https://Poonam Singh I must complement you for your courage to put your disagreement bluntly. "not goin to buy your rotten logic". First of all there is no "logic" in my above brief statement of the fact. "हिंदू एक काल्पनिक इकाई है, हिंदू तो कोई पैदा नहीं होता, कोई बाभन होता है कोई चमार।" Logic, as an epistemological tool is used in an argument to substantiate one's view point. My statement simply means that Hindu is an abstract concept denoting a pyramidal structure of caste-system in which everyone finds some-one to look down at except the lowest of the bottom, owing to the original divine injustice by Lord Brahma. I was born a Babhan, not a Hindu, whom a chamar, if also a Hindu, could not touch. With consistent, unceasing internal struggles became a human from a babhan. Becoming human from babhan is painful but pleasant process.
मेरे विचार से, ज्ञानार्जन का प्रथम सोपान और आवश्यक शर्त है: जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना के फलस्वरूप मिली लिंग; जाति; धर्म; क्षेत्रीयता; राष्ट्रीयता की अस्मिता से जुड़ी प्रवृत्तियों से ऊपर उठकर एक चिंतनशील इंसान के रूप में स्वअर्जित तर्क -आधारित (लॉजिकल) अस्मिता का निर्माण। जिसे मुहावरे की भाषा में 'बाभन से इंसान बनना' कह देता हूं।ज्ञानार्जन की दूसरी शर्त है हर बात पर सवाल अपने आपसे शुरू करके। आत्मालोचना बौद्धिक विकास की अनिवार्य शर्त है। /2018/02/to-rebel-is-to-create.html
"आपका यह परम ज्ञान किस पर आधारित हैं ।मार्क्स पर।" मेरा ज्ञान मेरे दिमाग के इस्तेमाल से आया, दिमाग का इस्तेमाल ही मुनुष्य को पशुकुल से अलग करता है। यह मार्क्स का भूत बेबात कैसे सवार हो गया? नीचे कमेंट बॉक्स में मार्क्स पर दो लिंक दे रहा हूं।
अंतिम सत्य की ही तरह कोई अंतिम ज्ञान नहीं होता, ज्ञान एक निरंतर प्रक्रिया है, हर पीढ़ी पिछली पीढ़ियों की उपलब्धियों को समेकित कर आगे बढ़ती है। तभी मनुष्य के लिए पाषाण युग से साइबर युग तक की यात्रा संभव हुई है। ज्ञान की इस अग्रगामी में यथा-स्थिति में निहित स्वार्थ की ताकतें स्पीडब्रेकर बन जाती हैं, धर्म, धार्मिकता, धर्मांधता सबसे बीहड़ स्पीड ब्रकर्स हैं। सिर्फ आपका हिंदू धर्म नहीं सभी धर्म पर यह बात लागू होती है। धार्मिकता में आस्था की वेदी पर व्यक्ति विवेक की बलि चढ़ा देता है। यह पोस्ट सबरीमाला में प्रवेश के लिए मासिकधर्म की अवस्था पार कर चुकी महिलाओं की अयोग्यता को लेकर है। गुलामी बलपूर्वक स्थापित की जाती है, उनकी कायरता उसे अविरल बनाती है। इसीलिए गुलामी अधिकार नहीं, विकार है। पूर्वजों की परंपराएं जिंदा कौमों के दिमाग पर एक दिवास्वपन के बोझ सी होती हैं। बोझ तो फिर भी बोझ होता है, कभी तो उतारना पड़ता है।
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