मेरा बचपन एक तरह से पूर्व-आधुनिक (pre-modern) जातिवादी, सामंती सांस्कृतिक माहौल में बीता। मेरे बाबा (दादा जी) कट्टर कर्मकांडी तथा पंचांग के विद्वान की छवि वाले नामी व्यक्ति थे। पिताजी इलाके के नामी-गिरामी आदमी थे। बचपन से ही ठाकुर-भूमिहार समेत सभी जातियों के बुजुर्ग तक चरणस्पर्श या पांव लागी कहकर प्रणाम करते थे। हलवाहे काम के बाद अपने घर चले जाते थे, एक सिरवार (पशुओं को खिलाने-पिलाने तथा अन्य काम करने वाले) और एक चरवाहा दिन-रात रहते थे। शाम को नीम के नीचे पिताजी का दरबार लगता था, एक नाई (पाल भाई) ठंडाई रगड़ते थे बाकी सेवा के लिए एक कहांर (भगवानदास बाबा) रहतेे थे। मेरे पिताजी गप्पें हांकने और भूत-प्रेत-चुडैलों से संवाद और मुठभेड़ की कल्पित कहानियां-किस्सों के शौकीन थे। मध्यवर्ती जातियों के उनके अमीर मित्र भी जातीय श्रेणीक्रम में उनके चेलों सा ही व्यवहार करते थे। विषयांतर हो गया, कहना यह चाहता हूं कि मेरा बचपन ब्राह्मणीय श्रेष्ठताबोध के साथ बीता, पढ़ने में तेज छात्र की छवि ने इस श्रेष्ठताबोध में खाद-पानी का काम किया। 10 वर्ष की उम्र में कोई ऐसी घटना हुई कि मेरा श्रेष्ठताबोध डिग गया। वह मेरे जीवन में एक परिवर्तनकारी मोड़ (टर्निंग प्वाइंट) साबित हुआ। उस घटना का जिक्र कभी फिर करूंगा। उसने मुझे और मेरे श्रेष्ठताबोध को झकझोर दिया। 12 साल की उम्र में एक छोटे से शहर जौनपुर पढ़ने चला गया। हाई स्कूल इंटर की विज्ञान की पढ़ाई के बाद 17 साल की उम्र में मैं जब इलाहाबाद आया तो लगता था कि जात-पांत का मामला गांव के अपढ़ लोगों तक सीमित है। इलाहाबाद में पहला कल्चरल शॉक यह देखकर लगा की प्रोफेसरों की लामबंदी (गिरोह-बाजी) जातीय आधार पर है। कायस्थ लॉबी और ब्राह्मण लॉबी। कायस्थ लॉबी के नेता भौतिकशास्त्र के प्रोफेसर कृष्णा जी थे तथा ब्राह्मण लॉबी के नेता इतिहास के जीरआर शर्मा और भौतिकशास्त्र के युवा प्रोफेसर मुरली मनोहर जोशी थे। कायस्थ वीसी आता तो रजिस्ट्रार, डीन आदि कायस्थ होते और ब्राह्मण वीसी आता तो ब्राह्मण। दोनों के पास विद्यार्थियों के अपने अपने गिरोह थे।
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