विज्ञान दुर्भाग्य से विज्ञान की तरह न पढ़ाकर कौशल की तरह पढ़ाया जाता है, जो विज्ञान को विज्ञान की तरह पढ़ लेते हैं वे दर्शन समझने लगते हैं। केपी (कृष्ण प्रताप) भाई हम लोगों के सीनियर थे, डीजे में रहते थे। वह अद्भुत बैच (विभिन्न विषयों का) था। विभूति ना. राय (आईपीएस), शीष खान(आईएएस), रमाशंकर प्रसाद (केंद्रीय सेवा), वियोगी जी(डीपी त्रिपाठी, एमपी), सदाबहार गोष्ठियों के सिरमौर रवींद्र उपाध्याय(प्रोन्नत आईएएस) ... [सभी सेवा निवृत्त] 'परिवेश' पत्रिका (अनियमित) निकालते थे, मैं भी इनके साथ छुटभैय्ये के रूप में लगा रहता था। हॉस्टलों में गोष्ठियों की भरमार रहती। सदा बहार कविवर रवींद्र उपाध्याय गणित के छात्र थे। उन्हें जीएनझा से इसलिए निकाल दिया गयैॉा था कि उन्होंने एक होली में बहुत से छात्रों, सुपरिंडेंडेंट, वार्डन, प्रॉक्टर, वीसी आदि पर कविताएं लिख डाला था, फिर वे हिंदू में रहने लगे थे। हिंदी और भोजपुरी दोनों में लिखते थे। उनकी 2 सुंदर भोजपुरी कविताएं(कुक्कुर काव्य, पनही पुराण) याद हैं कभी टाइप करने की फुर्सत निकाल कर शेयर करूंगा। केपी भाई की एक कविता याद करके शेयर करता हूं, 'सदियों के सूखे के बाद एक हरी क्यारी नजर आई थी.....' इन्हीं लोगों की संगत में पीपीएच की किताबें पढ़कर मार्क्सवादी बन गया।
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