जो कम्युनिस्ट पार्टी का नेता रह चुका हो, यानि मार्क्सवाद जिसकी वैचारिक सोच का आधार और श्रोत हो, उसे सांप्रदायिकता के चरित्र को समझने के लिए शाखा में जाना पड़े तो उसकी कम्युनिस्ट शिक्षा संदेहास्पद है। शाखा में एक बार चला गया तो वह उस चरित्र को आत्मसात कर लेता है। विरले ही उस मकड़जाल से निकल पाते हैं। ऐसे लोग सत्ता में हिस्सेदारी के मंच की अवसरवादी तलाश में कम्युनिस्ट बने होंगे और वह अवसरवादी तलाश उन्हें कांग्रेस या भाजपा तक पहुंचाती है। कम्युनिस्ट राजनीति संख्याबल की नहीं जनबल की होनी चाहिए।
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