Saturday, January 5, 2013

लल्ला पुराण ५६

इंसान की सोच रगों में खून से नहीं, सामाजीकरण और दिमाग के विवेकपूर्ण इस्तेमाल से बनती है. कहाँ आप पैदा हो गए वह एक जीववैज्ञानिक दुर्घटना का परिणाम है, इसमें न तो गर्व करने की बात है न ही शर्म की. जो लोग इस दुर्घना-जन्य अस्मिता से नहीं निकल पाते वे अपने विवेक और अंतरात्मा को जडी-भूत कर देते हैं, उनकी द्वाद्वात्मक एकता के संतुलन से मानवीय मूल्यों के निर्माण की तो बात ही छोडिये. मैं विवेकपूर्ण मानव हित और बिना-भेद भाव की सामासिक संस्कृति के नैतिकता में निष्ठा रखता हूँ, और मनुष्यों को खानों में बांटने वाली; धर्मोन्माद फैला कर नफरत की फसल उगाकर चुनावी अवसरवादिता की अनैतिकता का घोर दुश्मन. क्योंकि मुल्क को तोड़ने वाली यह अनैतिकता देशद्रोही ब्रिगेड का आधार प्रदान करती है. यही ब्रिगेड फैजाबाद में दुकानें जलाता है और इंसान. इसी  अनैतिकता के फासीवादे लम्पट-ब्रिगेड ने गुजरात में दर्जनों सार्वजनिक-सामूहिक बलात्कार आयोजित किये और गर्भवती महिलाओं  के गर्भ फाड़ कर हवन किया. मेरा विरोध इस देशद्रोही अनैतिकता से है.

Jugul Kishore Tiwaree, मेरे सवालों पर प्रतिक्रया दीजिए, उपदेश नहीं. मैं भी उन्ही उपदेशों और प्रवचनों के फरेबी माहौल में पला-बढ़ा हूँ. हिटलर के अनुयाई संघियों को अंदर-बाहर से अच्छी तरह जनता हूँ. आज़ादी के परवाने फतवों से नहीं डरते, नहीं डरते वे भगवान से न भूत से. बिना फतवे जारी किये ही आपलोग(संघी) साम्राज्यवादियों के तो तलवे चाटते हैं और गरीबों, आदिवासियों अल्पसंख्यकों का संहार करके देश में उन्माद फैलाते हैं. आपको अफ़सोस है कि सनातन धर्म में फतवे की व्यवस्था नहीं है. मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि आप जिस सनातन धर्म की बात कर रहे हैं वह क्या है? आप जानते ही नहीं. संघी रटंत परम्परा में जो सुना, बोल दिया. मैं आपको चुनौती देता हूँ की आप सनातन धर्म की एक संक्षिप्त परिभाषा बता दें.

Vikas Singh मेरी कोइ निजी चोट नहीं है, चोट तो फिरकापरस्ती मुल्क और मुल्क के आवाम पर करती है. मैं अंदरखाने की बातें इसलिए जानता हूँ कि १७ साल की उम्र में इलाहाबाद विवि में मैंने राजनैतिक यात्रा विद्यार्थी परिषद से शुरू किया था, वह भी तब जब मैं प्रामाणिक नास्तिक बन चुका था. अब पून्छेगे कि क्यों? विस्तार से फिर कभी बताऊँगा, अभे जो सबको मजाक में कहता हूँ वही बता रहा हूँ. "क्योंकि विज्ञानं का विद्यार्थी था और आम,तौर पर, विज्ञानं के विद्यार्थियों की सामाजिक समझ, दुर्भाग्य से, अत्यंत अवैज्ञानिक होती है." श्गुक्रिया कि आप ४०% सहमत हैओं. असहमति के ६०% का जिक्र करते तो सार्थक विमर्श हो सकता था. "विज्ञान का विद्यार्थी था" और सवाल करने की आदत. जल्दी ही जहालत के गड्ढे से निकल आया.

मित्र, मेरी तो कोइ चोट नहीं है, आप किस चोट के इलाज़ के बात कर रहे हैं. जे हाँ, ज्यादातार विज्ञान के विद्यार्थी अपने सोच में पोंगापंथी और अवैज्ञानिक होते हैं. यह विज्ञान के साथ एक त्रासदी है. विज्ञान के जो विद्यार्थी वैज्ञानिक तेवर भी अर्जित कर पाते हैं वे प्लेटो; गैलेलियो; आइन्स्टाइन और रसेल बन जाते हैं, नहीं तो पोंगापंथी मुरली मनोहर जोशी. क्षमा कीजियेगा, शायद आबं वैज्ञानिक तेवर भी अर्जित कर लिया होगा त्यों छोड़ दिए होंगे, नहीं तो ५ साल कोइ सोचने-समझने वाला व्यक्ति ५ साल तक संघी प्रपंच में अवैज्ञानिक हर्क़तें कर सकता है?

Vikas Singh मेरी तो कोई मनोवैज्ञानिक समस्या नहीं है आपकी लगती है. मैंने तथ्यों के साथ कुछ बातें किया है, उसपर तो कहने को आपके पास कुछ है नहीं. न् ही आपने बताया कि मेरी किन ४०% बातों से सहमत हैं और क्यों? और किन ६०% से असहमत हैं, और क्यों? बिना तथ्यों तर्कों के संघी/भागवती शैली में प्रलाप किये जा रहे हैं. त्रासदी यह है कि विज्ञान का ज्ञान इस तरह दिया जाता है कि ज्यादातर विद्यार्थियों की सोच अवैज्ञानिक और पोंगा पंथी बनी रहती है. त्रासदी यही है. अब ज़रा सोचिये कोई "भौतिकशास्त्री" ३ फुट लंबा त्रिपुंड लगाकर घूमे और किसी बाल्टी बाबा को ६ पैर की बकरी तलाशने का ठेका दे क्योंकि किसी ज्योतिषी ने उसे बताया हो कि इससे वह प्रधानमंत्री बन सकता है. तो यह विज्ञान की त्रासदी है जो कारण-करण से परे किसी चीज का संज्ञान नहीं लेता; जो ऐसी किसी चीज को खारिज कारता है जिसकी कोई भौतिकता न् हो. ताज्जुब नहीं कि जमात-ए-इस्लामी/म,उस्लिम लीग और आरआरएस/हिंदू महासभा जैसे पोंगा पंथी फिरकापरस्त संगठनों के ज्यादातर बड़े नेता विज्ञान के विद्यार्थी रहे है. गोलवलकर वनस्पति शास्त्र का तो मौदूदी रसायन शास्त्र का. लेकिन विज्ञान के जो विद्यार्थी विज्ञान के दर्शन  को आत्मसात कर लेते वहीं, हैं वे दार्शनिक-वैज्ञानिक बन जाते हैं, जैसे आइन्स्टाइन.

[इलाहाबाद विश्व विद्यालय के विजयानगरम हाल की एक तस्वीर देख कर मैंने like करके  nostalgic लिख दिया 'विज्ञान के एक परास्नातक' ने, जिसे नास्तेजिया का अर्थ नहीं मालुम था, कोइ बुरी बात समझकर, मुझे भला बुरा कहकर, मनोचिकित्सक के पास जाने की सलाह देने लगा, उसे मेरा जवाब]
Vikas Singh फादर कामुल बुल्के का शब्दकोष देखें. चिकित्सा की जरूरत तो आप जैसे प्रलाप करने वालों को है. संघियों को पढ़ने-लिखने  की आदत तो होती नहीं, नाजी हाफपैंट पहनते पहनातेद बात की मूल-भूत त तमीज़ भी नहीं होती. यही है संघी भारतीय संस्कार? कई लोगों के बारे में शक होता है कि वे कभी पढाई भी किये हैं कि प्रोफेसरों की सब्जी लाकर डिग्री ले लिए हैं. मैंने विमर्श के लिए कुछ महत्त्व पूर्ण मुद्दे उठाये.  मेरे कुछ कमेंट्स पर अपने कहा ४०% सहमत हैं आपने बताया नहीं कि किन बिंदुओं पर सहमत असहमत हैं? इसीलिये कहता हूँ कि ज्यादातर विज्ञान वालों  की सामाजिक समझ दकियानूसी होते है, पढते सोचते नहीं, बस लफ्फाजी करते हैं.

अपने संघी संस्कार तो आप दिखा रहे हैं. दम है तो मे३रेक सवालों का जवाब दीजियेद. गोलवलकर हिटलर के अनुसरन का हिमायाक्ती था कि नहीं? उसकी दकियानूसी किताब we OR our nation defined (1939) जिसमें उसने हित्लास्र के अनुसरण के साथ एक मौलिक भूवैज्ञानिक तथ्य उजागर कलिया कि प्राचीन काल में उत्तरी ध्रुव बिहार और उड़ीसा में था. संघियों की जहालत की हालत यह है कि वे अपने "विचार -पुरुषों' कजो भी नहीं पढते और आप; जैसे तहजीब और तमीज्क वाले रणबांकुरे तैयार करते हैं. आ[प तो बहुत बेईमान और क्क्स्हरित्र्हीं हैं कि बिना सोचे-सम्ज्खे किसी की बा`त रोकने के लिए सहमति जाहिरत कर देते हैं. संघी  लफ्फाजों की नैतिकता ऐसी ही होती है.दिमाग मिला हसी उसे ताख पर मत रखिये, थोड़ा इस्तेमाल भी कीजिये. वैसे मेरे बारे में आप अपने पुरोधाओं, राम किशोर शास्त्री/नरेंद्र सिंह गौड़/ मुरली मनोहर जोशी आदि से मालूम कर सकते हैं. और आपको वाकई इलाज़ की आवश्यकता है.

अगर बलात्कार का बचाव करने वाले जहालत की खान, मर्दवादी ब्राह्मणवादी सामंतवाद के मुखर प्रवक्ता, अपने विहिप -बजरंगदल के लम्पट ब्रिगेडों द्वारा सामूहिक बलात्कार के प्रायोजक, भगवा ब्रिगेड के ध्वज-वाहक, मोहन भागवत इस सनातन संस्कृति के प्रतिनिधि हैं, तो मै थूकता हूँ इस सनातान संस्कृति पर. वैसे किसने बताया आप को कि सब मतों का सम्मान करने वाली संस्कृति सनातन संस्कृति है? घोर अमानवीय ,मर्दवादी-ब्राह्मणवादी,  मनुवादी संस्कृति ही सनातन संस्कृति है जो अपनी आबादी के विशाल हिस्से को जानवरों से भी बदतर अछूत मानती है और औरतों के लिए "लक्ष्मण रेखाएं"  खींचकर बलत्कृत को ही बलात्कार की जिम्मेदार बताने वाली संस्कृति ही सनातन संस्कृति है. इसके अलावा कुछ हो तो बताएं?

शिवानन्द द्विवेदी सहर:  गुस्से पर कुतर्क का एकाधिकार है क्या? मुझे टॉप इस बात पर भी गुस्सा आता है कि लोगों को गुस्सा वाली बातों पर गुस्सा क्यों नहीं आता? घृणा और विरोध में फर्क है. जिस चीज से इंसान घृणा करता है उससे बच कर निकल जाता है और जिससे विरोध होता है उसे नेस्त-नाबूद करने की कोशिस करता है. मर्दवाद का मैं विरोधी हूँ. अप सही फरमा  रहे हैं कि यह कूड़ा औद्योगिक फैकट्री में नहीं तैयार होता घर-समुदाय की सामजिक फैक्ट्री में तैयार होता है. मर्दवाद न त्यों कोइ जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति है न ही कोइ साश्वत विचार. मर्दवाद विचार नहीं एक विचार नहेरें विचारधारा है जिसे हम अपनी रोजमर्रा की ज़िंदगी में निर्माण-पुनर्निर्माण करते हैं, जैसा कि आप के इस ओछे व्यंग्य से हो रहा है. विचारधारा एक मिथ्या-चेतना है जो एक खास संरचना को अंतिम सत्य के रूप में पेश करता है. विचारधारा वर्चस्व का सबसे प्रभावी हथियार है. आपका व्यंग्य सामंती-मर्दवादी विचारधारा का वाहक है.

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