Sunday, October 9, 2016

सियासत 21

छल-कपट से हासिल फ़तह का महिमा-मंडन मानव सभ्यता के इतिहास का अभिन्न अंग रहा है जो प्राकांतर से शासक वर्गों द्वारा आत्म महिमामंडन है. सभ्यता यानि वर्ग समाज के राजनैतिक दर्शन का इतिहास सत्ता और वर्चस्व के लिए छल-कपट और उसके प्रत्यक्ष परोक्ष महिमामंडन का इतिहास रहा है. चौथी-तीसरी शताब्दी (ईशा पूर्व) कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राजा के लिए इसे अपद्धर्म के रूप में वांछनीय बताया गया है तो यूरोपीय नवजागरण (15वीं-16वीं शताब्दी) के राजनैतिक दार्शनिक मैक्यावली इसे अपरिहार्य रूप से वाछनीय शासकीय सत्-गुण बताते हैं. लोग अपने-अपने नायक चुनते हैं और उनके कृत्य-कुकृत्यों का महिमामंडन करते हैं. दोनों ही युद्ध से सत्ता स्थापित करने वाले राजा को सलाह देते हैं की धार्मिक-रीत-रिवाज, धर्मांधता और अंधविश्वास कितने ही कुतर्कपूर्ण और पाखंडमय क्यों न हों, न सिर्फ उनके साथ छेड़-छाड़ नहीं करना चाहिए, बल्कि उनकी निरंतरता सुनिश्चित करनी चाहिए. कौटिल्य अपद्धर्म के रूप में धार्मिक अंधविश्वासों तथा चमात्कारों और देववाणी मे लोगों की अंध आस्था के राजनैतिक आर्थिक-राजनैतिक दोहन सलाह देते हैं उसकेलिए चाहे कुछ "अविश्वासियों" को चपकाना ही क्यों न पड़े. उन्ही का समकालीन पूर्ववर्ती अरस्तू, विद्रोह रोकने के लिए निरंकुश राजा को अत्यधिक धार्मिकता का ढोंग करने तथा पूजा-पाठ और बलि में सबसे आगे रहने की सलाह देते है. इससे लोगों गलतफहमी होगी कि ईश्वर का इतना बड़ा भक्त बुरा नहीं हो सकता और दूसरे यह कि लोगों को लगेगा कि जब देवतागण उसके साथ हैं तो उसके विरुद्ध विद्रोह कामयाब नहीं हो सकता. मैक्यावली लोगों को संगठित रूप वफादार बनाए रखने के लिए धर्म को एक कारगर राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की राजा को सलाह देता है. अलग अलग देश-काल के इन दार्शनकों की सलाह आज के राजनेता कितनी तत्परता से मानते हैं, भारत की आधुनिक राजनीति उसका ज्वलंत उदाहरण है. माफी चाहता हूं, लिखना बालि-राम प्रकरण पर 2 लाइनें चाहता था, कलम की आवारगी से विषयांतर हो गया.

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