समृति
डीपीटी (देवी प्रसाद त्रिपाठी)
एक साहित्यिक व्यक्तित्व
ईश मिश्र
अद्भुत मेधा, स्मरणशक्ति एवं असाधारण
मानवीय संवेदना से ओतप्रोत, असाधरण साधरणता के व्यक्तितव वाले मित्रों के मित्र,
त्रिपाठीजी ( पूर्व सांसद, देवी प्रसाद त्रिपाठी) के अचानक चल देने से ठगा सा
महसूस करने लगा। कैंसर के अंतिम चरण के बावजूद लगता था कि ऐसे जीवट वाले इंसान का
मौत भी कुछ नहीं कर सकती, लेकिन मौत ही अंतिम सत्य है, और अनिश्चित। 10-5 दिन पहले
जिससे, जिसके जीवन की अगली योजनाओं पर बात हुई हो, कुछ ही दिन पहले कुछ ही दिन बाद
जिसके जन्मदिन के उत्सव की तैयारी की बात हो रही हो, उसकी श्रद्धांजलि लिखना कितना
हृदय-विदारक होता है? क्रिसमस के चंद
दिनों पहले त्रिपाठी जी (डीपीटी) से अगले 5-6 साल की जीवन की योजनाओं पर बात हुई।
लेकिन 2020 के दूसरे ही दिन सारी योजनाओं को धता बताते हुए वे सदा के लिए दुनिया
छोड़कर चले गए। 6 जनवरी 2020 को त्रिपाठी जी अपनी सत्तरवीं वर्षगांठ पर, पहली बार
बड़े पैमाने पर इंडिया इंटरनेसल सेंटर में अपना जन्मदिन मनाने वाले थे। आमंत्रण के
लिए जेएनयू के मित्रों की सूची बनाने की जिम्मेदारी मित्र कुमार नरेंद्र सिंह की
थी। अब उसी तारीख में कांस्टीट्यूसन क्लब में उनकी समृति सभा होगी। कुछ सालों से
कैंसर का इलाज चल रहा था जो कि आखिरी चरण में था। हर महीने कुछ समय अस्पताल में
बीतता था डाक्टरों ने पहले ही बता दिया था कि अंत कभी भी आ सकता है लेकिन वे
बेपरवाह अपनी तरह की बेफिक्र जिंदगी जी रहे थे जैसे जीवन अभी अनंत है। इसी
बेपरवाही से उन्होंने सारी जिंदगी जिया। पिछले 2-3 सालों से, शायद बीमारी की वजह
से उनके अंदर एक अजीब सी बेचैनी मुझे लगती थी। दूसरे-तीसरे महीने, कभी कभी
बीसवें-पचीसवें दिन एकबैग उनका फोन आता, “कहां हो?”, “घर”, मैं आधे घंटे में आ रहा
हूं। और कॉलेज के मेरे घर आ जाते, अक्सर हम घर के बाहर आम के नीचे ही बैठते, जाड़े
में आग जलाकर। अक्सर हम उनके साथ फिरोजशाह
रोड (सांसद का उनका आवास) या इंडिया इंटरनेसनल सेंटर चल देते। कोई इलाहाबाद के
मित्र या सीनियर/विशिष्ट व्यक्ति आते तो उनका फोन आ जाता, आ जाओ। एक बार आए बोले
आधा घंटा सोऊंगा और सो गए। डेढ़-दो घंटे बाद उठे तो नाराज हो गए कि जगाया क्यों
नहीं? और तुरंत तैयार हो कर साथ चलने का आदेश देते।
उऩके
अंतिम संस्कार (3 जनवरी
2020)में शामिल लोगों की उपस्थिति से उनके संबंधों के फलक का
पता चलता है। किस तरह का संसार रचा था। दिल्ली के सभी दलों क बड़े राजनेताओं से
लेकर सभी रंगत के श्रेष्ठतम बुद्धिजीवी,पत्रकार, प्रोफेसर,छात्रनेता,रंगकर्मी,संस्कृतिकर्मी ,मजदूरनेता
और किसान नेता उपस्थित थे।
त्रिपाठीजी में एक देवी प्रसाद
त्रिपाठी से मेरी पहली मुलाकात 1972 में इलाहाबाद में हुई, मैं विश्वविद्यालय के
विज्ञान संकाय में प्रथम वर्ष का छात्र था और तब अपने साहित्यक तखल्लुस वियोगी नाम से जाने जाने वाले त्रिपाठी जी वरिष्ठ छात्र या यों कहें कि
छात्र नेता थे। लोगों ने बताया कि उसके पिछले साल (1971-72 में) छात्रसंघ के
प्रकाशनमंत्री का चुनाव ‘ढक्कन गुरू’ से हार चुके थे। वह चुनाव वे
विद्यार्थी परिषद के प्रत्याशी के रूपमें लड़े थे। मैंने जब से जानना शुरू किया तब
वे एक प्रगतिशील साहित्यिक समूह ‘परिवेश’ में सक्रिय थे, समूह के अन्य लोगों में
कृष्ण प्रताप सिंह (दिवंगत), विकास नारायण राय, शीश खान, रमाशंकर प्रसाद आदि थे।
उनकी पहचान एक कवि के रूपमें थी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सीनियर-जूनियर के
अर्थों में बहुत सामंती माहौल था। कोई भी जूनियर हर सीनियर को सर संबोधित करता था।
दो लोगों ने सर कहने से रोका, कृष्ण प्रताप जी और वियोगी, मैंने उन्हें वियोगी जी
की बजाय त्रिपाठी जी कहने लगा।
त्रिपाठी जी (डीपी त्रिपाठी), शासक वर्ग की
राजनीति में होने के बावजूद वे एक बहुत ही संवेदनशील, बेहतर इंसान थे
तथा समाजवाद से उनका मोह बरकरार रहा। सीपाएम से कांग्रेस में संक्रमण काल के पहले, दौरान तथा राजीव
गांधी से उनकी निकटता के दौर में मैंने बहुत भला-बुरा कहा, किंतु उनका
स्नेह बना रहा। पिछले 10 सालों में तो यदा-कदा अचानक फोन करके कैंपस में घर आ जाते और कई
बार गाड़ी में 'लाद कर' फिरोज शाह रोड या इंडिया इंटरनेसनल सेंटर चल देते। गरीबी के
दिनों में भी उनकी दरियादिली में कमी नहीं होती। मुझसे कई बार गंभीर
कहा-सुनी हुई है। मार्क्सवाद में मेरा संक्रमण प्रमुखतः पुस्तकों के माध्यम से हुआ, जिन एकाध
व्यक्तियों का योगदान है उनमें त्रिपाठी जी (इलाहाबाद के दिनों में वियोगी जी) का
योगदान है। इलाहाबाद में एक प्रगतिशील साहित्यिक ग्रुप था जो गोष्ठियों के
अलावा एक अनिश्चितकालीन पत्रिका, 'परिवेश' निकालता था उनमें वियोगी जी भी थे। उन दिनों और जेएनयू के
शुरुआती दिनों में भी कुछ बहुत अच्छी कविताएं लिखा। '... क्या
सोच कर तुम मेरा कलम तोड़ रहे हो, इस तरह तो कुछ और निखर जाएगी आवाज.......' विनम्र
श्रद्धांजलि।
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