मैक्यावली की
प्रासंगिता
ईश मिश्र
सब रचनाएं समकालिक होती हैं, महान रचनाएं सर्वकालिक हो जाती हैं। मैक्यावली का
प्रिंस (सम्राट) ऐसी ही सर्वकालिक रचना है जिसका मकसद समकालिक निरंकुश
राजशाहियों के प्रसंग में “सत्ता(शक्ति) हासिल करने, उसे बरकरार रखने और बढ़ाने के साधनों पर विचार
करना” था। युद्ध से स्थापित नवजागरणकालीन राजशाहियों के
निरंकुश शासक के लिए परामर्श के रूप में लिखा गया यह छोटा सा ग्रंथ, चुनाव से स्थापित आज की नवउदारवादी, निरंकुश लोकशाहिओं के लिए भी कम-से-कम उतना ही
प्रासंगिक लगता है। 1513 में प्रिंस के प्रकाशन के बाद से ही मैक्यावलियन
शब्द छल-कपट और धूर्तता का पर्याय बन गया जिसकी प्रतिध्वनि शेक्सपियर तथा मॉर्लो
के नाटकों में साफ सुनाई देती है। यह मैक्यावली के साथ ही नहीं, आधुनिक राजनैतिक सिंद्धांत के भी साथ अन्याय है, जिसका भवन प्रिंस की बुनियाद पर खड़ा है।
जैसा कि हम जानते हैं कि बुद्धिजीवी न्याय-अन्याय या अच्छाई बुराई का निर्माण नहीं
करता, वह समाज में पहले से ही मौजूद परिस्थियों की
व्याख्या तथा विश्लेषण करता है। मनुष्य में सकारात्मक संभावनाओं के प्रति
नकारात्मक सोच के चलते मैक्यावली किसी बेहतर राजनैतिक विकल्प की बजाय प्रचलित
राजनैतिक रणनीतियों को खूबसूरती से अंजाम देने की सलाह देता है। सत्ता के लिए
छल-कपट; राजनैतिक हत्या; तख्तापलट; धोखा-धड़ी नवजागरण कालीन राजशाहियों में आम
बातें थीं। मैक्यावली तो बस अक्लमंद शासक से बस इनके अंज़ाम को भव्यता प्रदान
करने को कहता है। वह यथार्थ को न तो अपने पूर्ववर्ती मध्ययुगीन विचारकों की तरह
अमूर्त आध्यात्मिक मुलम्मे में ढकता है, न ही परवर्ती
उदारवादियों की तरह असमानता और परतंत्रता की हक़ीकत को अमूर्त समानता और
स्वतंत्रता के शब्दाडंबर में। वह राजनैतिक हक़ीक़त को अनावरित, जस-की-तस पेश करता है। राणा अयूब की गुजरात
फाइल्स मोदी द्वारा सत्ता के लिए छल-कपट तथा राजनैतिक हत्याओं के आंकड़ों का
ऐतिहासिक दस्तावेज है।
प्रिंस अक्लमंद शासकों के लिए राजनैतिक परामर्श की एक संहिता है जो नैतिक-अनैतिक; उचित-अनुचित; पवित्र-अपवित्र, धार्मिक अधार्मिक आदि के विचारों से परे सत्ता प्राप्त करने; उसपर एकाधिकार कायम रखने तथा बढ़ाने के व्यावहारिक तरीके बताती है। मैक्यावली का प्रिंस(शासक) न तो मध्ययुगीन राजाओं की तरह कोई देवदूत है, न ही कोई युवराज। वह कोई देवदूत या युवराज नहीं बल्कि नैपोलियन, हिटलर और मोदी की ही तरह साधारण पृष्ठभूमि से आने वाला कोंदेतियर (सैन्य नायक) है जो अपने बल-बूते सत्ता के शिखर तक पहुंचता है। वह दूसरों के शस्त्रों से नये राज्य की स्थापना करने वाला नया शासक है। उसका चरित्र लोमड़ी तथा शेर के गुणों का समन्वय है।
मैक्यावली शासक को सलाह प्राचीन तथा समकालीन शासकों की मिशाल के साथ देता है। उसकी प्राचीन कालीन अनुकरणीय मिशालों में एक है, ईशा पूर्व चौथी शताब्दी में के एक कुम्हार का बेटा था अगाथोक्लस। मोदी जी के चायवाला होने में जो भी सच्चाई हो, अगाथोक्लस ने जीवन की शुरुआत बाप के ही पेशे से की। जल्दी ही कुम्हारी छोड़कर, जोड़-तोड़ से सेना में भर्ती हुआ तथा अपने कुलीन, धनी संरक्षक का कृपा पात्र बन गया। संदिग्ध परिस्थियों में संरक्षक की मौत के बाद उसकी विधवा से शादी करके अपनी सेना खड़ी कर लिया. एक दिन राज्य के सारे सभासदों(सेनेटर्स) तथा अन्य सभी गणमान्य नागरिकों को किसी वाद-विवाद के बहाने एकत्रित कर उनका कत्ल-ए-आम कर खुद को राजा घोषित कर दिया। यदि नरेंद्र मोदी जी वाकई चाय बेचते थे तो उसके बाद मैट्रिक से आगे की पढ़ाई-लिखाई न कर सकने के कारण (उनकी बीए/यमए की डिग्रियां अभी तक विवाद में हैं) पत्नी को छोड़कर आरयसयस के प्रचारक बन गये। 1980 के दशक में पूर्णकालिक कार्यकार्यकर्त्ता के रूप में भाजपा में गये और 2002 तक गुमनाम रहकर, आरयसयस मुख्यालय और भाजपा के अडवाणी खेमें के साथ टांके फिट कर, भाजपा सरकार की लोकप्रियता के पराभव में संकटमोचक के रूप में मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने। उसके बाद की कहानी इतिहास बन चुकी है।
उत्तर
प्रदेश का चुनाव सिर पर है। कश्मीर जल रहा है। क्या इन दोनों बातों में कोई
ताल्लुक है? भारतीय सेना ने 9 जुलाई को कश्मीर के अलगाववादी
संगठन, हिज़बुल मजाहिदीन के युवा कमांडर, 22 साल के बुरहन वानी को उसकी एक परिचित लड़की के
जरिए, हनी
ट्रैप में फंसाकर मार दिया। उसके मातम में जैसे पूरी घाटी उमड़ पड़ी। देश के
बाकी हिस्सों में विरोध प्रदर्शनों को तितर करने के लिए पानी की बौछार, लाठीचार्ज या आंसू गैस का इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन कश्मीर में सीधे गोलीबारी। सरक्षाबलों की
गोली से घायल 3 दर्जन से ज्यादा नवजवान दम तोड़ चुके हैं। छर्रों से घायल सैकड़ों
दृष्टि खोने के खतरे से जूझ रहे हैं। सारे स्वघोषित देशभक्त भोंपू, इतने बड़े आतंकवादी को मार गिराने के लिए सेना का
महिमामंडन कर रहे हैं। सत्ता के शिखर पर बैठे लोगों को अनुमान था कि इस फर्जी
मुठभेड़ का घाटी में व्यापक विरोध होगा और उसके बर्बर दमन से इन्हें जेयनयू के बाद
एक बार फिर से मोदी नीत दक्षिणपंथी उग्रवाद को देशद्रोह के शगूफे से राष्ट्रोंमाद
फैलाने का मौका मिल जायेगा। उत्तर प्रदेश चुनाव सिर पर हैं और मोदी सरकार के पास
बढ़ती मंहगाई; बेरोजगारी; बेदखली; भुखमरी; विश्वबैंक की मातहती
के अलावा उपलब्धियों में कुछ खास और नहीं है। इसीलिए कश्मीर जल रहा है। कहते हैं
काठ की हांड़ी बार बार नहीं चढ़ती। लगता है यह कहावत सच नहीं है। सत्ता के शिखर पर
बैठे लोगों को अनुमान था कि इस फर्जी मुठभेड़ का घाटी में व्यापक विरोध होगा और
उसके बर्बर दमन से इन्हें जेयनयू के बाद एक बार फिर से मोदी नीत दक्षिणपंथी
उग्रवाद को देशद्रोह के शगूफे से राष्ट्रोंमाद फैलाने का मौका मिल जायेगा। यूरोपीय
नवजागरण काल के राजनैतिक विचारक मैक्यावली ने 500 साल पहले ही राजनैतिक विरोधियों
को छल-कपट से रास्ते से हटाने की हिमायत की थी। मैक्यावली ने यह बात यूरोप के
नवजागरण काल की निरंकुश राजशाहियों के संदर्भ में कही थी। लेकिन रवायत आज की
नवउदारवादी तथा-कथित लोकशाहियों में भी जारी है। उत्तर प्रदेश में चुनाव सिर पर
है। कश्मीर जल रहा है।
प्रिंस अक्लमंद शासकों के लिए राजनैतिक परामर्श की एक संहिता है जो नैतिक-अनैतिक; उचित-अनुचित; पवित्र-अपवित्र, धार्मिक अधार्मिक आदि के विचारों से परे सत्ता प्राप्त करने; उसपर एकाधिकार कायम रखने तथा बढ़ाने के व्यावहारिक तरीके बताती है। मैक्यावली का प्रिंस(शासक) न तो मध्ययुगीन राजाओं की तरह कोई देवदूत है, न ही कोई युवराज। वह कोई देवदूत या युवराज नहीं बल्कि नैपोलियन, हिटलर और मोदी की ही तरह साधारण पृष्ठभूमि से आने वाला कोंदेतियरो (सैन्य नायक) है जो अपने बल-बूते सत्ता के शिखर तक पहुंचता है। वह दूसरों के शस्त्रों से नये राज्य की स्थापना करने वाला नया शासक है। उसका चरित्र लोमड़ी तथा शेर के गुणों का समन्वय है। मैक्यावली शासक को सलाह प्राचीन तथा समकालीन शासकों की मिशाल के साथ देता है। उसकी प्राचीन कालीन अनुकरणीय मिशालों में एक है, ईशा पूर्व चौथी शताब्दी में के एक कुम्हार का बेटा था अगाथोक्लस। मोदी जी के चायवाला होने में जो भी सच्चाई हो, अगाथोक्लस ने जीवन की शुरुआत बाप के ही पेशे से की। जल्दी ही कुम्हारी छोड़कर, जोड़-तोड़ से सेना में भर्ती हुआ तथा अपने कुलीन, धनी संरक्षक का कृपा पात्र बन गया। संदिग्ध परिस्थियों में संरक्षक की मौत के बाद उसकी विधवा से शादी करके अपनी सेना खड़ी कर लिया. एक दिन राज्य के सारे सभासदों(सेनेटर्स) तथा अन्य सभी गणमान्य नागरिकों को किसी वाद-विवाद के बहाने एकत्रित कर उनका कत्ल-ए-आम कर खुद को राजा घोषित कर दिया। यदि नरेंद्र मोदी जी वाकई चाय बेचते थे तो उसके बाद मैट्रिक से आगे की पढ़ाई-लिखाई न कर सकने के कारण (उनकी बीए/यमए की डिग्रियां अभी तक विवाद में हैं) पत्नी को छोड़कर आरयसयस के प्रचारक बन गये। 1980 के दशक में पूर्णकालिक कार्यकार्यकर्त्ता के रूप में भाजपा में गये और 2002 तक गुमनाम रहकर, आरयसयस मुख्यालय और भाजपा के अडवाणी खेमें के साथ टांके फिट कर, भाजपा सरकार की लोकप्रियता के पराभव में संकटमोचक के रूप में मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने। उसके बाद की कहानी इतिहास बन चुकी है।
प्लेटो-अरस्तू से
लेकर नवजागरण तक सारे राजनैतिक चिंतकों ने राज्य(सत्ता) को किसी ईश्वर, न्याय, आज़ादी जैसे उच्चतर
साध्य के साधन के रूप में चित्रित किया है। मैक्यावली राज्य के राजनीति से इतर
साध्य के सवाल को नज़र-अंदाज कर सत्ता को स्वयं अपने आप में संपूर्ण साध्य के रूप
में प्रस्तुत करता है। वह अपने सरोकार राजनीति तक सीमित रखता है तथा राजनीति को सत्ता
की प्राप्ति, बरकरारी तथा विस्तार की कला के रूप में परिभाषित करता है। वह राजनीति
को नैतिकता, रीति-रिवाज़ तथा धर्म एवं पराभौतिकी से अलग राजनैतिक
मूल्यों की एक स्वतंत्र, स्वायत्त
प्रणाली के रूप में स्थापित
करता है, जो राजनैतिक आचारसंहिता से संचालित होता है, किसी नैतिक या धार्मिक आचारसंहिता से नहीं। इसे
वह राज्य का विवेक कहता है। शासक के कार्यों में, साधन का औचित्य साध्य से निर्धारित होता है। विजय और सत्ता के संचालन की सफलता के बाद साधन स्वतः
सम्मानजनक मान लिए जायेंगे। जब मामला सत्ता का हो तो न्याय-अन्याय; मानवता-क्रूरता; गौरव-शर्म सब बेकार की बातें हैं। वैसे तो यह जॉर्ज बुश तथा
इंदिरा गांधी समेत तमाम अधिनायकवादी शासकों पर लागू होता है लेकिन भारत के मौजूदा
प्रधानमंत्री इसके उत्कृष्ट मिशाल हैं। गोधरा के प्रायोजन के बाद 3 महीने चले
राज्य समर्थित नरसंहार, बलात्कार, लूट-पाट, जबरन विस्थापन तथा मोदी, तोगड़िया तथा तमाम साधू-साध्वियों द्वारा
सांप्रदायिक विषवमन से उंमादी ध्रुवीकरण की लामबंदी से गुजरात का मुख्य मंत्री
बनने के बाद जिस नरेंद्र मोदी को अमरीका ने वीज़ा देने से इंकार कर दिया था उन्ही
तरीकों से केंद्र में सत्तासीन होने के बाद वही नरेंद्र मोदी अमरीका की आंख का
तारा बन गया. जब देखो तब ओबामा के साथ फोटो खिचवाने अमरीका पहुंच जाता है।
अक्लमंद शासक का
सरोकार यह जानना होना चाहिए कि इर्द-गिर्द के लोगों के मन में क्या चल रहा है? अभिव्यक्ति छलावा भी हो सकती है। इसलिए शासक को
चाहिए कि अपने मन की बात छिपाकर दूसरे के मन की बात जानें यानि खुद की नक़ाबपोशी
के साथ दूसरों को बेनकाब करता रहे। जैसा कि राना अयूब के स्टिंग में 2002 के
सांप्रदायिक तांडव के दौरान गुजरात के मुख्य सचिव रहे अशोक नारायण बताते हैं, “वे इतने चतुर हैं और फोन पर इतनी चतुराई से बात
करते हैं – वे अफसरों को फोन करके कहते हैं. ‘अच्छा उस इलाके का ध्यान रखना.’ आम आदमी के लिए इसका मतलब यह बनता है कि ‘ध्यान रखना उस इलाके में दंगा न होने पाए’ लेकिन निहितार्थ होता है कि ‘ध्यान रखना कि उस इलाके में दंगा करवाना है. ...’”
इससे जुड़ी
मैक्यावली की अगली सूक्ति है कि इर्द-गिर्द का हर सहयोगी एक संभावित हत्यारा है।
घुटने टेकते हुए वह जानता है कि थोड़ा अलग क्रमचय-संचय से राजनैतिक समीकरण बदल
सकता था और लोग उसके आगे घुटने टेकते। ऐस सारे संभावित कातिलों का कत्ल कर देना
चाहिए। लेकिन राज-काज के लिए सहयोगी तो चाहिए। ऐसे सहयोगी साथ रखे जो आजमाये हुए
वफ़ादार हों, जिनकी लगाम उसके हाथ में हो तथा जिन्हें लगातार
एहसास रहे कि उनपर नज़र रखी जा रही है। भाजपा की गुजरात में घटती लोकप्रियता के
मद्देनज़र, भाजपा की आडवाणी लॉबी ने विवाह के बारे में गलत
बयानी की बुनियाद पर आरयसयस के ब्रह्मचारी, प्रचारक से
सार्वजनिक जीवन शुरू करने वाले नरेंद्र मोदी को, जैसा कि
ऊपर बताया गया है, संकटमोचक मुख्यमंत्री बनाया। आडवाणी गुजरात में
मोदी की मदद से केंद्र की सत्ता पाना चाहते थे, लेकिन मोदी कुछ और
चाहते थे। सत्ता संभालने के बाद मोदी का प्रथम सरोकार था सत्ता की निरंतरता। युद्ध
से सत्ता हासिल के बाद नये शासक को सलाह देता है कि वह पुराने शासक तथा
परिजन-समर्थकों का विनाश करे। केशुभाई पटेल का नाम ही भारत के राजनैतिक पटल से
गायब हो गया।
जैसा ऊपर कहा
गया है, प्रिंस अक्लमंद शासकों के लिए
सत्ता प्राप्ति, बरकरारी तथा विस्तार से संबंधित राजनैतिक परामर्श
की एक संहिता है। मैक्यावली का मकसद लोगों की मानसिकता और प्रवृत्तियों के स्वभाव
के बारे में कुछ संकल्पनाओं के समुच्चयों के आधार पर ऐसी राजनैतिक स्वयंसिद्धियों
का अन्वेषण करना है जो हमेशा कारगर हों। आमजन के व्यक्तित्व की संपूर्णता उसका
सरोकार नहीं है। उसका सरोकार मनुष्य के स्वभाव के उस भाग से ही है जिसकी निरंतरता
पक्की हो, जो शासक के लिए सदा भरोसे मंद हो। शासक भी आमजन
की करह प्यार पाना पसंद करता है लेकिन प्यार में इंसान धोखा भी खा सकता है। वह इस
निष्कर्ष पर पहुंचता है कि भय लोगों को आधीन और वफादार बनाये रखने की विश्वसनीय
रणनीति है। भय सबसे भरोसेमंद साधन है. गर्दन पकड़ो तो दिल-दिमाग अपने आप रास्ते
पर आ जायेगा. वह कैलीगुला के हवाले से बताता है, “लोगों की नफरत से कोई पर्क नहीं पड़ता, बशर्ते वे मुझसे डरते रहें.” भय पैदा करने के लिए ‘कुछ कत्ल तो करने ही पड़ेंगे.’ इसके लिए उसका मंत्र है. तेजी से कत्ल करो और
आहिस्ता-आहिस्ता घाव भरो. कत्ल का जिम्मा ऐसे अधिकारी को जिससे खतरे की
संभावना हो. और जल्लाद को फांसी दे दो। गुजरात में भाजपा में मोदी के
संभावित प्रतिद्वंद्वी थे,
विहिप नेता प्रवीन तोगड़िया के करीबी और
गृहमंत्री गोरधन झपड़िया;
हरेन पांड्या और अमित शाह। जैसा कि बहादुर
पत्रकार अयूब राणा की पुस्तक गुजरात फाइल्स में कैद उस समय के अधिकारियों
के बयानों से साफ है कि गोरधन झपड़िया और पांड्या सक्रिय रूप से मुसलमानों के
कत्ल-ए-आम का संचालन कर रहे थे तो अमित शाह फर्जी मुठभेड़ों का। झपड़िया राजनैतिक
पटल से गायब हो गये और पांड्या दुनिया से; अमित शाह उनके क्लीन
चिटिया मुरीद जिनकी ‘क्लीन चिट’ की डोर मोदी के पास है। उक्त पुस्तक में वर्णित सर्वव्यापी भय के माहौल
का निर्माण मैक्यावली की सलाह की पूर्ण अनुशंसा है।
आरयसयस के बौद्धिकों
तथा मोदी के पास भूमंडलीय पूंजी की मातहती के अलावा कोई आर्थिक विश्वदृष्टि है
नहींहै। धर्मोंमाद और राष्टोंमाद से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ही अब फिर से उनके पास
एकमात्र चुनावी हथियार बचा है। कैराना से हिंदुओं के पलायन की कहानी की पोल खुलने
के बाद कश्मीर, आतंकवाद के बहाने देशभक्ति के शगूफे को फिर से
तूल देने के लिए सोची-समझी योजना के तहत बुरहन की ‘मुठभेड़’ को अंजाम दिया गया। कश्मीर एक बार फिर लपटों में
है। यहां मकसद इस बात पर चर्चा करना नहीं है कि 22 साल के बुरहन वानी के मातम में
सिर पर कफ़न बांधकर कश्मीर घाटी में हजारों लोग क्यों उमड़ पड़े, जब कि कश्मीर में आतंकवादियों के मुठभेड़
की खबरें आम बात है? इस पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है। मैक्यावली के
अनुसार शासक के कार्यों में, साधन का औचित्य
साध्य से निर्धारित होता है। विजय और
सत्ता के संचालन की सफलता के बाद साधन स्वतः सम्मानजनक मान लिए जायेंगे. जब
मामला सत्ता की सुरक्षा का हो तो न्याय-अन्याय; मानवता-क्रूरता; गौरव-शर्म सब बेकार की बातें हैं। 2002 में गुजरात में
प्रायोजित गोधरा के जरिए गुजराती अस्मिता को खतरे के नाम पर व्यापक
जनसंहार-लूट-बलात्कार-विस्थापन से मोदी की चुनावी सफलता तथा उनके समर्पित भक्तों
की संख्या, साध्य से साधन के औचित्य साबित होने का ज्वलंत उदाहरण
है। मोदी के केंद्र की सत्ता की बागडोर संभालते ही “राष्ट्रवाद
पर खतरा” खतरा मंड़राने लगा। पहले जेयनयू अब कश्मीर। उत्तर
प्रदेश के चुनाव में यदि दक्षिणपंथी, ब्राह्मणवादी
उग्रवाद को सफलता मिली तो कश्मीर का जलना देशभक्ति बन जाएगा। उत्तर प्रदेश में
चुनाव सिर पर है। कश्मीर जल रहा है। 2019 के लोक सभा चुनाव तक तक क्या-क्या जलेगा, कितनी मासूम जानें जायेंगी, कितना उंमाद फैलेगा, सोचकर दिल दहल जाता है।
मैक्यावलियन अर्थों
में मोदी ने केंद्र में गद्दीनशीं होने का अभियान 2002 गुजरात के मुख्यमंत्री बनने
के ही दिन से शुरू होता है। वे सरकार की जनविरोधी नीतियों के चलते जनाक्रोश से
भाजपा की डूबती चुनावी नैय्या को बचाने की चालें से शुरू कर दी। विहिप बजरंगदल के
जरिए मंदिर के नाम पर तलवार-त्रिशूल बांटना शुरू कर दिया। लगता है कि
अयोध्यावासियों से अधिक गहन रामभक्ति गुजरातियों में थी। गुजरात से अयोध्या में
बाबरी विध्वंस पर मंदिर निर्माण के लिए तलवार-त्रिशूल से लैस कासेवकों के जत्थे
शुरू हो गये। उस समय के अखबार बताते हैं कि ये कारसेवक रास्ते के स्टेसनों पर खूब
ऊधम मचाते थे। गोधरा स्टेसन पर 27 फरवरी को गोधरा स्टेसन पर साबरमती यक्सप्रेस के
यस-6 डिब्बे में इतनी भयानक आग लगती है कि उस डिब्बे के सभी यात्री ख़ाक हो जाते
हैं। गौरतलब है कि उस डिब्बे में विहिप-बजरंग का कोई नेता नहीं था, सभी गरीब श्रद्धालु थे, ज्यादातर महिलाएं। दुर्घटना के आधे घंटे के अंदर
अहमदाबाद में मोदी तथा दिल्ली में उनके तब के आक़ा अडवाणी को अपनी दिव्य जांच
एजेंसियों से पता चल जाता है कि यह काम इस्लामिक गुटों ने किया। इस बात का जिक्र
इसलिए कर रहा हूं कि सशस्त्र कारसेवकों से भरी उस ट्रेन के उस डिब्बे में, इतने कम समय में बाहर से आग लगाना असंभव है।
गोधरा के प्रायोजन से क्रिया-प्रतिक्रिया के नाम पर मचे अमानवीय तांडव; चुनावी ध्रुवीकरण और गुजरात में चुनावी जीत और
कॉरपोरेटी विकास मॉडल आदि पर चर्चा की गुंजाइश नहीं है।
मैक्यावली का प्रिंस
युद्ध से सत्ता हासिल करता है लेकन जनतांत्रिक निरंकुश शासक चुनावी जंग से।
गुजरात में सत्ता सुदृढ़ करना पहला पड़ाव था। किसी सृजनात्मक विश्वदृष्टि के अभाव
में आरयसयस और मोदी के पास धर्मोंमादी साम्रदायिककरण एकमात्र विकल्प था। किस तरह
गुजराती अस्मिता पर खतरे का हव्वा बरकरार रखने के लिए “मोदी की हत्या की योजना की साजिश” को निरस्त करने के
लिए समय समय पर वफादार पुलिस अधिकारियों के जरिए मुसलमानों की “मुठभेड़” में हत्याओं तथा
अन्य उत्पीड़नों की कहानी राणा अयूब की विस्फोटक पुस्तक, गुजरात फाइल्स में बाकायादा दर्ज है।
दलित होने के नाते “इस्तेमाल कर फेंक देने” की शिकायत करने वाले 2002 से 2010 के दैरान कई महत्वपूर्ण
पदों पर रहे, आईपीयस अधिकारी जीयल सिंहल ने ऐसे कम-से-कम से कम
10 फर्जी मुठभेड़ों में शामिल रहने की बात कबूली है। मुलमानों को आतंकवादी या
आतंकवाद समर्थक चित्रित करने के लिए आरयसयस की विहिप, बजरंगदल, गोरक्षक दल जैसे
तमाम मंडलियां तथा साधू-साध्वियां एवं यागी-साक्षियों से सांसद हिंदुओं से इफरात
बच्चा पैदा करने जैसी अपीलों के जरिए विष वमन करते रहे।
1984 में सिख
नरसंहार के बाद कांग्रेस की अभूतपूर्व विजय से सीख लेकर सत्ता के लिए धर्मोंमादी
ध्रुवीकरण को सत्ता के साधन के रूप में अपनाने के बाद आरयसयस-भाजपा मंडलियों ने
पीछे मुड़कर नहीं देखा। इन सर्वविदित बातों का जिक्र, इसलिए कर रहा हूं कि मैक्यावली ने साध्य के लिए
साधन की सुचिता-असुचिता को अनावश्यक माना था. मोदी ने साधन को ही साध्य मान लिया
है जो मैक्यावली के प्रिंस में वर्णित एक समकालिक अनुकरणीय मिशाल रोम के कार्डिनल
बोर्जियो रोड्रिग्स की याद दिलाता है। वह छल-कपट और राजनैतिक हत्याओं के जरिए
अलेक्ज़ेंडर षष्टम नाम से पोप बना। उसके पास अपने जल्लाद, अपनी जेल तथा अपने जहरनवीश(poisoner) थे. जहरनवीश काफी व्यस्त रहते थे। उनके शिकारों
में कई कॉर्डिनल थे। “अलेक्ज़ेंडर षष्टम ने छल के सिवा कुछ नहीं किया.
वह इसके अलावा कुछ नहीं सोचता था। वह वायदों की बड़ी बड़ी लड़ियां लगा देता था, पूरा एक भी नहीं करता था. जो भी हो वह हमेशा छल
में सफल रहा क्योंकि यह कला वह भलीभांति जानता था।” मोदी
की लोकप्रियता के सवाल के जवाब में 2007 में एटीयस के महानिदेशक रहे, राजन प्रियदर्शी का उत्तर मैक्यावली के उपरोक्त
उद्धरण की याद दिलाता है. “वे सबको बेवकूफ बनाते हैं और लोग बेवकूफ बन जाते
हैं।”
इस साधन से 3 चुनाव
जीतने के बाद मोदी ने संघ से अपने संबंध गहन तथा भाजपा पर पकड़ मजबूत कर ली अब
अगली मंजिल दिल्ली थी। अब नये “संभावित हत्यारों” से निपटना था तथा नये अभियान का सर्वोच्च नेता के
रूप में उभरना था। सत्ता की दौड़ में नये संभावित हत्यारे यानि गद्दी के दावेदार
थे, अडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, यशवंत सिंह, यशवंत सिन्हा, सुषमा स्वराज तथा अरुण जेटली। अडवाणी तथा जोशी को
दरकिनार कर दिया तो सुषमा स्वराज तथा लोकसभा में पराजित अरुण जेटली खुद-ब-खुद भयवश
मातहती में आ गये। जैसा ऊपर बताया चुका है कि वफादारी के लिए भय की वांछनीयता से
जुड़ी मैक्यावली की दूसरी राजनैतिक स्वयंसिद्धि है अक्लमंद राजा को सभी को संभावित
हत्यारा मानना चीहिए. वैसे तो राजा की हत्या कर दयनीय मृत्यु के भय को पारने वाले
विरले ही होंगे, लेकिन संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता।
जैसा कि मैक्यावली ने लिखा है लोग राजा से घृणा भले करें लेकिन डर कर रहें लेकि
अतिशेक घृणा भय को पार कर सकती है। इसलिए राजा को जनता से वांछित दूरी बनाए हुए
मित्रवत दिखना चाहिए। मोदी की हुंकार-धिक्कार-लललकार रैलियों को इसी क्रम में
देखना चाहिए, छोटी जाति या चायवाले की नौटंकियां भी इसी की
कड़ी हैं।
इन्ही से जुड़ी
मैक्यावली की तीसरी स्वयंसिद्धि है राजा का बहुरुपियापन। जैसा कि ऊपर गुजरात
नरसंहार के समय मुख्य सचिव रहे अशोक नारायण के हवाले से बताया गया है कि मोदी सारे
काम खुद को पर्दे में रखकर दूसरों से करवाता है। इर्द-गिर्द हर कोई संभावित
हत्यारा है अंततः राजा को रहना भी है परिवार, मित्रों और
दरबारियों के ही बीच। सभी के मन की बात उगलवाते हुए अपने मन की बात मन को छिपाये
रहना चाहिए। अपने दरबारियो,
सलाहकारों तथा अधिकारियों के चुनाव आजमाई वफादारी
तथा योग्यता के आधार ऐसे लोगों को चुनना चाहिए जिनकी डोर उसके ही हाथ में हो। मोदी
ने वफादारी का तो ध्यान रखा लेकिन योग्यता का नहीं जो कि मंत्रिमंडल की संरचना से
स्पष्ट है।
2014 में अटल विहारी
बाजपेयी शैली में लफ्फाजी की वाकपटुता से अपने को आरयसयस के लिए अपरिहार्य बनाने
के बाद हिटलर की ही तरह पार्टी के सारे दिग्गज नेताओं को मोदी ने अपमानित कर
दरकिनार कर दिया। विश्बैंक तथा डब्लूटीओ की मातहती, व्यापक
भ्रष्टाचार के भार से दबी अर्थव्यवस्था तथा वैचारिक दिवालियेपन से जूझ रही
कांग्रेस नीत यूपीए सरकार के दुर्ग पर वार करने के लिए मोदी ने अवतारों और
चमत्कारों वाले देश में चाय बेचने की कहानी से लेकर पिछड़ी जाति के होने तक के
शगूफों के साथ विकासपुरुष का नारा दिया। कांग्रेस तथा अन्य पार्टियों के दलछुटों
को पार्टी उम्मीदवार बनाया। राम अठावले, रामविलास पासवान, उदितराज जैसे अनुसूचित जातियों के नेताओं को
जोड़कर दलित हितों की पक्षधरता दिखाने तथा सामली-मुजफ्फरनगर के प्रायोजन से मोदी
के नेतृत्व में यनडीए की अभूतपूर्व चुनावी सफलता अब इतिहास बन चुका है।
विजय से राज्य की स्थापना अक्लमंद राजा के अभियान का अंत नहीं शुरुआत है. मैक्यावली कहता है कि अन्य लोगों की ही तरह राजा की स्वाभाविक प्रतिक्रिया होगी हर्षोल्लास और उत्सव की. लेकिन मैक्यावली की सलाह है कि राजा की प्रतिक्रिया स्वाभाविक रूप से अपोक्षित प्रतिक्रिया से अलग होनी चाहिए। लेकिन मोदी से यह सलाह नहीं मानी गयी और विजय के उल्लास में अहमदाबाद से दिल्ली आने के लिए सरकारी जहाज का इंतजार न कर अपने अभिन्न अडानी की जहाज में चल पड़े। इतना ही नहीं कुछ ही महीने बाद आस्ट्रेलिया में कोयले के खनन के लिए स्टेट बैंक से 7000 करोड़ कर्ज की उन पर कृपा रप दी। मैक्याली की विजय के बाद राजा को सलाह नई प्रजा की नये राजा के बारे अनुमानित सोच पर आधारित है। देखते हैं मोदी जी कितनी सलाहें माना कितनी नहीं?
वह विजित जनता को 3
समूहों में बांटता है। पहला समूह पुराने शासक परिवार (आधुनिक अर्थों में शासक
पार्टी) के समर्थकों का है जो दुबारा सत्ता में आने का सपना देख रहे होते हैं, उनका समूल विनाश। मोदी जी लगातार चुनाव मोड में
बने हुए लगातार कांग्रेस तथा नेहरू-गांधी
वंशवाद पर निशाना साधते रह रहे हैं। दूसरा समूह एक तरह का पांवा कॉलम है जो पुराने
राजा के राज्य में इसके समर्थक थे यी बन गये। यहां पांचवे कॉलम के दो दावेदार हैं।
कॉरपोरेट घराने जो पिछली सरकार की पार्टी और नेताओं की सेवा के बदले राजनैतिक कृपा
पात्र थे वे 2014 चुनाव में पाला बदल कर मोदी नीत भाजपा की सेवा में लग गये।
राडिया टेप में मुकेश अंबानी साफ-साफ कहते हैं कि कांग्रेस और भाजपा दोनों उन्हीं
की दुकानें हैं। पांचवें कॉलम के दूसरे दावेदार थे वे कांग्रेसी जो चुनाव से पहले
कांग्रेस छोड़कर भाजपा में चले गये। भाजपा सांसदों में सवा सौ से ज्यादा पूर्व
कांग्रेसी हैं। इनमें खुद को किंग-मेकर समझने की प्रवृत्ति होती है। वे नये राजा
की राजशाही को अपना उपहार समझने लगते हैं। इन्हें काम के अनुरूप समुचित उपहार
की उम्मीद होगी। इन्हें उपकृत करने में तो वह लुट जाएगा। इन्हें पूरी तरह नज़र-अंदाज
कर देना चाहिए। वे इससे नाराज जरूर होंगे लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि
उनके पास असंतोष की अभिव्यक्ति को कोई मंच नहीं रहेगा। लोगों (कांग्रेस) में वे
गद्दार समझे जायेंगे। उनके पास नये राजा की शरण में बने रहने के अलावा कोई विकल्प
नहीं बचेगा। पांचवे कॉलेज के दूसरे हिस्से को तो मोदी ने बिल्कुल नज़रअंदाज कर
दिया। ज्यादा मलाई की उम्मीद में पाला बदलने वोले किसी भी कांग्रेसी दलबदलू को
मोदी ने कोई पद या अहमियत नहीं दी। लेकिन पहले हिस्से को उपकृत करने में मोदी जी
देश लुटाए जा रहे हैं जो मैक्यावलियन आकलन में उनके राजनैतिक विनाश का कारण बनेगा।
तीसरा समूह उन लोगों
का है जिनकी नये राजा के बारें में जिज्ञासा अनिश्चितता के में फंसी है जिनके पास
खोने को कुछ है। ये धनिकों तथा कुलीनों के समूह हैं। आम जन – गरीब किसान, मजदूर, कारीगर – जिनके पास खोने को
कुछ नहीं है, उनसे राजा को केई भय नहीं है, उन्हें बिना नये करों के बोझ के रोजी-रोटी में
मशगूल रहने देना चाहिए। मैक्यावली का मानना है उनकी अपेक्षा के प्रतिकूल व्यवहार
से उन्हें साथ मिलाया जा सकता है क्योंकि राजा को नहीं भूलना चाहिए कि उसे लंबे
समय तक नई प्रजा पर राज करना है तथा उन्ही की बदौलत नई लड़ाइयां लड़नी हैं।
मैक्यावली का मानना है कि हानि की अपेक्षा के विपरीत उपकृत करने से उपहार का मूल्य
कई गुना बढ़ जाता है। लेकिन भय पैदा करने के लिए कुछ हत्यायें तो करनी ही पड़ेंगी।
मैक्यावली का सूत्र है, तेजी से मारो और धीरे धीरे उपकृत करो। लेकिन लगता
है मोदी जी का दो साल और भय पैदा करने में ही चला गया। मैक्यावली नई प्रजा में
स्वीकृति बढ़ाने के लिए राजा को सलाह देता है कि आमजन पर करों का भार बढ़ाकर या
उनकी रीति-रिवाजों के तिस्कार से उनकी नाराजगी न मोल ले, लेकिन मोदी जी तो पांचवे कॉलम के कॉरपोरेट
हिस्से को खुश करने के लिए आमजन का जीवन दूभर बनाते रहेंगे जो उनके पतन का एक कारण
बनेगा।
2014 के संसद चुनाव
के बाद से ही कई राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव हुए तथा कई के होने वाले हैं तो
मोदी जी मैक्यावलियन शब्दावली में शासनशिल्प की सलाहों की उपेक्षा कर
नैतिकता-अनैतिकता के विचार से परे सभी संसाधनों से लगातार युद्ध के ही मोड में बने
हुए हैं। मैक्यावलियन तरीकों से सत्ता प्राप्त कर शासन-शिल्प के परामर्शों की
अनदेखी कर मोदी जी युद्ध के ही परामर्शों में फंसे हुए हैं। 2014 चुनाव के पहले
सोची-समझी नीति के तहत मुजफ्फर नगर रचा गया जिसके दो प्रमुख किरदारों – संजीव बालियान तथा संगीत सोम को क्रमशः केंद्रीय
मंत्रिपद तथा उ.प्र. भाजपा प्रभारी पदों से नवाजा गया। उत्तर प्रदेश का चुनाव सर
पर है। कश्मीर जल रहा है। कहते हैं, काठ की हांड़ी बार
बार नहीं चढ़ती, यह कहावत सही है कि नहीं, यह तो भविष्य के चुनावपरिणाम बताएंगे। मोदी सरकार के दो
साल पूरे होने के उत्सव में सीपीयम के बंगाली मुखपत्र गणशक्ति समेत अनगिनत
अखबारों के मुखपृष्ठ पर मोदी जी की आदमकद तस्वीर के साथ सरकार की उपलब्धियों के
इश्तहार प्रिंस में दक्ष शासक को होने से अलग दिखने की सलाह की याद
दिलाते हैं। मैक्यावली ‘समझदार’ (सफल) सम्राटों को
सलाह देता है कि प्रजा से वायदे करने में कभी किफायत नहीं करनी चाहिए, लेकिन उनको पूरा करने का मतलब राजनैतिक आत्मघात
होगा। शासन की राजनैतिक “बाध्यताओं” के चलते उसके सामने
नैतिकता या सज्जनता का कोई विकल्प नहीं होता। लेकिन सारे साधन-संसाधनों तथा
बल-बुद्धि; छल-कपट, हर उपाय से उसे
अतिसज्जन और नैतिकता की साक्षात मूर्ति का अभिनय करना चाहिए। मैक्यावली की एक
राजनैतिक स्वयंसिद्धि है खुद की नकाबपोशी।
आप पार्टी का आरोप है कि इसमें राजकोष से एक हजार करोड़ रूपये व्यय हुए।
वैसे दिल्ली सरकार की उपलब्धियां गिनाते केजरीवाल की भी तस्वीर अक्सर दिख ही जाती
है। विज्ञापनी विनिमय में लेन-देन तथा आमजन की खून पसीने की कमाई का प्रधानमंत्री
की तस्वीर पर अपव्यय तथा उसका औचित्य अलग चर्चा का विषय है। यहां मकसद इस बात पर
सवाल उठाना भी नहीं है कि मंहगाई, बेरोजगारी, भुखमरी से जूझ रहे इस मुल्क में सरकार की
उपलब्धियां गिनाने में हजारों करोड़ों का अपव्य क्यों? जनहित में की गयी उपलब्धियों का मूल्यांकन, लाभार्थी को क्यों नहीं करने दिया जाता? यह तो ऐसा ही है जैसे खाने वाले की बजाय रसोइया
खुद भोजन का बखान करे? या विद्यार्थियों की बजाय शिक्षक अपने अच्छे
शिक्षक होने के पोस्टर लगाकर घूमे? ये विज्ञापन
जनविरोधी नीतियों तथा सांप्रदायिक विषवमन की दुर्जनता की हकीकत को अतिसज्जनता और
जनोन्मुखी दिखाने के छल हैं जिसे
मैक्यावली “वांछनीय रणनीति” बताता
है।
मोदी की मिशाल
इत्तेफाकन है। सूक्ष्मता से अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि निरंकुश राजशाहियों के
संदर्भ में “सत्ता (पॉवर) के अधिग्रहण; संरक्षण; और संवर्धन” के अर्थों में मैक्यावली की राजनीति की परिभाषा
संवैधानिक जनतंत्र के सभी चरणों -- उदरवादी; कल्याणकारी; नवउदारवादी –- के संदर्भ में निरंतर
प्रासंगिक बनी रही है। युद्ध की जगह चुनाव ने ले लिया है। चुनाव में धन की महती
भूमिका होती है। यूरोपीय नवजागरण तमाम नवीनताओं
के साथ नायकों की एक नई प्रजाति – वित्तीय नायक – के उदय का गवाह रहा है। खतरे से खाली नायकत्व। यह
नायक परिधि से चलकर 150 सालों में राजनैतिक मंच के केंद्र पर काबिज हो गया। इस
नवोदित (तिजारती पूंजीपति)वर्ग के पहले जैविक बुद्धिजीवी जॉन लॉक बिना लाग-लपेट के
घोषित करते हैं, “शासन एक गंभीर मामला है, इसकी बागडोर उसी को सौंपी जा सकती है जिसने अपार
संपदा अर्जित कर पहले ही अपनी काबिलियत साबित कर दी हो।” दूसरी पारी में किस्मत आजमाने वाला राष्ट्रपति 3
ही साल नौकरी करता है, चौथा साल धन उगाहने (फंड रेजिंग) में खर्च करता
है। परिणाम प्रायः धन उगाहने की क्षमता से ही पता चल जाता है। धन थैलीशाहों के पास
है, जिनकी संख्या, पूंजी के
गतिविज्ञान के सकेंद्रण तथा केंद्रीकरण, नियमों के चलते सिमट
कर आबादी का चंद फीसदी हो गया है। व्यापारी का काम है अधिक-से-अधिक मुनाफा कमाना।
वह घाटे का सौदा नहीं करता। वह सब घोड़ों पर पैसा लगाता है लेकिन जीतने की उम्मीद
वाले पर सर्वाधिक। कॉरपोरेट घरानों पर सरकार की अतिशय कृपा और जनता की बदहाली
(दोनों एक दूसरे के समानुपाती हैं) इस बात को सत्यापित करते हैं कि आर्थिक
संसाधनों पर जिस वर्ग का प्रभुत्व होता है, राजनैतिक सत्ता पर
भी उसी का नियंत्रण रहता है। मैवक्याली
विजय के पश्चात अक्लमंद सम्राट को पांचवे कॉलम की नज़रअंदाज करने के
साथ सुशासन की सलाह भी देता है। सुशासन से उसका मतलब है कि उसे ऐसे काम करना चाहिए
कि नई प्रजा पिछले राजा को भूल कर उसे उससे अच्छा मानने लगे जिसके लिए यह
सुनिश्चित करना पड़ेगा कि लोग यदि पहले से अधिक खुशहाल न हो पायें तो और बदहाल न
हों। इसीलिए वह पांचवे कॉलम को बिल्कुल नज़र-अंदाज करने की हिदायत देता है क्योंकि
पांचवें कॉलम को नई प्रजा की बदहाली की कीमत पर ही उनकी इच्छानुसार उपकृत किया जा
सकता है, जो अंततः विनाश का कारण बनती है। राजशाहियों की
तुलना में प्रजा की नाराज़गी संवैधानिक जनतंत्र में अधिक घातक है। लेकिन
मोदी जी तो लगातार युद्ध के मोड में रमे है, जुमलेबाजी-लफ्फाजी
में सुशासन की सलाह भूल चुके हैं। इसीलिए, यदि मैक्यावली की
बात सही निकली तो उनके (कु)शासन का अंत अवश्यंभावी है।
इस लेख का अंत इस
बात से करना गैरलाज़मी न होगा कि भूमंडलीय पूंजीवाद आर्थिक संकट के साथ सिद्धांत
के संकट से भी गुजर रहा है। उदारवादी अर्थशास्त्री उदारवादी तर्कों के सहारे राजनैतिक
अर्थशास्त्र धारा कायम किया था। नवउदारवादी पूंजीवाद के पास विश्वबैंक पोषित
अर्थशास्त्रियों का एक समूह (गिरोह) है जो खुद को
नया राजनैतिक अर्थशास्त्र जिसका काम नवउदारवादी कुतर्कों से विश्व बैंक
निर्देशित भूमंडलीकरण की निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों को लागू कराने के सिद्धांत
गढ़ना। तीसरी दुनिया के देशों के संदर्भ में इसका मतलब हुआ ढांचागत समायोजन
की नीतियां लागू करवाना। ये स्वीकार करते हैं कि इन नीतियों से जनता की बदहाली
बढ़ेगी और बढ़ेगा जन-असंतोष। विकास की नीतियों को प्रभावशाली ढंग से लागू
करने के लिए निर्मम बल प्रयोग की जरूरत होगी। इसीलिए ये जनतांत्रिक सरकारों की
बजाय नौकरशाही और तकनीकशाहों के सहारे वाली निरंकुश सरकार को बेहतर मानते हैं।
ट्रेड यूनियन तथा अन्य जमतांत्रिक रीतियां-नीतियां विकास में बाधक
हैं। इनकी राय में, जो हक़ीक़त से बहुत दूर नहीं है, इन देशों का राजनैतिक वर्ग किसी भी कीमत पर सत्ता
में बना रहना चाहता है बाकी उसे किसी बात से कोई मतलब नहीं है। इसलिए वे
नवउदारवादी भूमंडलीय पूंजी को अच्छी जनता की भलाई के लिए बुरी सरकारें खरीदने
की नशीहत देते हैं। निर्मम बल प्रयोग के सासक दल की प्रतिष्ठा धूल में मिल जाएगी।
दूसरे जीतने वाले घोड़े पर दाव लगाओ। वह सारी बदहाली की जिम्मेदारी पिछली सरकार पर
डाल और उन्हें ठीक करने के बहाने भूमंडलीकरण की नीतियां जारी रखेगा। 1991 में भूमंडलीकरण लागू होने के बाद भारत का
राजनैतिक इतिहास इसका ज्वलंत उदाहरण है। इसलिए मोदी सरकार के गिरने से मैक्यावली
गलत नहीं साबित होगा क्योंकि शासकवर्ग तो विश्वबैंक पोषित भूंडलीय कारपोरेट है, मोदी या ओबामा तो उसके सम्मानित चाकर भर हैं।
इससे यह सत्यापित होता है कि आर्थिक संसाधनों पर काबिज वर्ग ही शासक वर्ग है।
लेनिन ने राज्य और क्रांति में सही लिखा है कि हर पांच साल में हम यह तय
करते हैं कि शासक वर्ग का कौन हिस्सा अगले पांच साल हमें प्रताड़ित करेगा। उम्मीद
है उतपीड़न, शोषण दमन के विरुद्ध उठने वाली आवाजें आगामी
जनक्रांति की पूर्वकथ्य बनेंगी।
ईश मिश्र
17 बी, विश्वविद्यालय मार्ग
दिल्ली
विश्वविद्यालय
दिल्ली 110007
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