मैं शिक्षक क्यों बना?
ईश मिश्र
'शिक्षक-दिवस' की एक फेसबुक
पोस्ट पर चर्चाओं का निष्कर्ष यह था कि शिक्षक होना कम लोगों की पहली वरीयता नहीं
होती। 20-21 साल में मैंने नौकरी की अपनी
प्राथमिकता तय कर लिया था। मैं हमेशा शिक्षक ही बनना चाहता था। दूसरे वरीयता-क्रम
कोई नौकरी नहीं थी। शिक्षक की नौकरी की तलाश करते हुए पत्रकारिता या शोध संस्थानों
में एकाध स्टॉप-गैप नौकरियां किया वरना ज्यादा समय बौद्धिक श्रम (कलम की मजदूरी)
से ही घर चलाया। इवि में पढ़ाई की दूसरी साल, 18 साल की उम्र में भावुकता में पिता जी से आर्थिक संबंध विच्छेद के बाद, गणित के ट्यूसन से काम चलने लगा, दिल्ली के शुरुआती सालों में भी। मुझे लगता है कि यदि आपको गणित
आता है तो किसी भी शहर में भूखो नहीं मर सकते। जिस किसी के स्कूल जाता बच्चा है, सबको गणित का ट्यूटर चाहिए। उसे भी मैं अपने शिक्षक-जीवन का ही
हिस्सा मानता हूं। खैर ये अनुभव फिर में कभी, विषय पर वापस आते हैं, मैं शिक्षक क्यों बना?
एक बार मेरी एक स्टूडेंट ने पहली ही क्लास में मुझे चौंका दिया? परिचय-सत्र खत्म होते ही उसने तड़ाक से पूछा, 'आप शिक्षक क्यों बने?' ('Why did you become a
teacher?') मुझे इस सवाल के पीछे 2 पाइकताएं (प्रोबेबिलिटीज) पो सकती हैं। एक तो यह कि अपनी सीनियरों से सुनकर मेरे बारे में
प्रतिकूल धारणाएं हो और अफशोस हो कि मुझसे ही पढ़ना पड़ेगा। दूसरी यह कि किसी
बेहतर (आईएएस टाइप) की संभावनाएं तलाशने की बजाय मैं शिक्षक बन गए? खैर उसने जिस भी कारण से पूछा हो मैंने अपना कारण बताया। बहुत
जल्दी वह मेरी बहुत प्रिय विद्यार्थी-मित्र बन गयी। कैंपस में जनहस्तक्षेप-स्टडी
सर्कल का दारोमदार उसी पर था। धरना-प्रदर्शनों में भी जाने लगी। अभी भी हम संपर्क
में रहते हैं।
1974-75 में
इलाहाबाद में दीवारों पर, सत्तर के दशक के मुक्ति का दशक होने के नारे लिखते-लिखते
सचमुच लगने लगा था कि क्रांति चौराहे पर है और जल्दी ही देश में समाजवाद आ जाएगा।
समाजवाद क्या होता है? ठीक से पता नहीं था। पीपीएच से दो आने-चार आने की कुछ
किताबें पढ़ा था उनसे तथा गोष्ठियों वगैरह से एक शोषणविहीन समाज की धुंधली सी छवि
थी जिसमें कोई भूखा नहीं होगा, न कोई राजा होगा, न रंक। हमारी
खुशफहमियां और उम्मीदें निराधार नहीं थीं। चीनी क्रांति, अमेरिका में नागरिक अधिकार आंदोलन, क्यूबा, फ्रांस
में छात्रों की 'मई क्रांति' 1960 के दशक में यूरोप के विभिन्न देशों में
क्रांतिकारी उफान, नक्सलबाड़ी, वियतनाम में अमेरिकी पराजय, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन सब अच्छे संकेतक थे। इस दौरान मैं
भूल ही गया था कि 17 की उम्र में 1972 में, इंटर की परीक्षा के बाद ही मेरी शादी हो
चुकी थी, पत्नी को देखा नहीं था। देखते-देखते लगभग 3 साल हो गए और 1975 में मेरा
गौना आ गया और शादीशुदा होने की भूली बात याद आ गयी। शादी का फैसला तो मेरा नहीं
था लेकिन मैं सफल विद्रोह नहीं कर पाया और शादी निभाने का फैसला मेरा था। आश्चर्य
होता है उस समय के अपनी सामाजिक चेतना के स्तर पर। मुझे लगा कि यदि मेरी मर्जी से
नहीं हुई है तो उनकी भी मर्जी से नहीं हुई है। और किसी सामाजिक कुरीत से दो लोग
पीड़ित हों तो एक सह-पीड़ित (कोविक्टिम) को दूसरे सहपीड़ित को और पीड़ित नहीं करना
चाहिए। पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री ज्यादा पीड़ित है। उस समय गांव के प्राइमरी
स्कूल से आगे लड़कियों को पढ़ाने का रिवाज नहीं था। मैंने जेएनयू में हॉस्टल में
रहते हुए अपनी विवाहित-स्थिति सबको बता रखा था, कई सोचते थे ऐसे ही गोली दे रहा
हूं। आपातकाल में स्पष्ट हो गया कि क्रांति चौराहे पर नहीं है। तो नौकरी तो करना
ही पड़ेगा। 9 से 5 की नौकरियां मुझे अरुचिकर लगती थीं, केंद्रीय या प्रादेशिक
प्रशासनिक नौकरियों में कोई रुचि नहीं थी। वैसे भी राज्य के दमन-तंत्र (coercive apparatus) का
हिस्सा बनने की बात सोच भी नहीं सकता था। क्या-क्य नहीं करते हुए पाया कि शिक्षककी
ही नौकरी कर सकता हूं जिसमें सापेक्ष स्वतंत्रता रहती है।
मैंने
जवाब दिया “पूंजीवाद में, लेनिन की शब्दावली में प्रोफेसनल क्रांति कारियों
(पूर्णकालिक ऐक्टिविस्ट) और पूंजीपति को छोड़कर हम सब आजीविका के लिए एलीनेटेड
श्रम करने को अभिशप्त हैं। पूंजीपति अलग ढंग का एलीनेटेड श्रम करता है वह हमारे
सरोकार का विषय नहीं है। पूंजीवाद श्रमिक को श्रम के साधनों से मुक्त कर देता है
और वह उसे (पूंजीपति को) श्रमशक्ति बेचने को बाध्य होता है श्रम के साधनों पर
जिसका अधिकार होता है। अध्यापन एक ऐसी नौकरी है जिसमें एलीनेसन कम किया जा सकता
है। खत्म नहीं किया जा सकता क्योंकि एलीनेसन पूंजीवाद का नीतिगत दोष नहीं है, इसकी
अंर्निहित प्रवृत्ति है। एलीनेसन की समाप्ति पूंजीवाद की समाप्ति के साथ ही हो
सकती है। इसके अलावा इसे (अध्यापन को) अंशतः एक्टिविज्म की भरपाई के रूप में किया
जा सकता है, शिक्षक यदि शिक्षक होने का महत्व समझे तो विद्यार्थियों पर तथा समाज
पर दूरगामी सकारात्मक प्रभाव डाल सकता है”। ‘शासक वर्ग के विचार शासक विचार भी
होते हैं’। (मार्क्स-एंगेल्स, जर्मन विचारधारा) पूंजीवाद माल के साथ
विचारों का भी उत्पादन करता है , शिक्षा राज्य का सबसे महत्वपूर्ण वैचारिक तंत्र
है। इसीलिए हिंदुत्व की अधिनायकवादी ताकतें सत्ता में आते ही उच्च शिक्षा की
सुचिता विकृत करने पर तुल गयी। शिक्षक न तो वफादार सिपाही होता है न ही नौकरशाही
मशीनरी का पुर्जा, जैसा कि नई शिक्षा नीति उसे बनाना चाहती है। शिक्षक एक कवि,
दार्शनिक तथा विचारों में विचरम करने वाला सामाजिक कार्यकर्ता होता है जो
विद्यार्थियों को सवाल करना सिखाता है जिससे वे तर्कशील, निर्भीक नागरिक बन सकें।
मौजूदा व्यवस्था इसे रोक कर भक्त बनाने की शिक्षा देना चाहती है।
क्रमशः
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06.09.2019
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