व्यक्तिगत और सामूहिक-समुदायिक आत्मावलोकन और आत्मालोचना बौद्धिक विकास की अनिवार्य शर्त है। इसीलिए मैं लगातार आत्मावलोकन, मंथन और आत्मालोचना करता रहता हूं, जो बौद्धिक विकास के लिए आवश्यक होने के साथ वस्तुनिष्ठ निर्णय पर पहुंचने में सहायक होता है। इसीलिए परमार्थभाव को स्वार्थभाव पर तरजीह देता हूं, तथा उसी भाव से चिंतन-मनन के बाद ही विचार व्यक्त करता हूं। और चूंकि वे मानवता की सेवा में समुचित लगते हैं इसीलिए उनके प्रसार का प्रयास करता हूं। जब गलत लगेंगे तो बदल देंगे। और विचार अमूर्त होते हैं जिनका इस्तेमाल इंसान करता है, विचार किसी का इस्तेमाल नहीं करते। जो विचार मानवता की सेवा में सार्थक लगते हैं हम उन्हें सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के उद्देश्य से ज्यादा-से-ज्यादा व्यापक बनाना चाहते हैं।
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