Shikha Shikha की पटाखों की सोंधी गंध पर एक पोस्ट पर यह कमेंट लिखा गया. सोचा तांत्रिक होने का अनुभव सबसे शेयर करूं.
पटाखे की सुगंध मुझे बुरी नहीं लगती, लेकिन मेरी बेटी ने तीसरी कक्षा में सपथ ली थी तबसे घर में पटाखे नहीं आते. मेरे बचपन में छुरछुरी-पटाखे, उस अंचल के गांव तक पहुंचे नहीं थे. दीपावली में महज दीप होते थे. हम सब बड़े उत्साह से, दूर के खेतों समेत, सभी बागों, खेतों, कुओं पर दिए रखते और सुबह, तड़के ही दियली 'लूटने' निकल पड़ते थे. 'लूटी' हुई दियलियों से तराजू और रेल समेत तरह-तरह के खिलौने बनाते थे. साल भर का मामला होता था इसलिए लालटेन जला जलाकर किताब भी खोल लेते थे. हमउम्र बच्चे मुझसे बिच्छू का मंत्र बताने का आग्रह करते और मैं 'बताने से मंत्र बेअसर हो जाता है' कह कर टाल देता. वे सब मेरी जासूसी करके कि मैं कहीं-न-कहीं जाकर मंत्र 'जगाऊंगा'. अब मंत्र हो, तब तो जगाऊं! पहली दो पंक्तियों का ही कमेंट लिखना चाहता है लेकिन बुढ़ापे में कलम की आवारगी, ठीक तो नहीं होता, लेकिन मैं क्या कर सकता हूं? अपने बिच्छू के दंश का अतिवांछित तांत्रिक होने की बात पता नहीं कैसे सूझ गई. लगता है सठियाने के बाद बचपन ज्यादा याद आता गई. इसके विस्तार में तो लंबा लेख हो जाएगा, इसलिए संक्षेप में. मेरे पिताजी बिच्छू समेत कई चीजों के मंत्र "जानते" थे. अब आप कह सकते हैं कि वामपंथी बाप-दादा की बुराई करते हैं, लेकिन मैं इसे विवेकसम्मत, तार्किक आत्मावलोकन मानता हूं. मैं ठीक से तो नहीं बता सकता, लेकिन 5 साल से बड़ा था और 10 से कम. इतना छोटा था कि अगल-बगल के गांव के लोग रात को सोते हुए गोद में "उठा" ले जाते थे. 5वें साल में मेरी मुंडन हुई और 10वें साल में छठी कलास में, इस स्टेटस और फरेब से ऊबकर छोड़ दिया था. बच्चों की निगाहें गजब की पैनी होती हैं, वे गजब के नकलची भी होते हैं. मैं मंत्र की प्रक्रिया को गौर से देखता था. प्रक्रिया का वर्णन लंबा हो जाएगा, इस लिए फिर कभी. एक दिन गांव के किसी अन्य टोले का कोई पिता जी को खोजते आ गया. उनकी बेटी (12-13 साल या ऐसे ही) को बिच्छू ने डंक मार दिया था. पिताजी घर पर थे नहीं. अंधे के हाथ बटेर लग गई. मैंने बहुत आत्मविश्वास के कहा कि चलिए मैं झाड़ देता हूं. वह लड़की तकलीफ से लोट-पोट हो रही थी. मैंने एक गंभीर तांत्रिक की मुद्रा में, पिताजी की तरह राख फैलाकर, उंगली से 1 लाइन खीचकर उस पर उसकी डंक वाली हथेली रखवा कर लाइन के दूसरे सिरे पर ओम (एक अच्छर वाला) बीज लिखा, बांई हथेली पर भी वही लिखा, मन-ही-मन कुछ मंत्र पढ़ा(गायत्री मंत्र ही याद था) और तान बार ताली बजाया. यह प्रक्रिया 5-6 बार दोहराया और उसका दर्द कंधे से उतर कर डंक की जगह के आस-पास सिमट गया. रातो-रात मैं अपने और अगल-बगल के गांवों में मशहूर हो गया. सब ठीक हो जाते थे. मुझे "सेलिब्रिटी" स्टेटस में मजा आने लगा. मुझे समझ में नहीं आता था कि बिना जगाए मंत्र से सबकी सचमुच की पीड़ा कसे कम-खतम हो जाती थी कम हो जाती थी? सोचा शायद इन “पवित्र” शब्दों में कुछ करामाती महिमा हो. लेकिन एक बात कभी-कभी खटकती थी कि पिताजी ने मुझसे उनका एकाधिकारिक मंत्र मैने किससे सीखा? 6-7 साल के लड़के के लिए सुकून की बात थी. मुझे लगता है भौतिक पीड़ा की गहनता मनोवैज्ञानिक मनोस्थिति से जुड़ा होता है.
बाप रे! फुट नोट इतना लंबा हो गया कि टेक्स्ट ही गायब हो गया. 1967 में जब पढ़ने शहर आया तो दीवाली में पटाखे और छुरछुरियां ले गया. तबसे संयुक्त परिवार के सारे भाई-बहन और पड़ोस के हमउम्र हर साल हमारी छत पर घंटों पटाखे-छोड़ते. गांव में आखिरी दीवाली के कितने साल हो ठीक से तो नहीं याद, लेकिन 3 दशक तो हो ही गए होंगे.
No comments:
Post a Comment