हम पहली बार (1981 में) जब खूबसूरत पहाड़ी पर स्थित कामाख्या गए तो ब्राह्मणों के शाकाहारी होने का दृढ़ पूर्वाग्रही विश्वास था। हमारा नया नया चयनित आईपीएस मित्र अपने लाव लस्कर के साथ हमारा मेजबान था और हमें बिना लाइन में लगे प्रवेश मिल गया। प्रवेश द्वार के बाहर बलि की बेदी थी। पता चला अगर एक छटके में सिर न कटा तो मन्नत में कुछ खोट माना जाता है। पहुंचते ही एक बलि देखने को मिली पंडे के वार के एक झटके में मुंडी अलग और इतनी फुर्ती से चमड़ा हटाया कि कोई चिक भी इतनी फुर्ती क्या दिखाएगा? मुंडी पंडे की और धड़ भक्त का। कहीं कहीं पुजारी अब्राह्मण होते हैं, जैसे कड़ा मानिकपुर में पंडे माली होते हैं। मैंने उत्सुकताबश एक पंडा से पूछ लिया कि बलि का प्रसाद पंडा खाते हैं क्या? उन्होने गुस्से में जवाब दिया और क्या? फिर डर डर कर पूछा पंडाजी ब्राह्मण होते हैं? इस पर तो ज्या गुस्से में बोले और क्या? मेरा मित्र गुस्से में वहां से खींचकर दूर ले गया और समझाया कि यहां पंडा लोग से पंगा नहीं लेना है। वैसे मुझे ब्रह्मपुत्र के बीचो-बीच उमानाथ मंदिर का लोकतेसन ज्यादा रमणीय लगता है। उसके बाद तो उत्तर-पूर्व की कई यात्राएं की। इस मई में केंद्रीय विवि तेजपुर और अप्रैल में नेहू (शिलांग) के आमंत्रण रद्द हो गए।
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