Thursday, November 12, 2020

बेतरतीब 93-94 (बचपन 16)

 विद्याधर की कहानी के समानांतरअपनी कहानी आगे बढ़ाते हुए पृष्ठभूमि के तौर पर जैसा कि विद्याधर के विद्रोह -1, कमेंट में लिखा, हमारे बचपन में हमारा गांव शैक्षणिक रूप से बहुत पिछड़ा था, साक्षरता दर वयस्कों में ही नहीं, बच्चो में भी नगण्य थी। आम तौर पर 6-7 साल में बच्चे स्कूल जाना शुरू करते थे। मेरा छोटा भाई मुझसे एक-डेढ़ साल ही छोटा था तथा घर के कामों से बचा मां-दादी का ध्यान उसी पर रहता था तो मैं 4 साल की उम्र से ही अपने से 4-5 साल बड़े भाई के पीछे-पीछे स्कूल जाने लगा। प्री-प्राइमरी को औपचारिक रूप से अलिफ कहा जाता था और वैसे गदहिया गोल। अब सोचने पर लगता है कि कि ग्रामीण संवेदना कितनी क्रूर होती है कि अनंत संभावनाओं वाले मासूमों को हम गधा कह देते हैं। दो ही विषय पढ़ए जाते थे, भाषा (हिंदी) और गणित (संख्या)। स्कूल में 3 कमरे थे 3 शिक्षक। अलिफ (गदहिया गोल) और कक्षा 1 एक कमरे में एक शिक्षक ,पंडित जी, 2 और 3 को बाबू साहब तथा 4और5 को हेडमास्टर, मुंशीजी पढ़ाते थे। (मुंशी जी के बारे में अपने ब्लॉग में उनसे उनसे लगभग 100 साल की उम्र में मुलाकात का संस्मरण अपने ब्लॉग में लिखा है, वे पतुरिया जाति के थे तथा मेरे, 1963 में कक्षा 4 में पहुंचने तक रिटायर हो गए थे।) दोपर बाद प्रायः धूप में या स्कूल के सामने नीम की छांव में गदहिया गोल के बच्चे गिनती या पहाड़ा रटते। मुझे जल्दी ही 20 तक का पहाड़ा याद हो गया। इकाई की जगह हमलोग काई का उच्चारण करते, जैसे 6 सते 42 - 4 दहाई, एक (इ)काई। 3-4 महीने में पंडित जी को 4 साल के बच्चे में क्या प्रतिभा नजर आई कि उन्होंने गदहिया गोल से मुझे कक्षा 1 में टंका दिया। 1,2,3, 4 में अपने से 2-3 साल बड़े लड़कों के साथ था। 4 में पहुंचने पर मुंशी जी के रिटायर होने पर बाबू साहब हेड मास्टर बने और कक्षा 4 तथा 5 को पढ़ाने लगे। कक्षा के कोने में मिट्टी का एक चबूतरा बना था, बाबू साहब कभी कभी कुर्सी की बजाय चबूतरे पर भी बैठते। चबूतरे के सामने टाट पर कक्षा 5 के 7-8 लड़के बैठते उसके बाद 4 के 8-10। कक्षा 5 में मेरे गांव के एक उपाध्याय जी थे जो मेरे बड़े भाई के लगभग हमउम्र थे 2 लड़के नदी पार के एक गांव गोखवल के जयराम यादव और श्रीराम यादव बहुत बड़े-बड़े बड़े थे। जैसा मैंने विद्याधर के विद्रोह-भाग 1 के कमेंट में लिखा कि कक्षा 4 में पढ़ते 2-3 महीने हुए थे कि डिप्टी साहब (एसडीआई) मुआयना पर आए थे। डिप्टी साहब का मुआयना स्कूलों की बड़ी परिघटना होती थी। उन्होंने कोई अंकगणित का सवाल कक्षा 5 वालों से पूछा, सब खड़े हो गए। कक्षा 5 वालों की लाइन के बाद 4 की लाइन में मैं आगे बैठता था और तपाक से जवाब दे दिया। डिप्टी साहब बहुत खुश हुए। बाबू साहब ने साबाशी में कहा कि मैं 4 में था तो वे बोले इसे 5 में करो और अगले दिन मैं 5 में बैठ गया। कक्षा 5 की बाकी कहानी ब्लॉग के उपरोक्त लिंक में है। एक बात दोहरा दूं। जब मैं 5 वालों के साथ बैठा सब ऐसे देख रहे थे जैसे उनका खेत काट लिया हूं। बाबू साहब ने पहुंचते ही मेरे वहां बैठने पर सवाल उठाया और कहा कि भेंटी भर का हूं लग्गूपुर (7-8 किमी दूर मिडिल स्कूल का गांव) के रास्ते सलारपुर का बाहा में बह जाीओ गे। (धान के खेतों से बरसात के पानी की निकासी की नाली को बाहा कहा जाता था, एक बार बहने भी लगा था), मैंने कहा 'अब चाहे बही, चाहे बुड़ी, डिप्टी साहब कहि दीहेन त हम अब पांचै में पढ़ब। हा हा ।

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