Saturday, October 8, 2016

बेतरतीब 12 (पुनश्च 3)

पुनश्च 3:
दर-असल यह पिछले पुनश्च का विषय था लेकिन फुटनोटिंग से विषयांतर के चक्कर में एक पायदान नीचे खिसक गया. जिन लोगों का निष्कासन रद्द हुआ था उनका कहना था कि कुलपति ने स्वतः पुनर्विचार कर उन्हें पंजीकरण की अनुमति दे दी. मैंने सोचा मैं भी एक बार मिल लूं कुलपति महोदय जी से. सो दरवाजा खटखटाकर अंदर चला गया. मुझे देखते ही प्रो. श्रीवास्तव आश्चर्यभाव से मेरी तरफ प्रश्नवाचक मुद्रा में देखने लगे. मैंने यह कर कि “आपसे कुछ बात करने आया हूं”, सामने कि कुर्सी पर बैठ गया. श्रीवास्तवजी मेरे चेहरे को पढ़ने लगे, मैं उनके. उन्हें मेरी जुर्रत पर ताज्जुब हो रहा था. मैं सोचने लगा कि यह आदमी मेरे जैसे सीधे-शरीफ लड़के की शकल देखकर इतना परेशान क्यों हो रहा है. मैं आंदोलन के बारे में सोच रहा था कि हम निर्भय हो एकताबद्ध लड़ते तो जीत सकते थे. मुझे स्पार्टकस उपन्यास में वर्णित, ज़िंदा सलीब पर लटके डैविड और स्पार्टकस के बीच अंतिम संवाद सोच रहा था जब डैविड ने स्पार्टकस से पूछा कि उनसे गलती कहां हुई और स्पार्टकस के गले का फंदा उसके बोलने के पहले ही कस गया. प्रो. श्रीवास्तव मेरी जुर्रत के बारे में सोच रहे होंगे कि मैं मुंह उठाकर उनके पीए से मिले बिना सीधे उनके कमरे में घुस गया. यह भी कि यह डरता क्यों नहीं?

प्रो. श्रीवास्तव: क्या बात करना है?
ईश: आपने कुछ रस्टीकेटेड लोगों को वापस लिया है, मैंने सोचा................
प्रो. श्रीवास्तव: I have taken back some people, I might take back some more. I will not take back some people and I will never take you back.
ईश: There may be some misunderstandings, so there is no harm in discussing them.
प्रो. श्रीवास्तव: There is no misunderstanding. Things are crystal clear and I do not act in haste.
इसके बाद बिना मुझे बाहर जाने को कहे बगैर, वे उठे और बाहर जाने लगे. मैं भी पीछे निकल पड़ा. प्रो. श्रीवास्तव से यह मेरी अंतिम मुलाकात थी.


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