जैसा कि फौज के कई भूतपूर्व बड़े अफसरों ने कहा है कि सीमा पर ऐसे ऑपरेसन होते रहते हैं, लेकिन यह सरकार इसका ढोल पीटकर सामरिक नैतिकताओं का उल्लंघन तो कर ही रही है, इसका इस्तेमाल युद्धोंमादी राष्ट्रवाद का हव्वा उप्र के चुनाव के मद्देनज़र कर रही है, क्योंकि सरकार के पास संसाधनों की बिक्री और विश्वबैंक की गुलामी के अलावा दिखाने को कोई उपलब्धि तो है नहीं. मंदिर, गोभक्ति के मसले चुक गए हैं. कश्मीर कार्रवाई उल्टी पड़ गई. अब उप्र चुनाव के लिए पाकिस्तान का मुद्दा ही बचा है. लेकिन मैंने ऊपर कबा है, युद्धोंमाद की खाद हमेशा अच्छी चुनावी फसल नहीं देती. पार्रिक्कर अपनी बहादुरी के बयान के लिए दिल्ली-हैदराबाद नहीं, आगरा और लखनऊ जाते हैं. समझो इनकी चालें. दोनों तरफ के जंगखोर भोंपुओं के बावजूद जंग नहीं होगा क्योंकि अमरीका को अपने दोनों सेवकों की सेवाएं चाहिए.
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