03.10.2016
बेतरतीब 12
1983 में जेयनयू में एक लंबा आंदोलन हुआ था, पुलिस कार्रवाई हुई सैकड़ों लड़के-लड़कियां महीने के आस-पास तिहाड़ में रहे। विश्वविद्यालय अनिश्चित काल के लिए बंद कर दिया गया और 1983-84 को जीरो यीयर घोषित कर दिया गया। मैं एक क्आांतिकारी छात्ररसंगठन, डीयसयफ का महा सचिव था। आप किसी से नहीं मिलेंगे जिसने 1983 में जेयनयू में प्रवेश लिया हो। बहुत लोगों को शोकॉज़ नोटिस मिले। मेरा भाई जेयनयू और बहन वनस्थली में पढ़ती थी। दोनों का आर्थिक अभिभावक मैं ही था। मेरी थेसिस पूरी होने में 6-7 महीने की देरी थी। सुझे यूजीसी की सीनियर फेलोशिप मिल रही थी और एक स्कूल में गणित पढ़ाता था। रस्टीकेसन और न रस्टीकेसन में एक 2 लाइन के माफीनामे का फासला था। बहुतों ने फासला तय कर लिया कुछ नहीं कर पाए। मुझे भी समझाया गया कि लोग जिस तरह डीमॉरलाइज्ड हैं, तुम्हारे माफी न मांगने से देश क्या जेयनयू में भी कोई क्रांति नहीं आ जाएगी, मैं भी जानता था। लेकिन माफी का मतलब आंदोलन को खारिज करना थान जिसमें भागीदारी का फक्र है। कुल माफी न मांगने वाले लगभग 20 लोग थे, सब किसी-न-किसी क्रांतिकारी वाम धारा से जुड़े हुए। सभी बड़े संगठन -- यसयफआई-एआईयसयफ फ्रीथिंकर्स -- ने गुपचुप समझौता कर लिया था। 3 लोग 3 साल के लिए बाकी 2 साल के लिए रस्टीकेट कर दिए गए। मैंने अपने जवाब में वीसी को काउंटर शो-कॉज ईसू कर दिया कि इस शिक्षा के दुर्लभ केंद्र को बरबाद करने के लिए जनता उनके खिलाफ क्यों न कार्रवाई करे? जाहिर मैं 3 साला सूची में था। हम रह सकते थे लेकिन सर झुका कर सर उठाकर नहीं। सिर उठा के जीने के दुस्साहस की कोई कीमत कम होती है।(07.06.2017
Jagadishwar Chaturvedi जी याद है, आप यसयफआई के सदर थे, उसी के आसपास या बाद आप जेयनयूयसयू अध्यक्ष के दो में से एक चुनाव जीते भी थे। जो हारे थे वह तबतक मौजूद हिदीभाषियों के प्रति कैंपस का पूर्वाग्रह। आपके प्रतिद्वंदी का तो अब नाम भी नहीं याद है। साथी कई बातें मैं यह सोचकर नहीं कहता कि पता नहीं हम उस समय को निष्पक्ष परिप्रेक्ष्य से देख पाएंगे कि नहीं, नहीं तो अपना-अपना औचित्य साबित करने की बहस में जुट जाएं तो सीखेंगे तो कुछ नहीं, सौहार्द ही घटेगा। 1989 वाले लेख में मैंने भरसक निष्पक्षता की कोशिस की है लेकिन मानव सब्जेक्टिव बीइंग है पूर्णतः निष्पक्षता शायद संभव नहीं है। हां किसी के इंगित करने पर भी इंगित तत्व की आत्म निरपेक्ष समीक्षा करनी ही चाहिए। मैं अभी के छात्र मित्रों को समझाता रहता हूं कि संगठन साधन है साध्य नहीं, उसी तरह जैसे पैसा जीने का साधन है साध्य नहीं। यदि साधन ही साध्य बन गया तो समझो, लास्टैय है। लेकिन हम उस वक्त की सोचते हैं तो जेयनयू के वाम संगठनों की सांगठनिक कार्यशैली; गुटबाजी; चुनावी दाव-पेंच; सेक्टेरियनिज्म; तकनीकी तार्किकता; चुनावी लामबंदी में उस समय के एबीवीपी; यनयसयूआई और यसवाईयस आदि संगठनों से गुणात्मक भिन्न नहीं थी। यदि हम अपनी बेवकूफियों का मजाक उड़ाने का साहस कर पाएं और दर-बेवकूफियों पर शर्मिंदा होने का बड़प्पन (शर्म एक क्रांतिकारी अनुभूति है) तो हमारी यादों पर एक ईमानदार विमर्श का संकलन एक महत्वपूर्ण दस्तावेज बन सकता है। हम बच्चों को कहते हैं संगठन साध्य नहीं, साधन है, लेकिन ईमानदारी से सोचें तो हमारे लिए भी प्रकारांतर संगठन ही साध्य बन गया था, इसीलिए 1983 के दमन, समर्पण हताशा के साथ, जेयनयू की राजनीति के युग की समप्ति हुई। जो लोग औरों से सिर्फ माफी न मांगने का एक ही अधिक जुर्म किया था उनमें से न तो किसी ने, न उनके फिद्दी-फिद्दी से संगठनों ने आंदोलन की शुरुआत की (न ही उनकी औकात थी) लेकिन जब आंदोलन शुरू हो गया तो वे उसमें जी-जान से जुट गए। मार्क्स ने 18 मार्च, 1971 के पहले ही नेसनल गार्ड के कुछ नेताओं को संदेश में कि तब विद्रोह का सही समय नहीं था। लेकिन जब पेरिस की सर्वहारा ने विद्रोह कर ही दिया तो उसके साथ एकजुटता में जी-जान से जुट गए। मार्क्स 'सिविल वार इन फ्रांस' इतिहास की समीक्षा ही नहीं, एक सर्वकालिक इतिहास-दृष्टि की अनकरणीय मिसाल है। हार-जीत सही-गलत का नहीं तमाम ऐतिहासिक संयोगों का परिणाम है, संघर्ष की गुणवत्ता महत्वपूर्ण है। मॉफ करना यार सोचा था दस्तावेज पर खत्म कर दूंगा और विचार-विमर्श के बाद 1983 पर सब अपने अपने समीक्षात्मक अनुभव, विचार और मूल्यांकन, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक और विचारधारात्मक परिप्रेक्ष्य से शेयर करें। लेकिन मेरी ही तरह कलम भी कभी-कभी मनमाना हो जाता है। मैं अगर आंदोलन को निंदनीय मानता तो उसमें शिरकत के लिए मॉफी क्यों न मांगता? सबको कहता हूं कि गलती हो तो मॉफी मांग लेना चाहिए तो मैं क्यों अपवाद? शिक्षक को प्रवचन से नहीं मिशाल से पढ़ाना पड़ता है। कोई आवेश में या शहादत की चाह में, या चोरी-ऊपर से सीनाजोरी की बेहूदी इगो की संतुष्टि में मैं अपने घर-गांव से जेयनयू कैंपस की नागरिकता और आवास, यूजीसी फेलोशिप, 4-6 महीने दूर डिग्री नहीं दांव पर लगा दूंगा? मैं भी साधारण इंसान हूं, मुझमें भी प्रबल आत्म-संरक्षण भाव और बोध है। नोटिस मिलने और अंतिम दिन जवाब देने में काफी वक्त था। उन दिनों मैं एक स्कूल में पढ़ाता भी था। ऊपर से जैसा ऊपर बता चुका हूं उस वक्त एक एक भाई बहन का भी आर्थिक अभिभावक था। माफी न मांगने का फैसला लंबे दार्शनिक, वैचारिक आत्म-संवाद का परिणाम था। जिस दिन मान लूंगा कि मैं इतना बेवकूफ और अहंकारी हूं कि अपनी गलती के औचित्य साबित करने में इतनी चीजें दांव पर लगा दू तो आत्मग्लानि से आत्महत्या कर लूंगा। यह सारे नफा-नुक्सान की विवेकपूर्ण गणना और परिणाम की विभीषिका के और तत्पश्चात की समस्याओं के आकलन के बाद सोचा-समझा फैसला था। जिस दिन मुझे हॉस्टल से एविक्ट किया गया, मेरी बेटी 10 दिन की थी और मेरा मैरिड हॉस्टल में नंबर आने वाला था। बचपन में सब बहुत समझदार कहते थे, मैंने सोचा सब कहते हैं तो होऊंगा ही तबसे मैंने अपने को समझदार समझना बंद ही नहीं किया, जो इतना समझदार होकर मैं सिर्फ नाक के लिए ऐसा आत्मघाती कदम क्यों उठाता जो मुझे ही नहीं औरों को भी प्रभावित करे? इस तरह की घटनाएं जीवन का लय ही बदल देती हैं, मेरी बेटी आज तक ताने देती है कि उसे 4 साल गांव छोड़े रहा। मैं 1983 की एक तथ्यात्मक समीक्षा कभी लिखूंगा। जिन मित्रों के पास उस वक्त के पर्चे आदि हों तो उपलब्ध कराएं। कब लिखेंगे पता नहीं? और काम थे लेकिन मेरी ही तरह मेरा कलम भी कभी मनमानी पर उतर आता है. (07.08.2017)
1983 (भाग 1)
इस बार (2016) भी
गांधी जयंती रविवार को पड़ी. कल ऐसे ही सोचने लगा कि 1983 के बाद शायद पहली बार
रविवार को 2 अक्टूबर पड़ा हो. 1983 का इसलिए याद है कि इसी दिन मुझे जेयनयू
छात्रावास से निष्काषित किया गया था. 10-12 ट्रक पुलिस, प्रॉक्टर रामेश्वर सिंह के
नेतृत्व में जेयनयू का पूरा सुरक्षा तंत्र. दमन से भयभीत परिसर में सीमित प्रतिरोध
के बावजूद एक 50 किलो से कम वजन के लड़के को कमरे से बेदखल करने को इतना सशस्त्र
सुरक्षा बल? मित्रों ने कहा था कि सामान निकाल लूं और सांकेतिक प्रतिरोध करूं.
लेकिन मैं साध्य के साथ साधन की सुचिता का भी हिमायती हूं.
1983 में जेयनयू में
प्रवेशनीति में अजनतांत्रिक बदलाव के विरुद्ध एक लंबा आंदोलन चला था. पुलिस आई थी,
गिरफ्तारियां हुईं. आंदोलन पर कभी एक पूरा लेख लिखूंगा. लोग धीरे-धीरे 1983 भूलने
लगे हैं. बड़े-बड़े संगठनों के बड़े बड़े नेताओं ने पहले ही दिन से जमानत-जमानत
चिल्लाना शुरू कर दिया था. कई लड़के-लड़कियां मिलने आए मित्रों के हाथ पर लगे
निशान को पसीने की मदद से अपने हाथ पर लगाकर उन्ही के साथ जेल से निकल गए. किसी
अखबार में कॉर्टून था, एक डॉन टाइप का करेक्टर जेयनयू की एक लड़की के पैरों में
बैठकर जेल तोड़ने की इल्म सिखाने की गुजारिश कर रहा था. कई लोग ऐसे डर गए कि
उन्हें उनके घर जाकर ले आना पड़ा. कई लोगों ने जेल में गलत नाम लिखाया. 1983 के को-विक्टिम
(निष्कासित) बालगंगाधर तिलक अपना सही नाम लिखा रहे थे, जेल वालों को नकली लगा था.
खैर महीने भीतर (या ऐसे ही कुछ) सब लोग जमानतों पर छूटे.
इंदिरा गांधी का
वक्त था. प्रशासन ने विवि अनिश्चित काल (साइनेडाई) के लिए बंद कर दिया, हम लोग
लेकिन मेस और लाइब्रेरी प्रबंधन पर अधिकार कर चुके थे. पीयन श्रीवास्तव कार्यकारी
कुलपति थे तथा आंदोलन के दमन के तमगे के चलते बाद में नियमित कुलपति बन गए थे.1983-84
को शून्य-सत्र(ज़ीरो यीअर) घोषित कर दिया गया. कुछ छिट-पुट यमयल तत्वों को छोड़
सभी बड़े संगठन यसयफआई और फ्रीथिंकर्स समझौता मोड अख्तियार कर चुके थे. चूंकि
बिपनचंद्रा के नेतृत्व में प्रस्तावित प्रवेशनीति के कर्ता-धरताओं में नारंग और
आरआर शर्मा जैसे कई सीपीआई के प्रोफेसर थे, इसलिए एआईयसयफ की आंदोलन में भागीदारी
संकेतात्मक ही रही थी. यसयफआई के नेता तो खुले-आम कहते घूम रहे थे, ‘हम अंडरहैंड
डीलिंग करते थे या कुछ भी करते थे, यूनिवर्सिटी शाइनेडाई नहीं होने देते थे.’
परिसर में हताशा और
भय का माहौल था जिसे तोड़ने में हम 25-30
या शायद इससे कुछ ज्यादा लोग लगे थे. एक नुक्कड़ नाटक तैयार किया हम लोगों ने, गोलचक्कर
सर्कस कंपनी (नाटक और प्रस्तुतियों के बारे में फिर कभी) नुक्कड़ नाटक
लिखा-मंचन किया. आमतौर पर पोस्टर चिपकाने और दीवारों/बसस्टॉपों पर नारे लिखने का
काम रात में होता था. हम लोंगों ने दिन में पोस्टर चिपकाना शुरू किया जिससे लोग डिमोरलाइज
न हों. लोग सिर नीचे करके ऐसे कैंटीन चले जाते थे जैसे कि पोस्टर पढ़ने से उनका
रस्टीकेसन हो जाएगा.
जेयनयू के मौजूदा
छात्रों और उनके आंदोलन (जो हमारा आंदोलन भी है)
सलाम करता हूं, आपस में लड़ने-भिड़ने के बावजूद, चिन्हित छात्र-छात्राओं के साथ
एकजुटता से कंधे-से कंधा मिलाकर खड़े रहे. उस वक़्त 20 के करीब लोग रस्टीकेट हुए
थे, जिनमें से 3 ने निष्कासन के एक-दो महीने में मॉफी मांग वापसी कर ली. उनमें से
एक जेयनयू में प्रोफेसर हैं, एक इग्नू में और एक बड़े पत्रकार. हॉस्टल से मेरी
बेदखली के वक्त प्रतिरोध में 30-35 लोग थे, जिनमें से ज्यादातर निष्कासित या
निष्कासन के लिए चिन्हित थे. रामेश्वर सिंह (मुख्य प्रॉक्टर) कुछ बात करने की कोशिस
की तो वे तू-तड़ाक करने लगे. किसी ने कहा “मिस्टर रामेश्वर सिंह आप जोकर लग रहे
हैं”( You look like a
joker). अविजित पाठक (अब जेयनयू में सोसिऑल्जी
के प्रोफेसर) ने टोका, “No-no.
He looks like a villain of a 3rd rate Hindi film.” (नहीं, वे किसी थर्ड रेट हिंदी फिल्म के खलनायक
लगते हैं”. मेरा सामान जब्त कर किसी स्टोर में पहुंचा दिया गया, और शुरू हुआ
खानाबदोशी का एक और दौर.
1983 का आंदोलन फक्रमंद राजनैतिक अनुभव के रूप में
सुखद समृति के तौर पर दर्ज रहेगा. पोस्टर्स के इतने रचनाशील विषय, नारे, कविताएं
मिल रहे थे कि सरप्लस हो जाते थे. पोस्टर-पर्चों पर थोड़ा और शोध के बाद
लिखूंगा, बस एक अनुभव यहां शेयर करूंगा. रात को अम्मा के ढाबे पर (डाउन कैंपस
लाइब्रेरी के पास) खा-पीकर हम लोग 2 समूहों में बंट गए. मैं और प्रभु
महापत्रा(दिल्ली विवि में इतिहास का प्रोफेसर) सेक्टर 3 (आरकेपुरम्) और आईआईटी
हॉस्टल बस स्टॉप पर नारे लिख कर दूसरे समूह इंजार करेंगे, जहां से हम साथ आईआईटी
हॉस्टल जाएंगे. दूसरे समूह में दिलीप उपाध्याय (दिवंगत) के साथ 5-6 लोग थे, जिनका
नाम जान-बूझकर नहीं लिख रहा हूं. दिलीप ने सीढ़ी के चक्कर में एक चौकीदार से झगड़ा
कर लिया था, हम लोग उससे मॉफी मांग लिए थे, सोचा मामला वहीं खत्म हो गया. जब बहुत
देर तक ये लोग नहीं आए तो हम दोनों बेर सराय की तरफ चल पड़े. दूर से सड़क पर कुछ
हलचल दिखी. हम लोगों ने सोचा बेरसराय गांव के कुछ लोग दारू पीकर झगड़ा कर रहे
होंगे. लेकिन नज़दीक पहुंच कर देखा कई पुलिस वाले दिलीप को पकड़कर जीप में डालने
की कोशिस कर रहे थे, उसकी शर्ट फट गई थी, वह कई पुलिस वालों से अकेला भिड़ा हुआ
था, हम लोग भी साथ हो लिए. बाकी लोग कहां गए, सोचने का वक्त नहीं था. उनमें से एक
इंस्पेक्टर ने कहा कि उन्हें प्रॉक्टर ने बुलाया है और कहा है कि यह आदमी मेंटल(पागल)
है, हमारी जिद्दोजहद देख उनमें से एक ने कहा, “इन्हें भी राउंडअप कर लो”, हम लोग
अड़े रहे और शोर मचाते रहे अंत में पुलिस वाले हमें छोड़कर भाग गए. उसके बाद बाकी
लोग भी आ गए, हम प्रॉक्टर के ऑफिस पहुंचे वहां उनसे थोड़ा बहस हुई. बेरसराय की उस
दीवार पर दिलीप का लिखा वह नारा काफी दिनों तक रहा. “पैदा हुआ अ... (तत्कालीन
रेक्टर, जो बाद में कुलपति बना) तो शैतान ने कहा, लो आज मैं भी साहिब-ए-औलाद हो
गया.”
पुलिसिया कार्रवाई
के बाद बहुतों को शो-कॉज़ नोटिस मिला. कइयों ने मॉफी मांग ली या डील कर
लिया. बाकियों के लिए जांच आयोग बैठे. मैं 2 जांच आयोगों में नहीं हाजिर हुआ,
तीसरे में एक तरफा कार्रवाई की धमकी थी. सोचा निकलना ही है तो आयोग के सामने हाजिर
होकर दिल की भड़ास ही निकाल लूं. दांव पर बहुत कुछ था, सीनियर फेलोशिप और डिग्री.
मामला साफ था रहना है तो रहो, लेकिन सिर उठाकर नहीं. मॉफी मांगो, आंदोलन में शिरकत
के लिए खेद प्रकट करो, बने रहो. पहला जांच आयोग जस्टिस(रिटायर्ड) पृथ्वीराज का था.
कुछ ने वहां जाकर मॉफी मांग ली. हमारे संगठन के ज्वाइंट सेक्रेटरी (अब कश्मीर विवि
में प्रोफेसर) लिखित मॉफी के बाद जब तीसरी बार मौखिक मॉफी मांगने गया, तो जस्टिस
पृथ्वीराज ने उसे डांट कर भगा दिया.
तीसरा आयोग प्रो.
केपी सक्सेना का आयोग था, जिसमें मैं हाजिर हुआ और जिसकी संस्तुति पर मुझे 3 सालों
के लिए रस्टीकेट किया गया. पहला सवाल प्रो. सक्सेना ने पूछा, (“What do you think about the
agitation?” (आंदोलन के बारे में
आप क्या सोचते हैं) मैंने कहा, “You are asking, theoretically, a wrong question, as legally
you can take action for what I did and not what I think, though historically
action have been taken on what you think. Please confine yourself to the
question, ‘what I did’. As far as my thinking is concerned, I think this
exploitative anti-people system must be destroyed and replaced by a real
democratic, pro-people system. …… . Can you take action against me for that?” व्यवस्था की कथनी-करनी के दोगलेपन पर मेरा
लेक्चर लंबा हो रहा था कि कुलपति महोदय का पदार्पण हुआ. मैंने अपना भाषण खत्म करते
हुए कहा, “….. This is a
bastard system, it never does what it says and does not say what it does. You seek to take action for what we think but
would charge us with criminal charges like ‘obstruction of duty ..; arson etc.
British were scared of the ideas of Bhagat Singh but they killed him on the
charge of murder. Now to answer your question precisely: This is a democratic
movement in defense of university’s democratic admission policy that addresses
the issue of the socio-economic deprivation. I am proud of being integral part
of the movement. Prof Saxena! In a game victory or loss are incidental, what is
important is the quality of the game.”
Prof
Saxena: “Do you have any question to Prof Srivastava (the VC)?”
Ish:
“Many, but desirability of 2nd question depend on his answer to the
1st. Prof. Srivastava did you observe my any action in your drawing
room during the Gherao, and more particularly on the day of Police action?”
Prof
Srivastava: “Yes, you were part of the group, making sarcastic comments, when
the Police had entered.”
Ish:
“Well, Prof Saxena, no more questions. No use of formal questions and concocted
lies. I was not in Delhi on that day, as I had gone to participate in the last
rites of my grandfather. Anyway, thank you for giving me honor of questioning
you.” श्रीवास्तव जी गुस्से में उठकर चले गए.
थोड़ी देर और सक्सेना साहब के गप-शप् करने के बाद, चलते-चलते आग्रह भी कर लिया, “सर,
रस्टीकेट मत करिएगा.” उन्होंने जवाब में मुस्करा दिया था.
कभी सोचता हूं, इन
लोगों (तख्तनशीनों) को हमें निकालकर परसंतापी सुख (sadist pleasure) के अलावा क्या मिला होगा? वैसे अब सोचने से क्या
फायदा, फिर भी सोचने में क्या जाता है? वैसे तो
ये लोग इतने बेरहम नहीं थे. इन्होंने मौका दिया था बचने का. छोटी सी शर्त थी माफी
की. ज्यादातर शिक्षक प्रशासन के साथ थे. इनकी वही घिसी-पिटी सोच कि सर उठाकर नहीं
झुकाकर रह सकते हो. मेरी एक स्टूडेंट के प्रोफेसर पिता ने एक mild apology लिखने की सलाह दी. वे तत्कालीन
कुलपति के खास थे और बाद में कुलपति बने. जब मैंने पूछा वह क्या होती है तो
उन्होंने बताया कि लिख दूं कि मैंने गलती नहीं की है फिर भी उन्हें लग रहा है तो
उसके लिए माफी. उन्होंने आश्वस्त किया कि किसी को पता नहीं चलेगा. मैंने कहा
कम-से-कम 2 लोगों को मालुम रहेगा, मुझे और उन्हें और मुझे मालुम रहना, मेरे लिए
ज्यादा खतरनाक है. इंसान का खुद की नज़रों में गिरना घातक हो सकता है. हमें
निकालकर उन्हें परसंताप और इगो की तुष्टि के अलावा कुछ भी नहीं मिला होगा लेकिन
हमारे लिए इसके दूरगामी परिणाम थे. एक घटना के जिक्र के साथ यह पैरा बंद करता हूं.
शशि (शशिभूषण उपाध्याय, अभी इगनू में प्रोफेसर) के पिता जी आए थे. उस समय उनके साथ
(शशि समेत) हममें से ज्यादातर निष्कासित लोग थे. हम सर नीचे कर दुखी मन बैठे थे.
उन्होने पूछा क्या हम पहले से नहीं जानते थे कि ऐसा होगा? हमारे जवाब पर कि जानते
थे, वे हंसकर डांटते हुए बोले थे कि तम क्यों हम दुखी हो रहे थे? वैसे दुखी तो
होता ही है, इंसान जब कोई जगह छूटती है, वह भी तत्कालीन जेयनयू जैसी जगह, जो हमारा
गांव-देश बन गया था. राहुल (राजेश राहुल, 1991-92 में दिल्ली से लापता हुआ अभी तक
कुछ पता नहीं) ने एक खूबसूरत कविता लिखी थी, जब छूटती है कोई जगह. कविता
याद नहीं है. सुंदर बिंब और इमेजरी थी. पानी में कंकड़ फेंकने से होने वाली हलचल
और तार्कोस्की की किसी फिल्म के दृश्यों छूटती जगह की स्मृतियों का चित्रण किया
था.
कभी यह भी सोचता हूं
कि क्या माफी न मांगने का फैसला अहंकारवस तो नहीं था. वैसे यह भी अब सोचना उतना ही
बेमतलब है जितना ऊपर की बात सोचना. लेकिन फिर भी सोचने में क्या जाता है. अंततः हम
17-18 लोग बचे जिनमें कई बातें सामान्य थीं. 1. लगभग सभी उत्तर या दक्षिण के गांवो
से टाट-पट्टी स्कूल के पढ़े थे. 2. सभी आर्थिक रूप से कमजोर पृष्ठभूमि के थे. 3.
सब विवि मानदंडों के अनुसार अच्छे विद्यार्थी थे क्योंकि सबको यसआरयफ या जेआरयफ मिलती
थी. कुछ दिन पहले ही गांव में मेरी बेटी पैदा हुई थी. मैरिड हॉस्टल का नंबर आने वाला था. खैर अब
सोचने से क्या फायदा? वैसे सोचा तो तब भी था. हमें यह भी मालुम था कि हमारे पाफी न
मांगने और निष्कासित होने से दुनिया में क्या जेयनयू में भी कोई क्रांति नहीं आ
जाएगी. यह भी जानते थे कि 2-4 साल बाद लोग 1983 भूल भी जाएंगे. फिर अपने पास तो
किसी भी समझौते को उपयुक्त ठहराने के लिए, “दो कदम पीछे”; “टैक्टिकल रिट्रीट” आदि
सिद्धांतों की पुड़ियाएं भी थीं. लेकिन लगा कि सर झुकाने की हरकतों से सर झुका कर
चलने की आदत न पड़ जाए. सर न झुकाने के फैसले से निष्कासन का विकल्प चुन लिया. हर
चीज की, पर शौक की कीमत चुकानी पड़ती है, नतमस्तक समाज में सर उठाकर चलने की
जुर्रत की तो भारी कीमत चुकानी पड़ती है, जो दर-असल शौक की नफ़ासत देखते हुए
ज्यादा नहीं है. 2 अक्टूबर और रविवार के संयोग के जिक्र में लंबी समृति हो गई.
1983 आंदोलन पर कभी
फिर (मौका मिला तो) विस्तार से लिखूंगा.
(05.10.2016)
पुनश्च 1:
तत्कालीन कुलपति पीयन श्रीवास्तव के पुत्र अनिल
श्रीवास्तव से मेरा परिचय उस समय से है जब वह सीपीयम से यमयल की तरफ बढ़ रहे थे
लेकिन 1983-84 तक वह राजनैतिक
रूप से थक-हार से गए थे. पिताजी के ही साथ रहते थे, कैंपस में आते थे तो मुझसे जरूर मिलते थे. फिर धीरे-धीरे संपर्क
कमता गया. कुलपति, पीयन श्रीवास्तव का बेटा मेरा मित्र था. प्रशासनिक रेक्टर यमयस
अगवानी का बेटा मेरा शिष्य-मित्र था. पीयन श्रीवास्तव के खासम-खास और जो आगे चलकर
खुद कुलपति बने, आशीष दत्त की बेटी
मेरी शिष्या-मित्र थी. लगता है बेटी की ही सिफारिश पर मुझे माइल्ड अपॉलॉजी की सलाह
देने आए थे. ज्यादातर लोगों को 2 साल के लिए निकाला गया था उर्मिलेश, मुझे, नलिनीरंजन मोहंती (छात्रसंघ अध्यक्ष) और शायद किसी एक और को 3 साल के लिए. नोटिस के जवाब में मैंने
कुलपति को विश्वविद्यालय की स्वस्थ, जनतांत्रिक शैक्षणिक संस्कृति को नष्ट करने के लिए कारण बताओ
नोटिस दे दिया था.
पुनश्च 2:
मेरा और अरुण (हैदराबाद में सुना है किसी
कॉलेज/विवि में प्रोफेसर हो गया था) के निष्कासन सबसे बाद में हुए. हम दोनों ने
पहले 2 जांच आयोगों का बहिष्कार किया था लेकिन तीसरी बार जब नोटिस मिला कि न हादिर
होने से एकतरफा कार्वाई की जाएगी. हम ने सोचा जांच के बाद निष्कासित होने और जांच
की मान्यता के साथ निष्कासित होने में महज तकनीकी फर्क़ था, तो सोचा इस बहाने दिल
की कुछ भंड़ास ही निकल जाएगा. के बाद पता
चला कि ‘अच्छे चाल-चलन’ के आधार पर त्तकालीन छात्रसंघ के अध्यक्ष समेत 3 लोगों का
निष्कासन वापस हो गया और वे पंजीकृत छात्र हो गए. कुछ पोस्टर-वोस्टर लगाने;
नाटक-साटक करने; जुलूसों वगैरह में जाने जैसे पुनीत जनतांत्रिक कृत्यों-कुकृत्यों
के अलावा हमारा चाल-चलन भी बहुत अच्छा था. जिन प्रोफेसरों को पसंद नहीं करते थे
उनसे भी अभिवादन करते थे. निष्कासन के बाद भी परिसर में ही रहता था, पहले अजय
मिश्र के कमरे में उनके आईयस बन जाने के बाद सतलज के उसी फ्लोर पर अक़ील के कमरे
में अड्डा जमता था. अक़ील गालिब अकेडमी का सचिव है. लेकिन स्थाई अतिथि की रवायत तो
परिसरों का स्थाई भाव रहा है, इसलिए इसकी अवैधता महज कानूनी थी. बाद में फ्लैट
किराए पर लेने के बाद भी ज्यादातर समय जेयनयू में ही बीतता था. वह तो हमारा घर-देश
था. मैं तो आपातकाल में भूमिगत अस्तित्व की तलाश में किसी इलाहाबाद के सीनियर
(डीपी त्रिपाठी) को खोजते जेयनयू पहुंचा, जेल में होने के नाते वे तो मिले नहीं
इलाहाबाद विवि के एक अपरिचित सीनियर (सुल्तानपुर के रमाशंकर सिंह) मिल गए, जिनके साथ
रहने का जुगाड़ हो गया. उस समय की बहुत सुखद स्मृतियां हैं, जिन पर अलग से लिखूंगा.
लंबे पुटनोट की बुरी आदत मुद्दे से भटका
देती है, लेकिन हर भटकाव शायद बुरा नहीं होता. खैर आंदोलनकारी छात्रसंघ समेत 3
निष्कासित लोगों की वापसी से प्रोत्साहित मैंने सोचा मैं भी प्रयास करूं क्योंकि
मेरा पढ़ने का काम पूरा हो चुका था, लिखने की भी शुरुआत लगभग कर चुका था. प्रो.
रशीदुद्दीन खान सीपीयस (सेंटर फॉर पोलिटिकल स्टडीज) चेयरपरसन थे. एक बात तब तक थी
जेयनयू के प्रोफेसरों और प्रशासकों से मिलना मुश्किल नहीं था. रशीद साहब कांग्रेस
सरकार द्वारा मनोनीत राज्य सभा सदस्य थे लेकिन क्लास के प्रति प्रतिबद्ध. थोड़ा
तुतलाते थे लेकिन पढ़ाते बहुत ही अच्छा थे. राजनैतिक मतभेदों तथा कई मुद्दों पर
विरोध के बावजूद एक बेहतरीन इंसान तथा एक बहुत अच्छे टीचर के रूप में मैं उनका
प्रशंसक रहा हूं. मेरे गाइड प्रो. के
शेशाद्री और भी बेहतरीन इंसान थे. खैर, सोसलसाइंस के कई सेंटर नए (ऊपर) परिसर में
चले गए थे, सीपीयस समेत कई सेंटर पुराने (नीचे) परिसर में ही थे. प्रशासनिक भवन भी
तब तक ऊपर नहीं शिफ्ट हुआ था. लाइब्रेरी का भी कुछ हिस्सा अभी नीचे ही था.
लाइब्रेरी कैंटीन में चाय पीते हुए रशीद साहब से मिलने का मन हुआ. चला गया उनके
कमरे में, उठकर हाथ मिलाया और बैठने को कहा. आधे घंटे हमलोग राजनीति और धर्मनिरपेक्षता
समेत कई सामाजिक सरोकारों पर बात करते रहे. मौका ‘वाज़िब’ देख मैंने सेंटर में 2
निष्कासित लोगों (वापसी वाले तीसरे सज्जन अन्य स्कूल के थे और अब जेयनयू में प्रो.
हैं) की वापसी का ज़िक्र कर अपनी बात कर दी. बाप-रे! मैं तो सोचता था रशीद साहब को
गुस्सा ही नहीं आता. अचानक परिवर्तन से मैं किंकर्तव्य विमूढ़ सा हो गया. गुस्से
में बोले, “You are not
supposed to be even around. Instead of expressing regret of your misdeeds of
agitation, you have audacity to issue a counter show-cause notice to VC”. मैंने इसके बावजूद मुधसे मिलने के उनके बड़प्पन
का शुक्रिया अदा कर वहां से चला गया. वह प्रो. रशीदुद्दीन खान से आखिरी, मुलाकात
थी.
पुनश्च 3:
दर-असल यह पिछले पुनश्च का विषय था लेकिन
फुटनोटिंग से विषयांतर के चक्कर में एक पायदान नीचे खिसक गया. जिन लोगों का
निष्कासन रद्द हुआ था उनका कहना था कि कुलपति ने स्वतः पुनर्विचार कर उन्हें
पंजीकरण की अनुमति दे दी. मैंने सोचा मैं भी एक बार मिल लूं कुलपति महोदय जी से.
सो दरवाजा खटखटाकर अंदर चला गया. मुझे देखते ही प्रो. श्रीवास्तव आश्चर्यभाव से
मेरी तरफ प्रश्नवाचक मुद्रा में देखने लगे. मैंने यह कर कि “आपसे कुछ बात करने आया
हूं”, सामने कि कुर्सी पर बैठ गया. श्रीवास्तवजी मेरे चेहरे को पढ़ने लगे, मैं
उनके. उन्हें मेरी जुर्रत पर ताज्जुब हो रहा था. मैं सोचने लगा कि यह आदमी मेरे
जैसे सीधे-शरीफ लड़के की शकल देखकर इतना परेशान क्यों हो रहा है. मैं आंदोलन के
बारे में सोच रहा था कि हम निर्भय हो एकताबद्ध लड़ते तो जीत सकते थे. मुझे स्पार्टकस
उपन्यास में वर्णित, ज़िंदा सलीब पर लटके डैविड और स्पार्टकस के बीच अंतिम संवाद सोच
रहा था जब डैविड ने स्पार्टकस से पूछा कि उनसे गलती कहां हुई और स्पार्टकस के गले
का फंदा उसके बोलने के पहले ही कस गया. प्रो. श्रीवास्तव मेरी जुर्रत के बारे में
सोच रहे होंगे कि मैं मुंह उठाकर उनके पीए से मिले बिना सीधे उनके कमरे में घुस
गया. यह भी कि यह डरता क्यों नहीं?
प्रो. श्रीवास्तव: क्या बात करना है?
ईश: आपने कुछ रस्टीकेटेड लोगों को वापस
लिया है, मैंने सोचा................
प्रो. श्रीवास्तव: I have taken back some people, I
might take back some more. I will not take back some people and I will never
take you back.
ईश: There may be some misunderstandings, so there is no harm in
discussing them.
प्रो. श्रीवास्तव: There is no misunderstanding. Things
are crystal clear and I do not act in haste.
इसके बाद बिना मुझे बाहर जाने को कहे
बगैर, वे उठे और बाहर जाने लगे. मैं भी पीछे निकल पड़ा. प्रो. श्रीवास्तव से यह
मेरी अंतिम मुलाकात थी.
पुनश्च 4:
इस चौथे और संभवत:
आखिरी पुनश्च के बिना कहानी अधूरी रह जाएगी. तमाम लोग, खासकर ‘बड़े’ लोग एक
अज्ञात, अदृश्य, अमूर्त भय से आक्रांत रहते हैं. मेरे लिए यह मानव इतिहास की एक
अबूझ पहेली सी है. विश्वविद्यालय और
हॉस्टल से बेदखली के बाद भी मैं परिसर में ही रहता था. जेयनयू में पढ़ते हुए 1981 से मैं डीपीयस (आरकेपुरम्) में पढ़ाता भी
था. दोपर में छुट्टी के बाद मैं या तो 620 (बस नं.) लेकर तीनमूर्ति लाइब्रेरी चला
जाता था या उल्टी 620 लेकर जेयनयू. कुलपति, प्रोफेसर पीयन श्रीवास्तव के साथ ‘असफल
वार्ता’ के कुछ दिनों बाद की बात है. उस दिन मैं संयोग से जेयनयू आ गया था. जाड़े
की शुरुआत थी.पुरानी सोसल साइंस बिल्डिंग से सटे फ्रांसिस के ढाबे से खाना खाकर,
हम (मैं और चंदू – चंद्रमोहन तिवारी, अल्मोड़ा में वकील) प्रशासनिक ब्लॉक की चाय
की दुकान से चाय लेकर फ्ररंट लॉन में बैठ गए. प्रशासनिक ब्लॉक का लॉन होने के नाते
ज्यादा हर-भरा रहता था तथा उस वक़्त हरी घास के लंबे टुकड़े पर पड़ते तिरछे धूप के
सुनहरे टुकड़ों से और सुंदर हो गया था. हम लोग जेयनयू बस से अगले दिन भीष्म साहनी
का नाटक कविरा खड़ा बाजार में देखने श्रीराम सेंटर जाने की योजना बना कर
भीष्म साहनी से शुरू कर बंटवारे और मंटो की कहानियों पर बात कर रहे थे. तभी देखा
प्रो. श्रीवास्तव बिल्डिंग में प्रवेश कर रहे थे. खड़े होकर सलाम ठोंकने का वक्त
नहीं था, से बैठे-बैठे ही ठोंक दिया. वे मन-ही-मन कुछ कहते हुए अंदर चले गए. हमने
कल्पना भी न की थी कि वे पुलिस बुला लेंगे. जो कुछ हो रहा था उसमें अदम गोंडवी याद
आए, “हमने अदब से हाथ उठाया सलाम को/उनको लगा कि खतरा है निज़ाम को.” हमें अंदाज
होता तो पुलिस आने के पहले ही अप कैंपस चले जाते. खैर ये होता तो वो होता निरर्थक
आलाप है. मुझे याद है हम उस समय मंटो की टोबा टेक सिंह कहानी के बंटवारे के
संदर्भ में टोबा टेक सिंह के चरित्र के निहितार्थ पर बात कर रहे थे. जब 12-15
पुलिस वाले हमारी तरफ आते दिखे.
पता चला कि कुलपति
महोदय ने अपने ऑफिस के पास एक खतरनाक नक्सली की मौजूदगी की शिकायत की जिसके ऊपर
विवि ने कई मामले दायर कर रखा है. इंस्पेक्टर ने इतना ही बताया था. मुझे समझ नहीं
आ रहा था कि उनके रास्ते में दिखने की मेरी जुर्रत उन्हें नागवार लगी और मुझे पाठ
पढ़ाने का फैसला किया? या फिर मेरी उपस्थिति से उन्हें कुछ असुरक्षा या खतरे का भय
हुआ हो? या फिर सर उठाकर रहने वाले लोगों पर उनका संचित गुस्सा था? जो भी हो, उनकी
यह हरकत कायराना और बेवकूफी की थी. कायराना इसलिए कि सत्ता के इस्तेमाल से हमें
डराना चाहा. बेवकूफी की इसलिए कि उसे भी मालुम था कि अगले दिन जमानत पर छूट ही
जाऊंगा, हम रात भर की पुलिस हिरासत से टूटने वाले तत्व के बने नहीं हैं.
इंस्पेक्टर ने कहा कि किसी पुराने मामले में पूछ-ताछ के लिए मुझे थाने चलना
पड़ेगा, मैं समझ गया इसका मतलब गिरफ्तारी थी. पर्स-बैग सब चंदू को दिया और पुलिस
गाड़ी में बैठकर वसंतविहार पुलिस स्टेसन पहुंचा. 15-20 मिनट में 50-60 स्टूडेंट्स
वहां पहुंचे. पुलिसवालों ने बताया कि मुझे गिरफ्तार किया जा चुका था. वसंत विहार
थाने में हिरासत की व्यवस्था नहीं थी तो मुझे वहां से विनय नगर थाने ले जाया गया.
थाने के लोगों का व्यवहार ठीक था तथा उनमें से कुछ की क्लास भी लेने लगा. तभी
अमितसेन गुप्ता (जाने-माने पत्रकार, लेखक, आईआईयमसी के पूर्व प्रोफेसर) चारमिनार
गोल्ड की सिगरेट पैकेट लेकर मिलने आया. हिरासत के गार्ड मिसने ही नहीं दे रहे थे.
किसी एसीपी को संपर्क किया गया तो गार्ड ने कहा कि वह (अमित) ग्रेटर कैलाश का छंटा
हुआ गुंडा है. हा हा. बाद में हमलोग यह बात करके खूब हंसते थे. खैर बाद में उसने
मिलने दिया और सीलबंद पैकेट कुछ गड़बड़ चीज न हो सिगरेट की पैकेट खोलकर एक निकाल
लिया, मैंने कहा यार सिगरेट चाहिए था तो बताते, एक और लेलो. खैर, अमित का वह
जेस्चर मैं कभी नहीं भूलूंगा. 3-4 घंटे हम गप्पें करते रहे. वह 2-3 बजे रात को
पैदल ही जेयनयू गया.
अगले दिन हथकड़ी
लगाकर पुलिस पटियाला हाउस ले जाने को तैयार हुई. उन्हें बस का ही भत्ता मिलता है.
मैंने कहा कि मैं एक सम्मानित विवि का सम्मानित निष्कासिक छात्र हूं, मैं हथकड़ी
पहनकर बस में नहीं जा सकता. अंत में टैक्सी मंगाई गई. पटियाला हाउस पहुंचते
जाने-माने वकील बीके ओहरी की पूरी टीम के साथ जेयनयू के सैकड़ों लड़के-लड़कियों को
देखकर सीना चौड़ा हो गया. डाबर साहब(मिजोरम विवि में इतिहास के प्रोफेसर) और सलिल
मिश्र (अंबेडकर विवि में इतिहास का प्रोफेसर) मेरे जमानती थे. ओहरी साहब ने जेयनयू
के सभी केस न सिर्फ मुफ्त में किये थे बल्कि हमें कोर्ट फीस भी नहीं देने देते थे.
प्रभु (प्रभु महापात्र, दिविवि में इतिहास का प्रोफेसर) ने कोर्ट फीस देने की
पेशकश की तो ओहरी सहब ने कहा था, “क्यों शर्मिंदा करते हो”. अदालत मे प्रॉक्टर
रामेश्वर सिंह को अच्छा पाठ पढ़ाया था ओहरी साहब ने. जमानत के बाद हम सब मंडी
हाउस-बंगाली मार्केट घूमते-खाते-पीते जेयनयू की 7 बजे की बस से कैंपस आ गए.
इलाहाबाद विवि में
गिरफ्तारियां होती थीं, तारीखें पड़ती थीं, हम नहीं जाते थे और धीरे धीरे केस ‘मर’
जाता था. यहां भी ऐसा ही हुआ तारीख पड़ी और नहीं गया. पता चला गैर जमानती वारंट
जारी हो गया है. सलिल और डाबर साहब को भी नोटिस मिल गया. अगली तारीख पर गया. जिस
बस में मैं पटियाला हाउस जा रहा था उसी में एक और व्यक्ति जा रहा था. अदालत में
जाकर देखा तो वही, नाम भूल गया, चतुर्वेदी जी मामले के जज थे. ओहरी खुद मेरी तरफ
से बहस कर रहे थे. जज ने मुझसे पूछा, पिछली तारीख को क्यों नहीं हाजिर हुआ था?
मैंने मासूमियत के साथ बोल दिया, “ध्यान से उतर गया था”. मुझे अपने चैंबर में
बुलाया और जेयनयू के बारे में कुछ बात-चीत की और मामला खत्म कर दिया. इतनी देर में
उनका सेक्रेटरी फैसले की टाइप्ड कॉपी ओहरी को दे दिया.
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