.जब कभी
मुश्किल और सही में चुनाव हो, सही का चुनाव करो मुश्किलें आसान हो जाती हैं. २. जब
कभी सही और लोकप्रियता में चुनाव हो सही का चुनाव करो, अलोकप्रियता बहुत अस्थायी
होती है. ३. कोई हेरा-फेरी नहीं करनी हो तो गोपनीयता क्यों? Secrecy is
tool to conceal corruption. 4. Act honestly, democratically and transparently.
5. Juxtaposition. लंबे समय होस्टल में रहा
हूँ, एक होस्टेलेर के नाते जितनी छूटें/सुविधाए हम चाहते थे वे यथा संभव वार्डेन
के नाते उपलब्ध कराएं.
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