Rajesh Kumar Singh जीवन और मृत्यु रहस्य नहीं, जीववैज्ञानिक प्रक्रियाएं हैं, जिसके बारे में जीववैज्ञानिक-तथा चिकित्साशास्त्री बहुत शोध कर चुके हैं। मित्र, रहस्यमयी कुछ नहीं होता, ज्ञान की अनवरत प्रक्रिया में कई चीजें ज्ञात हैं कई ज्ञात होना बाकी है। सही कह रहे हैं, जब तक दुख है, मनुष्य को सुख की भ्रांति (इल्यूजन) की आवश्यकता है और वह भ्रांति धर्म ही दे सकता है। मैंने 1992 में एक जर्नल के लिए एक पेपर लिखा था, रेलिजन एंड मार्क्सिज्म, बहुत दिनों से खोज कर शॉफ्ट कापी बनवाने की सोच रहा हूं। इसीलिए हम धर्म नहीं खत्म करना चाहते वे स्थितियां खत्म करना चाहते हैं जिनके लिए मनुष्य भ्रम पालता है। मनुष्य को जब वास्तविक सुख मिलेगा तो उसे भ्रम की आवश्यकता नहीं रहेगी, धर्म और साथ में ईश्वर अनावश्यक हो जाएंगे, और समाप्त। इसीलिए हमारा संघर्ष धर्म के विरुद्ध नहीं है, दुख का सम्राज्य खत्म करने के लिए है। दुख का कारण वर्गसमाजों में वर्गसमाजों की अंतर्निहित प्रवृत्ति मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण-दमन है। इसीलिए हमारा संघर्ष वर्गहीन समाज का है। लोग सोवियतसंघ तथा चीन की नजीरों से वर्गविहीन समाज की अवधारणा को असंभव साबित करने की कोशिस करते हैं। ईश्वर की ही तरह असंभव भी एक सैद्धांतिक अवधारणा है। क्रांति एक अनवरत प्रक्रिया है और प्रति क्रांति भी। कभी कभी प्रतिक्रांति (प्रतिक्रियावाद) की अवधि लंबी खिंच गयी। भारत में बौद्ध क्रांति के बाद ब्राह्मणवादी प्रतिक्रांति का दौर बहुत लंबा खिंच गया। इतिहास ज्योतिष की भविष्यबाणी से नहीं चलता अपने गतिविज्ञान के नियम आगे बढ़ते हुए खुद निर्मित करता है। मेरा विरोध धर्म से नहीं धर्म के नाम पर उंमादी राजनैतिक लामबंदी से है। धर्म सारे युगों शासक वर्गों का सशक्त हथियार रहा है, भगवान का भय प्रकारांतर से शासक के भय में अतिक्रमित हो जाता है। नास्तिक के कष्ट ईश्वर की दुष्कृपा के परिणाम नहीं होते, वह स्वैच्छिक। ईश्वर के भय से मुक्त व्यक्ति स्वर्ग के ईश्वरों के साथ महीसुरों (धरती के ईश्वरों) पर भी सवाल करने लगता है। मार्क्स को पीयचडी के बाद किसी विवि में प्रोफसरी मिल सकती थी, लेकिन वे एक अनागरिक के रूप में परदेश में निहायत गरीबी में जीते हुए, भविष्य के लिए खजाना छोड़ गए।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment