बिच्छू के मंत्र के अनुभव की अपनी एक पोस्ट पर निम्न कमेंट लिखा गया सोचा शेयर कर दूं.
मैं उस समय 6-7 साल का था. मैंने एक-दो बार पिता जी को मंत्र प्रयोग करते ध्यान से देखा और जमीन पर राख पर लाइन खींचकर लिखे दो शब्दों को पढ़ सका. हथेली पर भी, सोचा, वही लिखा होगा. मन-ही-मन कुछ मंत्र भी पढ़ते थे. मंत्र बुबुदाने की अवधि में निरंतरता बनाए रखने के लिए मैं गायत्री मंत्र बुबुदाता था. पहली कामयाबी के बाद अपने आप सिद्ध हो गया. मेरा तो मेडिकल ज्ञान शून्य है लेकिन मुझे लगता है जैसा ऊपर मैंने लिखा है, मंत्र शायद आस्थावान को कुछ मनोवैज्ञानिक राहत देता होगा, जिससे दर्द का एहसास कमता होगा, उसी तरह जैसे मार्क्स ने धर्म के बारे में कहा है कि यह पीड़ित का सुकूं है जो उम्मीद की खुशफहमी देता है. चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में, लोग मंत्र-तंत्र में इलाज खोजते हैं उसी तरह जैसे सचमुच की खुशहाली के अभाव में लोग उसे धर्म में खोजते हैं. यदि लोगों को समुचित चिकित्सा सुविधा उपलब्ध हो तो मंत्र-तंत्र स्वतः अनावश्यक हो जाएगा और परिणाम स्वरूप निरर्थक, उसी तरह जिसतरह यदि लोगों को सचमुच की खुशहाली मिलेगी तो धर्म अनावश्यक हो जाएगा और अपने-आप खत्म हो जाएगा. इस लिए हमारा संघर्ष धर्म के विरुद्ध नहीं उन ताकतों के विरुद्ध होना चाहिए जो लोगों की बदहाली के श्रोत हैं. आज, नवउदारवादी युग में,बदहाली की सभी नदियों का श्रोत है साम्राज्यवादी भूमंडलीय पूंजी. राष्ट्रवाद इन नदियों के प्रवाह की निरंतरता का उपकरण है और राष्ट्रोंमाद लोगों की बदहाली से ध्यान हटाने की रणनीति. हमारे मुल्क में तो कॉरपोरेटी पूंजी और ब्राह्मणवाद (धर्म) का लंगोटिया यारों सा गठबंधन है. हमला संयुक्त है, संघर्ष भी संयुक्त होना चाहिए. छात्रों ने जयभीम-लालसलाम नारों की प्रतीकात्मक एकता से संघर्ष की एकता का पथ प्रशस्त किया है, प्रतीक को जीवंत बनाने की जरूरत है.
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