पुनश्च 2:
मेरा और
अरुण (हैदराबाद में सुना है किसी कॉलेज/विवि में प्रोफेसर हो गया था) के निष्कासन
सबसे बाद में हुए. हम दोनों ने पहले 2 जांच आयोगों का बहिष्कार किया था लेकिन
तीसरी बार जब नोटिस मिला कि न हादिर होने से एकतरफा कार्वाई की जाएगी. हम ने सोचा
जांच के बाद निष्कासित होने और जांच की मान्यता के साथ निष्कासित होने में महज
तकनीकी फर्क़ था, तो सोचा इस बहाने दिल की कुछ भंड़ास ही निकल जाएगा. के बाद पता चला कि ‘अच्छे चाल-चलन’ के आधार पर
त्तकालीन छात्रसंघ के अध्यक्ष समेत 3 लोगों का निष्कासन वापस हो गया और वे पंजीकृत
छात्र हो गए. कुछ पोस्टर-वोस्टर लगाने; नाटक-साटक करने; जुलूसों वगैरह में जाने
जैसे पुनीत जनतांत्रिक कृत्यों-कुकृत्यों के अलावा हमारा चाल-चलन भी बहुत अच्छा
था. जिन प्रोफेसरों को पसंद नहीं करते थे उनसे भी अभिवादन करते थे. निष्कासन के
बाद भी परिसर में ही रहता था, पहले अजय मिश्र के कमरे में उनके आईयस बन जाने के
बाद सतलज के उसी फ्लोर पर अक़ील के कमरे में अड्डा जमता था. अक़ील गालिब अकेडमी का
सचिव है. लेकिन स्थाई अतिथि की रवायत तो परिसरों का स्थाई भाव रहा है, इसलिए इसकी
अवैधता महज कानूनी थी. बाद में फ्लैट किराए पर लेने के बाद भी ज्यादातर समय जेयनयू
में ही बीतता था. वह तो हमारा घर-देश था. मैं तो आपातकाल में भूमिगत अस्तित्व की
तलाश में किसी इलाहाबाद के सीनियर (डीपी त्रिपाठी) को खोजते जेयनयू पहुंचा, जेल
में होने के नाते वे तो मिले नहीं इलाहाबाद विवि
के एक अपरिचित सीनियर (सुल्तानपुर के रमाशंकर सिंह) मिल गए, जिनके साथ
रहने का जुगाड़ हो गया. उस समय की बहुत सुखद स्मृतियां हैं, जिन पर अलग से लिखूंगा.
लंबे
पुटनोट की बुरी आदत मुद्दे से भटका देती है, लेकिन हर भटकाव शायद बुरा नहीं होता.
खैर आंदोलनकारी छात्रसंघ समेत 3 निष्कासित लोगों की वापसी से प्रोत्साहित मैंने
सोचा मैं भी प्रयास करूं क्योंकि मेरा पढ़ने का काम पूरा हो चुका था, लिखने की भी
शुरुआत लगभग कर चुका था. प्रो. रशीदुद्दीन खान सीपीयस (सेंटर फॉर पोलिटिकल स्टडीज)
चेयरपरसन थे. एक बात तब तक थी जेयनयू के प्रोफेसरों और प्रशासकों से मिलना मुश्किल
नहीं था. रशीद साहब कांग्रेस सरकार द्वारा मनोनीत राज्य सभा सदस्य थे लेकिन क्लास
के प्रति प्रतिबद्ध. थोड़ा तुतलाते थे लेकिन पढ़ाते बहुत ही अच्छा थे. राजनैतिक
मतभेदों तथा कई मुद्दों पर विरोध के बावजूद एक बेहतरीन इंसान तथा एक बहुत अच्छे
टीचर के रूप में मैं उनका प्रशंसक रहा हूं. मेरे गाइड प्रो. के शेशाद्री और भी बेहतरीन इंसान थे. खैर,
सोसलसाइंस के कई सेंटर नए (ऊपर) परिसर में चले गए थे, सीपीयस समेत कई सेंटर पुराने
(नीचे) परिसर में ही थे. प्रशासनिक भवन भी तब तक ऊपर नहीं शिफ्ट हुआ था. लाइब्रेरी
का भी कुछ हिस्सा अभी नीचे ही था. लाइब्रेरी कैंटीन में चाय पीते हुए रशीद साहब से
मिलने का मन हुआ. चला गया उनके कमरे में, उठकर हाथ मिलाया और बैठने को कहा. आधे
घंटे हमलोग राजनीति और धर्मनिरपेक्षता समेत कई सामाजिक सरोकारों पर बात करते रहे.
मौका ‘वाज़िब’ देख मैंने सेंटर में 2 निष्कासित लोगों (वापसी वाले तीसरे सज्जन
अन्य स्कूल के थे और अब जेयनयू में प्रो. हैं) की वापसी का ज़िक्र कर अपनी बात कर
दी. बाप-रे! मैं तो सोचता था रशीद साहब को गुस्सा ही नहीं आता. अचानक परिवर्तन से
मैं किंकर्तव्य विमूढ़ सा हो गया. गुस्से में बोले, “You are not
supposed to be even around. Instead of expressing regret of your misdeeds of
agitation, you have audacity to issue a counter show-cause notice to VC”. मैंने इसके बावजूद
मुधसे मिलने के उनके बड़प्पन का शुक्रिया अदा कर वहां से चला गया. वह प्रो.
रशीदुद्दीन खान से आखिरी, मुलाकात थी.
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