Sunday, January 27, 2013

दर्द-ए-गम



समझा ही ही नहीं दर्द-ए-गम को दर्द हमने
मशगूल रहे इतने जंग-ए-आज़ादी के  जूनून में
अंधेरों ने की घेरने की कोशिस कई  बार
सीने में धधकती आग से किया उसका प्रतिकार
ज़ुल्मतों का दौर चलता है तब तक
ज़ालिम से लोग डरते हैं जब तक
बंद कर दे ज़ालिम से डरना जो आवाम
ज़ालिम का जीना हो जाए हराम
चलता हूँ हटकर लीक से रास्ते पर नए
तकलीफों का आनंद लेते हुए
मिलती है  ताकत इतनी इससे
डरता नहीं कभी भूत से न भगवान से
[ईमि/27.02.2013]

2 comments:

  1. ज़ुल्मतों का दौर चलता है तब तक
    ज़ालिम से लोग डरते हैं जब तक

    बहुत सुन्दर विचार | आभार

    Tamasha-E-Zindagi
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