एक ग्रुप में एक मित्र ने फीस बढ़ोत्तरी के विरुद्ध जेएनयू आंदोलन का मजाक बनाने के लिए तथा मेरे वेतन पर तंज करने के लिए (शायद) जेएनयू के प्रोफेसरों का वेतन पूछा, वैसे प्रोफेसरों की आय का छात्रों की फीस से कोई संबंध नहीं है, उसका जवाब आप सबके विचारार्थ पोस्ट कर रहा हूं।
जेएनयू में प्रोफेसरों को उतना ही वेतन मिलता है, जितना इलाहाबाद विवि, बीएचयू, अलीगढ़, दिल्ली विवि या किसी भी केंद्रीय विवि के प्रोफेसर को। वैसे मैं जेएनयू का छात्र रहा हूं, प्रोफेसर दिवि में था। प्रशासन जेएनयू का उतना ही सरकार परस्त रहता है जितना अन्य विश्वविद्यालयों का। नौकरी की तलाश में तमाम विश्वविद्यालयों की खाक छाना, कुछ सैभाग्यशाली संयोगों के मेल से देर से ही सही दिवि में मिल गयी। (प्राथमिकता में ऊपर जेएनयू और इवि थे)। विश्वविद्यालय-कॉलेजों में 99.9% नौकरियां 'एक्स्ट्रा-अकेडेमिक कंसीडरेसन' पर मिलती हैं, 0.1% संयोगों की दुर्घटना से। मैं कम उम्र में नास्तिक हो गया जब गॉड ही नहीं था तो गॉडफादर कहां से होता? इलाहाबाद विवि में 1986 में 1 घंटा 29 मिनट इंटरविव चला (सही सही समय इसलिए पता है कि बाहर इंतजार में बैठे लोग कुतूहलबस क्लॉक कर रहे थे)। 6 पोस्ट थीं, मैं इतना आशान्वित हो गया था कि सोचने लगा गंगा पार नया नया झूसी बन रहा था, वहां घर लूं कि इस पार तेलियरगंज में। हा हा। 1 साल बाद तब के कुलपति एक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में द हेग (नीदर लैंड) में मिले और चहककर बताए कि वे तथा एक्सपर्ट मेरे प्रकाशन (तब 2 ही थे) और मेरी प्रस्तुति से इतने गदगद हुए थे कि 'तमाम तर के बावजूद' वे मेरा नाम पैनल में नंबर 7 पर रखने में सफल रहे थे। मैंने कहा था कि जब 6 ही पद थे तब नंबर 7 पर रखते या 70 पर क्या फर्क पड़ता? चुने गए 6 लोगों में इवि के बच्चों ने बताया कि कुछ प्रयागराज प्रोफेसर हैं। (जो दिल्ली में रहते हैं प्रयागराज ट्रेन से कभी कभी आते हैं और क्लास लेकर वापसी की उसी ट्रेन से चले जाते हैं।) हो गया होता तो मेरे लिए कितना अच्छा होता, घर से संपर्क बना रहता तथा शायद छात्रों के लिए भी। खैर क्या होता तो क्या होता, बेकार की बात है। आपने छोटा सा सवाल पूछा मेरे वेतन पर तंज कसने के लिए और मैं नॉस्टेल्जियाकर लंबे जवाब में फंस गया। वैसे मुझसे लोग जब कहते थे कि मेरे साथ नाइंसाफी हुई, देर से नौकरी मिली? मेरा जवाब होता था कि नाइंसाफी की शिकायत तो तब हो जब यह मानूं कि समाज न्यायपूर्ण है। मैं तो पोस्टर लेकर घूमता हूं कि यह अन्यायपूर्ण समाज है, इसे जल्द-से-जल्द बदल देना चाहिए। अन्यायपूर्ण समाज में निजी अन्याय अंतर्निहित होता है।
जहां तक देर से मिलने का सवाल है तो सवाल उल्टा होना चाहिए, मिल कैसे गयी? भाग्यशाली था कि मिल गयी और 2004 में जाते-जाते अटल बिहारी सरकार द्वारा पेंसन योजना खत्म करने के पहले। अंत में आपके सवाल का जवाब संक्षेप में: जेएनयू ही नहीं छठे वेतन आयोग के बाद हिंदुस्तान के सभी विश्वविद्यालय-कॉलेजों के प्रोफेसरों को समान तथा इतना सम्मानजनक वेतन मिलने लगा था कि सब कार में चल सकें तथा कर्ज पर फ्लैट लेकर ईएमआई दे सकें। भला हो तत्कालीन शिक्षामंत्री अर्जुन सिंह का। लेकिन शिक्षक भी सुविधाजनक जीवन जी सके यह धनपशुओं की चाकर व्यवस्था को बर्दाश्त नहीं तथा इसके लिए वह ज्ञान की दुकानें खोल रही है, मौजूदा विश्नविद्यालयों का बाजारीकरण कर रही है तथा शिक्षकों को ठेका-मजदूरों में तब्दील कर रही है। दिल्ली विवि में हजारों शिक्षक एढॉक तथा गेस्ट (दिहाड़ी मजदूर) हैं, कई कई दशकों से। निजी विवि 20-25 हजार देते हैं। अनिश्चितता के भय में जी रहे शिक्षकों की जिम्मेदारी है कि वे निर्भीक नागरिक तैयार करें? यह जवाब उम्मीद है आपके 'कौतूहल' को शांत कर सके, नहीं तो प्रति-प्रश्न के लिए आप स्वतंत्र हैं। बाकी जेएनयू के छात्रों को मजदूरी करके पढ़ाई करने की आपकी सलाह पर मेरे प्रशन का जवाब आपने नहीं दिया कि आपने अपनी पढ़ाई के दौरान कितनी और क्या मजदूरी की थी? वैसे मैंने 18 साल की उम्र में घर से पैसा लेना बंद कर दिया था और खुद की पढ़ाई के साथ भाई-बहन की पढ़ाई की भी आर्थिक जिम्मेदारी का वहन किया।
14.11.2019
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