Saturday, October 8, 2016

बेतरतीब 12 (पुनश्च 4)

पुनश्च 4:
इस चौथे और संभवत: आखिरी पुनश्च के बिना कहानी अधूरी रह जाएगी. तमाम लोग, खासकर ‘बड़े’ लोग एक अज्ञात, अदृश्य, अमूर्त भय से आक्रांत रहते हैं. मेरे लिए यह मानव इतिहास की एक अबूझ  पहेली सी है. विश्वविद्यालय और हॉस्टल से बेदखली के बाद भी मैं परिसर में ही रहता था. जेयनयू में पढ़ते हुए  1981 से मैं डीपीयस (आरकेपुरम्) में पढ़ाता भी था. दोपर में छुट्टी के बाद मैं या तो 620 (बस नं.) लेकर तीनमूर्ति लाइब्रेरी चला जाता था या उल्टी 620 लेकर जेयनयू. कुलपति, प्रोफेसर पीयन श्रीवास्तव के साथ ‘असफल वार्ता’ के कुछ दिनों बाद की बात है. उस दिन मैं संयोग से जेयनयू आ गया था. जाड़े की शुरुआत थी.पुरानी सोसल साइंस बिल्डिंग से सटे फ्रांसिस के ढाबे से खाना खाकर, हम (मैं और चंदू – चंद्रमोहन तिवारी, अल्मोड़ा में वकील) प्रशासनिक ब्लॉक की चाय की दुकान से चाय लेकर फ्ररंट लॉन में बैठ गए. प्रशासनिक ब्लॉक का लॉन होने के नाते ज्यादा हर-भरा रहता था तथा उस वक़्त हरी घास के लंबे टुकड़े पर पड़ते तिरछे धूप के सुनहरे टुकड़ों से और सुंदर हो गया था. हम लोग जेयनयू बस से अगले दिन भीष्म साहनी का नाटक कविरा खड़ा बाजार में देखने श्रीराम सेंटर जाने की योजना बना कर भीष्म साहनी से शुरू कर बंटवारे और मंटो की कहानियों पर बात कर रहे थे. तभी देखा प्रो. श्रीवास्तव बिल्डिंग में प्रवेश कर रहे थे. खड़े होकर सलाम ठोंकने का वक्त नहीं था, से बैठे-बैठे ही ठोंक दिया. वे मन-ही-मन कुछ कहते हुए अंदर चले गए. हमने कल्पना भी न की थी कि वे पुलिस बुला लेंगे. जो कुछ हो रहा था उसमें अदम गोंडवी याद आए, “हमने अदब से हाथ उठाया सलाम को/उनको लगा कि खतरा है निज़ाम को.” हमें अंदाज होता तो पुलिस आने के पहले ही अप कैंपस चले जाते. खैर ये होता तो वो होता निरर्थक आलाप है. मुझे याद है हम उस समय मंटो की टोबा टेक सिंह कहानी के बंटवारे के संदर्भ में टोबा टेक सिंह के चरित्र के निहितार्थ पर बात कर रहे थे. जब 12-15 पुलिस वाले हमारी तरफ आते दिखे.
पता चला कि कुलपति महोदय ने अपने ऑफिस के पास एक खतरनाक नक्सली की मौजूदगी की शिकायत की जिसके ऊपर विवि ने कई मामले दायर कर रखा है. इंस्पेक्टर ने इतना ही बताया था. मुझे समझ नहीं आ रहा था कि उनके रास्ते में दिखने की मेरी जुर्रत उन्हें नागवार लगी और मुझे पाठ पढ़ाने का फैसला किया? या फिर मेरी उपस्थिति से उन्हें कुछ असुरक्षा या खतरे का भय हुआ हो? या फिर सर उठाकर रहने वाले लोगों पर उनका संचित गुस्सा था? जो भी हो, उनकी यह हरकत कायराना और बेवकूफी की थी. कायराना इसलिए कि सत्ता के इस्तेमाल से हमें डराना चाहा. बेवकूफी की इसलिए कि उसे भी मालुम था कि अगले दिन जमानत पर छूट ही जाऊंगा, हम रात भर की पुलिस हिरासत से टूटने वाले तत्व के बने नहीं हैं. इंस्पेक्टर ने कहा कि किसी पुराने मामले में पूछ-ताछ के लिए मुझे थाने चलना पड़ेगा, मैं समझ गया इसका मतलब गिरफ्तारी थी. पर्स-बैग सब चंदू को दिया और पुलिस गाड़ी में बैठकर वसंतविहार पुलिस स्टेसन पहुंचा. 15-20 मिनट में 50-60 स्टूडेंट्स वहां पहुंचे. पुलिसवालों ने बताया कि मुझे गिरफ्तार किया जा चुका था. वसंत विहार थाने में हिरासत की व्यवस्था नहीं थी तो मुझे वहां से विनय नगर थाने ले जाया गया. थाने के लोगों का व्यवहार ठीक था तथा उनमें से कुछ की क्लास भी लेने लगा. तभी अमितसेन गुप्ता (जाने-माने पत्रकार, लेखक, आईआईयमसी के पूर्व प्रोफेसर) चारमिनार गोल्ड की सिगरेट पैकेट लेकर मिलने आया. हिरासत के गार्ड मिसने ही नहीं दे रहे थे. किसी एसीपी को संपर्क किया गया तो गार्ड ने कहा कि वह (अमित) ग्रेटर कैलाश का छंटा हुआ गुंडा है. हा हा. बाद में हमलोग यह बात करके खूब हंसते थे. खैर बाद में उसने मिलने दिया और सीलबंद पैकेट कुछ गड़बड़ चीज न हो सिगरेट की पैकेट खोलकर एक निकाल लिया, मैंने कहा यार सिगरेट चाहिए था तो बताते, एक और लेलो. खैर, अमित का वह जेस्चर मैं कभी नहीं भूलूंगा. 3-4 घंटे हम गप्पें करते रहे. वह 2-3 बजे रात को पैदल ही जेयनयू गया.
अगले दिन हथकड़ी लगाकर पुलिस पटियाला हाउस ले जाने को तैयार हुई. उन्हें बस का ही भत्ता मिलता है. मैंने कहा कि मैं एक सम्मानित विवि का सम्मानित निष्कासिक छात्र हूं, मैं हथकड़ी पहनकर बस में नहीं जा सकता. अंत में टैक्सी मंगाई गई. पटियाला हाउस पहुंचते जाने-माने वकील बीके ओहरी की पूरी टीम के साथ जेयनयू के सैकड़ों लड़के-लड़कियों को देखकर सीना चौड़ा हो गया. डाबर साहब(मिजोरम विवि में इतिहास के प्रोफेसर) और सलिल मिश्र (अंबेडकर विवि में इतिहास का प्रोफेसर) मेरे जमानती थे. ओहरी साहब ने जेयनयू के सभी केस न सिर्फ मुफ्त में किये थे बल्कि हमें कोर्ट फीस भी नहीं देने देते थे. प्रभु (प्रभु महापात्र, दिविवि में इतिहास का प्रोफेसर) ने कोर्ट फीस देने की पेशकश की तो ओहरी सहब ने कहा था, “क्यों शर्मिंदा करते हो”. अदालत मे प्रॉक्टर रामेश्वर सिंह को अच्छा पाठ पढ़ाया था ओहरी साहब ने. जमानत के बाद हम सब मंडी हाउस-बंगाली मार्केट घूमते-खाते-पीते जेयनयू की 7 बजे की बस से कैंपस आ गए.
इलाहाबाद विवि में गिरफ्तारियां होती थीं, तारीखें पड़ती थीं, हम नहीं जाते थे और धीरे धीरे केस ‘मर’ जाता था. यहां भी ऐसा ही हुआ तारीख पड़ी और नहीं गया. पता चला गैर जमानती वारंट जारी हो गया है. सलिल और डाबर साहब को भी नोटिस मिल गया. अगली तारीख पर गया. जिस बस में मैं पटियाला हाउस जा रहा था उसी में एक और व्यक्ति जा रहा था. अदालत में जाकर देखा तो वही, नाम भूल गया, चतुर्वेदी जी मामले के जज थे. ओहरी खुद मेरी तरफ से बहस कर रहे थे. जज ने मुझसे पूछा, पिछली तारीख को क्यों नहीं हाजिर हुआ था? मैंने मासूमियत के साथ बोल दिया, “ध्यान से उतर गया था”. मुझे अपने चैंबर में बुलाया और जेयनयू के बारे में कुछ बात-चीत की और मामला खत्म कर दिया. इतनी देर में उनका सेक्रेटरी फैसले की टाइप्ड कॉपी ओहरी को दे दिया.



  

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