सदियों के सूखे के बाद एक हरी क्यारी नजर आई थी
विश्वास था, देखभाल का काम तुम्हें सौंपा था
विश्वास चलता रहा
बीच बीच में तुम्हारे साथ वाला कुत्ता भौका था
किया होता जो प्रत्यक्ष आघात
टूट जाता शायद विश्वास
पर तुमने तो निराई के बहाने फसल ही काट ली
अब दिला रहे हो ढाड़स (सही शब्द याद नहीं आ रहा)
बची है जो शेष घास
व्यथा सा चीखातो मुंह पर ताले लगाए
सत्ता की डोर इसलिए नहीं सौंपी
कि अपने ही गले का फंदा बन जाए
फंदा कमजोर है, मैं भारी हूं
टूट जाएगा
कहते हो नीचे गहरी खाई है
वह तो मेरे पूर्वजों की लाशों से पहले ही पट चुकी है
कहते हो मेरी जिंदगी मिर्च का धुंआ है
इससे तो वे डरते हैं जिनके सिर पर भूत रहा करते हैं
मैं तो खुश हूं कि मेरी जिंदगी मिर्च का धुंआ तो बनी
इससे तो बड़े बड़े भूत भगा करते हैं।
(दिवंगत कृष्ण प्रताप सिंह)
[गोंडा में डीएसपी थे फर्जी मुठभेड़ में पुलिस वालों ने ही मार दिया था, शशिभूषण उपाध्याय ने इसी पर हंस में एक कहानी लिखा था, 'बीसवां सिपाही']
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