Tuesday, October 23, 2018

बेतरतीब 41 (तलाश-ए-माश)

पहले जब एढॉक 3-4 महीने का होता था तो यह बैक डोर परमानेंट या लीव वैकेंसी पर टेंपरोरी नियुक्ति का बैक डोर रास्ता था। जहां भी इंटरविव देने जाओ पता चलता था कोई पहले से पढ़ा रहा है, उसी का होगा। लेकिन अब इतने लंबे समय तक एढॉकिज्म के बाद तो उनका हक बनता है। 1983 में पता चला कि हर विभाग जुलाई-अगस्त में इंटरविव करके 30 की लिस्ट बनाता है, मैंने भी इंटरविव देना शुरू किया और 1990 तक मेरा नाम पहले 10 में होता था लेकिन चोर-हरामखोर प्रोफेसर-प्रिंसिपल-टीचर इंचार्जों के चलते मुझे कभी कोई एढॉक नौकरी नहीं मिली। 1986 में 29 लोगों को एढॉक नौकरी मिल चुकी और मेरा नाम केयम कॉलेज में भेजा गया है, उसी दिन मैं कॉलेज पहुंचा तो पता चला कि पैनल के बाहर से एक नामी क्रांतिकारी प्रोफेसर का चेला और आईईजी के तत्कालीन निदेशक का रिश्तेदार मेरे पहुंचने के आधा घंटा पहले ज्वाइन कर चुका था। यनयस प्रधान नामक गुंडे सा दिखने वाले प्रिंसिपल से मिलने गया तो बोला कि यह उसका कॉलेज है जिसे चाहे अप्वाइंट कर सकता है। सार्वजनिक संस्थान का याद दिलाने पर (7-8 दरबारी शिक्षकों की उपस्थिति में) "I can throw you out of office". मैंने कहा, "you seem to be quite capable of doing that" and shouted back, "You can throw me out of office because I am no one". तब थोड़ा नम हुआ बोला, मैंने जिसे रखा है, मेरे चाचा का लड़का है क्या? मैंने कहा मुझे क्या पता आपके कितने चाचा और बाप हैं। पैनल के बाहर से नियुक्त वह कुछ ही दिनों में परमानेंट हो गया। बाकी बाद में। उसके 10 साल बाद कुछ सुखद संयोगों की दुर्गटना में मुझे भी परमानेंट नौकरी मिल गयी। मुझे कोई कहता है कि तुम्हें देर से नौकरी मिली मैं कहता हूं, सवाल उल्टा है, मिल कैसे गयी? 99.9 फीसदी नौकरियां नेटवर्किंग से मिलती हैं। अगली कहानियां, फिर कभी।

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