Friday, October 7, 2016

युद्धोंमाद 1

Arti Srivastavaतुम तो 2-4 राज्य कश्मीर को देने की ऐसी बात कर रही हो कि सब जमीनों पर तुम्हारा पुश्तैनी नअधिकार हो? आधुनिक राज्य का सबसे बड़ा फरेब है कि हर कोई राष्ट्र बन जाता है और बयान राष्ट्र बन बयान देने लगता है. पेप्सी बेचने वाले 11 लड़के क्रिकेट मैच हार जाएं तो वेस्टइंडीज रौद देता है भारत को. ये 11 लड़के भारत बन जाते हैं जैसे कि आज हमारे ढीले-ढाले डाकिए ने कुछ खत देते हुए बोला सर अबकी हम पाकिस्तानियों को बलूचिस्तान तक खदेड़ देंगे. मैंने कहा, ढंग से डाक बांयो हिंदुस्तान बाद में बनना. इतिहास के हर युग में हरामखोर अपना राज कायम रखने के लिए जंगखोरी का सहारा लेते रहे हैं. चांदी के चंद टुकड़ों के लिए गरीब दूसरे गरीब का खून बहाते रहे हैं जिसने उनका कुछ नहीं बिगाड़ा. जंग खुद एक गंभीर मसला है, यह किसी मसले का हल नहीं हो सकता. देश के राजनैतिक दलों में तो जंगखोरी की प्रतिस्पर्धा चल ही रही है, हम भी उसी तरह का युद्धोंमाद न फैलाएं. जंग में सब हारते हैं जीतता कोई नहीं. इसलिए साहिर की पबात माने और मनाएं 'इसलिए ऐ शरीफ इंसानों जंग टलता रहे तो बेहतर है/हमारे आपके सभी के घरों में चिराग जलता रहे तो बेहतर है.' मुझे लगता है, वैसे तो साहिर ने यह बात उन लोगों की तरफ से ज्यादा कहा है, जिनके घर का कोई सेना में नौकरी करता है वे पाकिस्तानी परिवार हों या हिंदुस्तानी कोई युद्ध नहीं चाहता. निर्वाचन आधारित राजनैतिक प्रणाली में शासक वर्गों के पास धर्मोंमादी और युद्धोंमादी राष्ट्रोंमाद कई बार चुनावी लामबंदी में कारगर औजार साबित होता है, हमेशा नहीं. इतने पर ही लोग देशद्रोह की सनद बांटने लगेंगे. वाजपेयी की लाहौर बसयात्रा से सरहद के आर-पार के आवाम में अमन-चैन की उम्मीद जगी थी. युद्ध परराष्ट्रीय से अधिक राष्ट्रीय समस्याओं की उपज है. पूरे प्रतिष्टान में अपने चापलूसों से घिरे नवाज शरीफ मुशर्रफ को सेनाध्यक्ष पद से हटाना चाहते थे, मुशर्रफ ने उन्हें ही हटाने की ठान ली. हिमालय की भयावह ऊंचाई पर बसे कारगिल में मुजाहिद के भेष में पाक सैनिकों की घुसपैठ करा दी और बाजपेयी मुशर्ऱफ में कंगन-चूड़ियां भेजने की प्रतिस्पर्धा. दोनों ही देशों के जंगखोर उन्माद फैलाते रहे, लेकिन दोनों ही देशों के शासक साम्राज्यवाद के सेवक. साम्राज्यवादी आकाओं के आदेश पर दोनों को ही नियंत्रण रेखा की पूर्ववत नियंत्रण रेखा को यथावत करना पड़ा लेकिन दोनों ही तरफ के कई गरीब सिपाहियों की शहादत के बाद, जिनकी यादों में दोनों देशों की सरकारों ने एक दिन का शोक दिवस भी नहीं मनाया. इतना लंबा कमेंट नहीं लिखना चाहता था लेकिन अपेक्षा के प्रतिकूल तुम्हारा यह युद्धोंमादी व्यंग्य मुझे भावुक बना दिया. "भारत को सबक सिखाने" के लिए युगचेतना से प्रभावित सामाजिक चेतना में युद्धोंमादी जननायक बन चुके नवाज शरीफ के सेना की वापसी के आदेश ने उन्हें खलनायक बना दिया और मुशर्रफ का सैनिक तख्तापलट आसान हो गया. लेकिन युद्धोंमाद किसी भी समाज का स्थाई भाव नहीं बन सकता. पाकिस्तानी आवाम पर कुछ सालों के कहर के बाद मुशर्रफ सत्ता से बेदखल होने के बाद चोरों की तरह मुंह छिपाकर विदेशों से युद्धोंमादी शगूफे छोड़ रहे हैं.अमेरिकी दबाव में शरीफ के बयानों और सेनाध्यक्ष के विपरीत बयानों के बाद पाकिस्तान में एक और सैनिक तख्ता पलट से इंकार नहीं किया जा सकता. नव उदारवादी साम्राज्यवाद के लिए तानाशाही सरकारें ज्यादा फायदेमंद हैं. कारगिल की बहादुरी के महिमामंडन और शहीदों के कॉफिन की दलाली तथा चमकते भारत के खरबों के प्रचार के बावजूद यनडीए सरकार सत्ता से बेदखल हो गई. 1965 में अमेरिकी शह पर पाकिस्तानी हमले की धृष्टता को नाकाम करने के बाद लालबहादुर शास्त्री मरणोपरांत नायक बन गए लेकिन उसके बाद में सत्तारूढ़ कांग्रेस कई राज्यों में पहली बार बेदखल हो गयी. 1971 में इंदिरा गांधी की अभूतपूर्व चुनावी विजय के पीछे सिर्फ बांग्लादेश युद्ध की सफलता नहीं थी, गरीबी हटाओ नारे के जादुई असर से उभरा उनका जादुई व्यक्तित्व का भी योगदान था. लेकिन 1977 में इंदिरा गांधी खुद चुनाव हार गयीं. युद्धोंमाद को चुनावी औजार बनाने की प्रक्रिया में सभी राजनैतिक पार्टियां एक-दूसरे से बड़ी जंगखोर होने के दावों की प्रतियोगिता में लगी हैं, क्योंकि मोर्चे पर इनके परिजन नहीं, गरीब किसान-मजदूरों के लड़के हैं जो मामुली तनख्वाह पर जान लेने-देने की नौकरी करते हैं. जरूरत जंगखोरी के खिलाफ अमन-चैन के मोर्चे की है. कमेंट लंबा हो ही गया तो हबीब जालिब के शेर से खत्म करूं. "न मेरा घर है खतरे में, न तेरा घर है खतरे में/वतन को कुछ नहीं खतरा, निज़ाम-ए-जर है खतरे में".
अंत में आग्रह -- देद्रोह की सनद बांटने की बहती गंगा में हाथ धोने की बजाय मेरी बातें गंभीरता से पढ़ना.

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