वानप्रस्थ
प्रख्यात इतिहासकार रोमिला थापर को
अपमानित करने के मकसद से जेएनयू प्रशासन द्वारा सीवी मांगने के विवाद पर मेरी एर
पोस्ट पर किसी ने लिखा, "उनका मजाक CV मांगने वाले नही बना रहे ये खुद बना रही है। 85 की उम्र वानप्रस्थ की है ना कि स्वघोषित ज्ञानियो मे बैठकर सुरापान
की।"
मैंने जवाब दिया कि संवेदना की
अमानवीय क्रूरता हमारी वर्णाश्रम संस्कृति में ही है। वर्ण व्यवस्था की क्रूरता पर
काफी चर्चा होती है, आश्रम-व्यवस्था की क्रूरता पर कम
चर्चा होती है। गृहस्थ आश्रम तक धर्म-अर्थ-काम का जीवन जीने के बाद बुजुर्गी में
सन्यास -- सुख-सुविधा से वंचित होकर परिवार की सेवा। बुढ़ापे में काम-धाम की ऊर्जा
खत्म हो जाए तथा जब देख-रेख की जरूरत होती है, तब वानप्रस्थ। जब श्रम मे अक्षम अनुपयोगी वृद्ध को लात मार कर जंगल
में भगा दो। वृद्धाश्रम वानप्रस्थ के आधुनिक संस्करण हैं।
इस पर कई लोग आध्यात्मिक-दार्शनिक
तर्कों से वानप्रस्थ का औचित्य साबित करने जुट गए, उस पर एक कमेंट:
बुढ़ापे में जब खुद देख-भाल की
जरूरत होती है उस समय जंगल में कौन सा अध्यात्म प्राप्त करने भेज दिया जाता है? क्रूरताओं को आध्यात्मिक रंग देना आजमाई साजिश है। आज के
वृद्धाश्रम आधुनिक वानप्रस्थ की मिशालें हैं। गीता की स्थितिपज्ञ अवधारणा क्या है? मेरे एक परिचित दिल्ली में वृद्धाश्रम में रहते हैं, कभी कभी जाता हूं, ज्यादातर रिटायर
लोग हैं, उनसे बातचीत में बानप्रस्थ की
असलियत समझ में आती है। ज्यादातर के बेटा-बेटी ठीक-ठाक स्थिति में हैं, जीवन की व्यस्तताओं में उनके पास मां-बाप की देखभाल का वक्त नहीं
है। आजीवन आध्यात्मिक सेवा न करने वाले बुढ़ापे की अजलस्ती में जब खुद को सेवा की
जरूरत हो तो जंगल से समाज की क्या आध्यात्मिक सेवा करेंगे? जो कुछ भी पुरातन है उसे पवित्र मानने की अधोगामीप्रवृत्ति घातक
है।
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