मैं एक अधार्मिक (धर्म-वरोधी) व्यक्ति हूँ क्योंकि धर्म वर्चस्वशाली वर्गों के हाथ में वर्चस्व कायम रखने का सबसे प्रभावी हथियार है. किशोरावस्था से ही इन अर्थों में मैं एक आनुशासन हीं व्यक्ति हूँ क्योंकि संस्कारगत कुतार्किक मर्यादाओं का उल्लंघन करता रहा हूँ. १८ साल की उम्र में पिताजी के आनुशासन से मुक्ति के लिए (हर किसान बाप का सपना बेटे को अफसर बनने का होता था) उनसे आर्थिक-सम्बन्ध समाप्त कर दिया. धर्म क्या है? 'आश्रम' की व्यवस्था 'वर्ण' से जुडी है और इसे मैं अमानवीय इन अर्थों में मानता हूँ कि जब मष्तिष्क के विकास की अवस्था सबसे तीब्र होती है तब हम उसे चिंतन-और निर्णय के अधिकार से वंचित करते हैं और जिन अर्थों में इसका प्रतिपादन हुआ था उन अर्थों में ब्रह्मचर्य का मतलब का मतलब दिमाग बंद करकर पाठशालाओं में सदियों के पुराने ज्ञान-अज्ञान का जाप होता था जिसके परिणाम स्वरुप उर्वर युवा मष्तिष्क को कुंद और बंजर बनाया जाता था. हजार साल से अधिक की बौद्धिक और भौतिक जड़ता इसका प्रमाण है. कौटिल्य से बरनी के बीच के लंबे दौर में किसी राजनैतिक चिन्तक का नाम बताएं या कालिदास के बाद किसी मौलिक विद्वान का? वर्णाश्रम और मर्दवाद जैसी अमानवीय व्यवस्थाओं को शास्त्रीय आधार प्रदान करने वाली मनुस्मृति के बाद के धर्म-शास्त्र के किसी मौलिक ग्रन्थ का नाम बताएं? महाभारत और मनुस्मृति में बतायी आचार-संहिता एवं राज्य व्यवस्था एक सी ही हैं किसने किससे कापी पेस्ट किया नहीं मालुम. मध्य काल में शुक्राचार्य और कमांडक के ग्रन्थ लगभग कौटल्य के अर्थ शास्त्र की पुनरावृत्ति मात्र हैं. गृहस्थावस्था में कुटुंब को आर्थिक आधार देने के बाद जीवन की सुख-सुविधाओं से वंचित, संन्यास धारण करने के बाद भी निष्काम भाव से काम करते हुए समाज में रहने की व्यवस्था और वृद्धावस्था में जब सेवा-सुश्रुषा की आवश्यकता हो तो घर से निकाल कर उसे जंगल में भटकते हुए 'भवान-भरोसे' छोड़ दीजिए.(विभास जी आप अपने ८४ वर्षीय युवा पिताजी को निकाल दीजिए घर से, वान्य्प्रस्थ की तर्ज पर परित्यक्त बुजुर्गों के लिए वृद्धाश्रम हैं) शस्त्र-शास्त्र पर अधिकार समाज के नगण्य अल्पसंख्यक समूह का एकाधिकार स्थापित करके समाज को इतना कमजोर बना दीजिए कि नादिरशाह जैसा ओई चरवाहा पेशावर से दिल्ली तक रौंदता चला आता है और लूटते-उजाड़ते शकुन से वापस चला जाता है, क्या कर रहे होते थे देश के सारे शूर-वीर? पारिवार और शिक्षण संस्थाएं हमें ज्ञान के अन्वेषण के लिए नहीं प्रोत्साहित नहीं करतीं बल्कि कोल्हू के बैल की तरह घिसी-पीती पारंपरिक मान्यताओं का अनुशरण करने की दीक्षा देती हैं. अगर शिक्षण संस्थाएं ज्ञान का श्रोत होतीं यदि होतीं तो ज्ञानी गण, जो अफसर बनने तक तमाम लड़कियों पर लाइन मारने के बाव्जोद एक भी लड़की नहीं "पटा" अफसर बनते ही संविधान की सपथ लेकर, दहेज के रूप में अपना मोल-भाव करके किसी को पत्नी बनाने के लिए मोटा दहेज लेकर संविधान उल्लंघन से अपना शासकीय जीवन शुरू करते हैं.अपवाद नियमों की पुष्टि ही करते हैं. यह तर्क कि माँ-बाप ने दहेज लिया हमने नहीं, मूर्खतापूर्ण है. जब आप अपने विवाह का फैसला नहीं ले सकते तो देश किसके आदेश पर चलाएंगे? अभी पुस्तकालय निकालना है इस लिए यहीं बंद करता हूँ, अंतिम बात के साथ कि मैं अपने स्टुडेंट्स को बताता हूँ कि ये संस्थाएं ज्ञान के प्रसार के लिए नहीं हैं न ही आप ज्ञान प्राप्त करने आते हैं. ये संस्थाएं आपको ऐसी जानकारियों और हुनर से लैस करती हैं जो यथा-स्थिति के लिए आवश्यक हैं. ज्ञानार्जन भी करना है तो उसके लिए अलग से प्रयास करना पडेगा. जीवन भर भौतिक शास्त्र पढ़ने-पढाने के बावजूद तीन फीट लंबा त्रिपुंड लगाकरज्योतिषी की सलाह पर, प्रधानमंत्री बनने के लिए बाल्टी-बाबा जैसे पाखंडी से ६ टांग के बकरे की तलाश को आप क्या कहेंगे. ऐसे लोगों के लिए भौतिक शास्त्र के नियम परीक्षा के लिए होते हैं जीवन में प्रयोग के लिए नहीं. आग्रह है कि मेरी बातों की धज्जियां उडाएं. इति.
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