मित्रों, मुझसे कुछ मित्रों ने अनुशासन, नियंत्रण, वर्जनाओं, लड़कियों के परिधान अदि पर कई प्रश्न किए थे. कइयों ने मेरे व्यक्तित्व क्व बारे में कई निर्णयात्मक वक्तव्य भी दिए थे . मैं वास्तविक दुनिया की व्यस्तताओं के चलते आभासी दुनिया को पर्याप्त बसमय नहीं दे पाया और अब तक वे पोस्ट और कमेन्ट कहीं रसातल में चाले गए होंगे. आज भी वास्तविक दुनिया की व्यस्तताएं हैं कुछ. मैं एक समग्र वक्तव्य की पोस्ट १-२ दिन में डालूँगा. फिलहाल यही कहूँगा कि आनुशासन स्थापित सामाजिक मूल्यों की रखवाली के लिया बना है. एक बार कालेज में एक पद के लिए चुनाव-प्रक्रिया में अनियमताओं के विरुद्ध मैं और एक सहकर्मी भूख हड़ताल पर बैठे थे. इंतर्विव के समय बहुत से छात्र आ गए और इंतर्विव रद्द करना पड़ा. गोवार्निंग बाडी के अध्यक्ष के प्रतिनिधि के रूप में एक सठियाया, रिटायर्ड मेजर था. बोला, "I am A SERVING soldier, discipline is most important for me." मैंने कहा, "Discipline is important for us too. But justice is more important. More over there is great difference between your notion of discipline and ours. your discipline is that of battlefield where you are dealing with so-called staunch enemy with the help of brain-washed Jawans, where as our discipline is that of class room where we are dealing with our tender friends." I am a proud father of two daughters who have grown into beautiful, democratically sensitive and sensible and sensitive good human beings unburdened by parental over caring and over protection without any control and preaching. No deadlines. A teacher has to teach by example and a father/mother has to bring up children by example. I never preached my daughters about corruption etc. Once when I was warden of the hostel. Son of the the chief of a Banglore based big Corporation got admission in the hostel. His Delhi counterpart came to my house with a big basket. I was not at home. My daughter told him, ये कार्ड दे दीजिए, टोकरा वापस ले जाइए. उसने कहा वापस ले जाऊँगा तो मेरे बॉस डांटेंगे. बेटी ने कहा रख लूंगी तो मेरे बाप मुझे डांटेंगे. अब एक घूसखोर अफसर बेटी/बेटे को ईमानदारी का उपदेश दे तो वे एक कान से सुनेंगे दूसरे से निकाल देंगे. लड़कियों के परिधान पर बस इतना ही कहूँगा कि मर्दवादी संस्कार लड़की को एक शरीर के रूप में देखते हैं अपने ही जैसे परिपूर्ण स्वतंत्र इंसान के रूप में नहीं. एक बार इलाहाबाद के ही किसी मंच पर एक अलका गुप्ता ने एक पोस्ट डाला था उसूलों के लिए मर-मिटने का. एक पुरुष ने कहा हुस्न होता ही ऐसा कि कोई मर चहरे पर मिट जाए. मैंने एक अविता में जवाब दिया था, खोज कर डालता हूँ.
एक नारी ने किया जब:
ज़िंदगी ज़िंदा-दिली से जीने का इजहार
मर्दवादी समाज से डरने से इंकार
रहने के अलग तरीकों का ईजाद
उसूलों के लिए मर-मिट जाने का ऐलान
एक पुरुष ने कहा तब:
तुम्हारा हुस्न खुदा की इनायत है
दिल आ जाए किसी का भी जायज है
चेहरा है आपका इतना हसीन
कोई भी मर जाएगा, कीजै यकीन
नारी ने किया पलटवार
बात तो उसूलों के लिए टकराने की थी
दिल आने की बात कहाँ से आ गयी
दिल देता है तवज्जो जीने को
चेहरे पर, मरने की बात कहाँ से आ गयी
मरते हैं आप जिसके चहरे पर
उसमें है एक अदद दिमाग भी
जो कलम बना है औजार उसका
बन जाएगा हथियार भी
और भी निखर जायेगी
विद्रोह की आवाज
सौंदर्य के सुनहरे पिंजरे में क़ैद की
हर शाजिश के साथ.
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