गॉडफादरी की मेरी एक पोस्ट पर एक साथी ने पूछा मुझे देर से ही सही कैसे नौकरी मिल गई। उस पर --
उनकी मर्जी वे क्या सोचते हैं, गॉडफादर की कृपा चाहता तो पहले मिल जाती। जी, काबिलियत पर मुझे भी नौकरी नहीं मिली, वरना 1995 की बजाय 1981-82 में मिल जाती, जैसे तमाम लोगों को मिल जाती थी। प्रोफेसरों के बेटे-बेटियों, कुत्तों बिल्लियों को एमए करने के दूसरे दिन मिल जाती थी। मैंने पहला पेपर 1987 में प्रकाशित किया जिससे कई बड़े लोगों ने अपनी किताबों में उद्धरण दिए हैं। बिना नौकरी के कलम की मजदूरी से एचआईजी फ्लैट में रहते हुए अंग्रेजी स्कूल में 2 बेटियों की पढ़ाई कराते हुए शैक्षणिक पुस्तकों से संबंध कम ही रहा। पुराना प्रिंसिपल रिटायर हो गया था, नए ने ज्वाइन नहीं किया था। वरिष्ठतम शिक्षक हिंदी के प्रो.मान्धाता ओझा ऐक्टिंग प्रिंसिपल थे जो 1983 से ही मेरे लेखों के जरिए मुझे जानते थे। साफसुथरी छवि वाले प्रो. एसके चौबे एक्सपर्ट थे, जिनकी किताब मैंने संपादित किया था तथा आईसीएसआर जर्नल ऑफ दि अब्सट्रैक्ट्स और रिविव्ज में उनके असोसिएट के रूप में, अकेले दम पर नियमित दो अंकों के अलावा पिछला बकाया अंक भी निकाला था। राजनीत शास्त्र की विभागाध्यक्ष सुशीला कौशिक 1990 में सेलेक्सन कमेटी में थी और मुझे निकालने को लेकर अपराध में अपनी पांचवीं जिम्मेदारी कबूल चुकीं थी,शायद उनका अपराधबोध था। इंटरविव मैं हमेशा अच्छा ही करता था। इंटर्नल कैंडीडेट था। उस समय का हेड एक 'नैतिकतावादी' था, जिसने नामों पर चर्चा के समय कह दिया कि मैंने उसे जान से मारने की धमकी दी थी पूंछने गया तो दिसंबर में उसे पसीना आ गया। मर गया लेकिन मरने के बाद कमीना शरीफ तो नहीं हो जाता। इस तरह संयोगों की दुर्घटना में तब नौकरी मिल गयी, जब मैंने मानलिया था कि अब बाकी जिंदगी कलम की मजदूरी से चलेगी। विवि की नौकरियों की तिजारत की दुर्गंध के बारे में विस्तार से लिखूंगा। नतमस्तक समाज में सिर उठाकर जीने की कोई कीमत कम होती है। आप ईमानदारी से आत्मावलोकन करें, क्या आपको बिना किसी गॉडफादर (मदर) की मदद के बिना सही समय पर नौकरी मिल गयी?
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