बेबसी का अपमान
मैं तो अपने हिंदी मीडियम के विद्यार्थियों को अंग्रेैजी पढ़ने के लिए इसलिए प्रोत्साहित करता था कि हिंदी में बहुत कम किताबें हैं, जो हैं भी कुंजीटाइप या ऐसे अनुवाद जिन्हें समझना अंग्रेजी मूल से भी मुश्किल है। इंटर में हमारे कॉलेज में पढ़ाई हिंदी मीडियम में होती थी लेकिन मैं परीक्षा अंग्रेजी मीडियम में देता था। गणित, भौतिकी और रसायन की अच्छी किताबें मिल जातीं थी। रिश्तेदारों और मित्रों में खोजता था कि अंग्रेजी में पत्र किसे लिखा जा सके। दसवीं क्लास में अंग्रेजी बोलने का महत्व मुझे एक निजी अपमान की घटना से समझ आया। 13 साल का था, तथा दुबले-पतले लड़के अपनी उम्र से भी कम लगते हैं। जौनपुर पढ़ता था, एक शनिवार शाम को 5.35 वाली ट्रेन (लखनऊ-मुगलसराय पैसेंजर) छूट गयी। अक्सर देर से आती थी उस दिन कुछ मिनट देर से पहुंचा तो समय पर आ गयी। पैसेंजर से बिलवाई जाता था तथा वहां से 7 मील पैदल घर जाता था। काफी दूर तक बनारस-जौनपुर से आने वाले साप्ताहिक यात्रियों का साथ रहता, 3-4 किमी निर्जन रास्ता अकेले जाना पड़ता था। एक रास्ता भुलाने वाले सम्मानित भूत बाबा रास्ते में पड़ते थे लेकिन मुझे उनसे डर नहीं लगता था। उनको चुनौती देता था लेकिन वे कभी मुझे रास्ता न भुला पाए। खैर फुटनोट का विषयांतर लंबा हो गया। वापस हॉस्टल जाकर सुबह 5.35 की गाड़ी पकड़ना बेहतर रहता। लेकिन मुझे कुछ समय बाद एक मेल ट्रेन मिल गयी और मैं शाहगंज जंक्सन आ गया। वह मूर्खतापूर्ण फैसला था, एकाध बार पहले भी ऐसा कर चुका था। आलू-पूड़ी खाकर रात प्लेटफॉर्म पर बिताकर सुबह की ट्रेन से बिलवाई गया था। उससरात मैं वहीं रात भर खड़ी रहने वाली आजमगढ़ जाने वाली छोटी लाइन की गाड़ी में सो गया कि सुबह उसके छूटने के पहले उठ जाऊंगा। सुबह भोर में लोग जब चढ़ने लगे तो मैं उठकर उतरने लगा। एक ने पूछा मैं कहां जाऊंगा तो मैंने बता दिया, मैं उस ट्रेन से नहीं जाऊंगा, दूसरी ट्रेन से जाऊंगा। उस हरामजादे ने कहा 'जेब कतरे ऐसे ही होते हैं' और एक चांटा मार दिया, लोग भी उसकी तरफ से बोलने लगे, असहाय हालत का अपमान ऐसा लगा कि मैं उसे गुस्से में अंग्रेजी में गालियां देने लगा और एकाएक जनमत मेरी तरफ हो गया कि 'पढ़ा-लिखा. अच्छे घर' का लड़का है, मैं अंग्रेजी में गाली देता ही रहा, वह गायब हो गया, बहुत दिनों तक उसकी शकल मुझे याद थी। वह अपमान मैं बहुत दिनों तक नहीं भूल पाया। तबसे गुस्से में अपने आप अंग्रेजी बोलने लगता था। सोचिए एक 30-40 साल का आदमी एक 13 साल के लड़के पर बहादुरी दिखाने लगा।
50-51 साल पुरानी बात हो गयी। तब शाहगंज से पवई के लिए सार्वजनिक वाहन केवल इक्का होता था। पवई के अली और हमारे गांव के दुधई यादव के ही इक्के होते थे, जो 4-5 बजे के बीच शाहगंज से चल पड़ते थे। ये नहीं मिले तो बिलवाई तक पैसेंजर, वहां से 7 मील पैदल। वह भी न मिली तो रात स्टेसन पर बिताकर सुबह पैसेंजर का ही सहारा था। यह वैसी ही स्टेसन पर बितायी जाने वाली एक रात थी। बाद में महराजगंज से शाहगंज (माहुल-पवई होते हुए) पन्नू सिंह की खटारा बस चलने लगी। वह भी 5 बजे तक चली जाती थी।
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