Tuesday, October 4, 2016

शिक्षा और ज्ञान 90

Skand Kumar Singh चरणस्पर्श से नाराज नहीं होता, अभिवादन के तरीके के तौर पर इसका निषेध करता हूं. समाजीकरण के दौरान तमाम बाते हमारे दिमाग में व्यक्तित्व के अंश रूप में बैठ जाती हैं जिन्हें हम विना प्रश्न किए, स्वयंसिद्धि के रूप में अपना लेते हैं. चरणस्पर्श वैसी ही परंपरा है. परंपराएं हमारे सिर पर पूर्वजों की लाशों के बोझ समान हैं, बोझ जितना जल्दी हो उतार फेंकना पड़ता है, वरना उसी बोझ में दबते जाएंगे. अभिवादान के तरीके के रूप में चरणस्पर्श एक ब्राह्मणवादी, सामंती तरीका है. शक्ति-समीकरण में ऊंचे पादान वाले को समतल से अभिवादन. कोई भी बात या रिवाज निरुद्देश्य नहीं होता. हर शब्द का निहितार्थ होता है. जब हम किसी लड़की को बेटा कह कर शाबासी देते हैं तो अनजाने में मर्दवादी मूल्यों का पोषण करते है. चरणस्पर्श की उत्पत्ति श्रम की अवमानना के भाव से जुड़ा हुई है. सबसे पहले तो शरीर को गतिमान बनाने वाले पैर को शरीर के निकृष्ट अंग के रूप में परिभाषित किया जाता है, तभी तो ब्रह्मा शूद्रों को पैरों से पैदा करते हैं. इसमें समानुभूति नहीं, भक्ति और समर्पण भाव अंतर्निहित है, मैं अपने स्टूडेंट्स को सवाल-दर-सवाल की शिक्षा देता हूं. मेरे स्टूडेंट्स मेरे मित्र हैं, मित्रों की जगह दिल में होती है, पैर में नहीं. मेरे स्टूडेंट्स सहर्ष चरण-स्पर्श से परहेज करते हैं. संबंधों का आनंद जनतांत्रिक, पारदर्शी समभाव में है, श्रेणीबद्धता में शक्तिमान प्रसन्न नहीं रहता, प्रसन्नता का वहम पालता है.

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