Tuesday, September 10, 2019

बेतरतीब 47 (तलाश-ए-माश)


मैं 1972 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बीएससी में दाखिला लिया तो वहां रूल्ड नोटबुक और रजिस्टर नहीं मिलते थे, सादे। बाद में पता चला कि संघ लोक सेवा आयोग (आईएएस) और यूपी लोक सेवा आयोग (पीसीएस) की परीक्षाएं सादे कागजों पर होती थीं तथा विवि की भी। मेरी लिखावट अच्छी है तथा सादे कागज पर अपने आप सीधी लाइन बनने लगी। पत्र लंबे लंबे लिखता था मेरे एकमित्र ने फोटोकॉपी आ जाने के बाद मेरे कुछ पत्र फोटोकॉपी करके अपने पिताजी को भेजा था, अब सोचता हूं तब क्या लिखता रहा होऊंगा इतने लंबे-लंबे पत्रों में? 1973 में पिताजी से पैसा लेना बंद कर दिया। मार्क्स ने कहा है, अर्थ ही मूल है। वैचारिक स्वतंत्रता के लिए आर्थिक स्वतंत्रता जरूरी है। तब से गणित के ट्यूसन से काम चलाता रहा, 1976 में दिल्ली (जेएनयू)आने तथा 1977 में जेएनयू में दाखिला लेने के बाद भी गणित से ही आजीविका चलती रही। राजनीतिशास्त्र में जेएनयू में शोध करते हुए, 1981-1985 के दौरान डीपीएस (आरकेपुरम्) में गणित पढ़ाता था। 1983 के प्रवेशनीति की रक्षा में आंदोलन में 3 साल के लिए जेएनयू से निकाल दिया गया। 1985 में डीपीएस छोड़ने के बाद तय किया कि जबतक भूखो मरने की नौबत न आए आय के लिए गणित का इस्तेमाल नहीं करूंगा। नास्तिकता के चलते कॉलेज-विवि में नौकरी नहीं मिल रही थी। जब गॉड ही नहीं तो गॉडफादर कहां से आता? 1972 में शादी और 1975 में गौना के बाद का छात्रजीवन मैरिड-बैचलर का रहा। 1983 में बड़ी बेटी अपनी मां के पेट में थी तो मैरिड हॉस्टल के लिए अप्लाई किया, महानदी में नंबर आने ही वाला था कि माफी न मांगने के लिए रस्टीकेट हो गया। इसके बाद 7-8 महीने एक पाक्षिक (सारंगा स्वर) में नौकरी के अलावा कलम की मजदूरी से ही काम चलता रहा। हिंदी के प्रकाशन हस्तलिखित ले लेते थे, लेकिन अंग्रेजी वाले टाइप में ही लेते थे। एक मित्र (हरी सुब्रह्मण्यन) ने अपने पिताजी का पुराना पोर्टेवल टाइपराइटर दे दिया। काश 15 दिन टैइपिंग स्कूल में टाइपिंग सीख लिया होता तो बिना बोर्ड देखे दसों उंगलियों से टाइप करता लेकिन, बिना सीखे दो उंगलियो से टाइप करने लगा, लेकिन अब पछताने से क्या? अब भी वह टाइपराइटर मेरे पास है, लेकिन यहां से शिफ्ट करते हुए उससे भावनात्मक लगाव तोड़ना पड़ेगा। फुटनोट लंबा हो गया। सादे कागज पर मेरी लिखावट टाइप सी ही होती थी। हिदी-अंग्रेजी लेखन तथा अनुवाद से रोजी-रोटी चलती रही, बेटी स्कूल जाने की उम्र की हो गयी तो परिवार भी लाना पड़ापरिवार भी चलता रहा। मैं दिवि एवं अन्य विश्वविद्यालयों में इंटरविव देता रहा।


1986 में इलाहाबाद विवि में बहुत अच्छा इंटरविव हुआ, कुलपति (आरपी मिश्र) काफी रुचि ले रहे थे, 1 घटा 28 मिनट इंटरविव चला। समय का सही पता इंतजार करने वाले प्रत्याशियों से चला कोई क्लॉक कर रहा था। मैं सोचने लगा था कि गंगा पार झूसी बस रहा है वहां घर लूं या इस पार तेलियर गंज में? कुलपति महोदय कार्यकाल खत्म होने के बाद दिवि में भूगोल विभाग में प्रोफेसर थे। एक दिन दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉलामिक्स में मिल गए बोले सारे विरोध के बावजूद वे मेरा नाम पैनल में सातवें नंबर पर रखवा पाए। 6 पद थे।


1987 में जामिया में भी काफी देर और अच्छा इंटरविव हुआ। 3-4 महीने बाद एक एक्सपर्ट किसी सेमिनार में मिले। बोले वे और कुलपति मेरे इंटरविव तथा प्रकाशित कामों से काफी प्रभावित थे तथा तमाम तर के बावजूद मेरा नाम पैनल में चौथे नंबर पर रखवाने में सफल रहे। 3 पद थे। इस दौरान दिवि के जिस भी कॉॉलेज में अप्लाई कर पाता इंटरविव देता रहा। 1987-88 में हिमाचल विवि तथा म.द.विवि रोहतक में भी इंटरविव दिया।


अखबारों में फ्रीलांसिंग के साथ मैंने जेएनयू के एक मित्र (डी.गोपाल) के जरिए इग्नू के लिए अनुवाद करना और कुछ इकाइयां लिखना शुरू किया। अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद हाथ से ही करता था, 2000 में कंप्यूटर लेने के बाद भी हिंदी का काम हाथ से लिखकर करता था। इग्नू का ऑफिस सफदरजंग डेवलपमेंट एरिया मेंं किराए की बिल्डिंग में था। मैदानगढ़ी शिफ्ट होने के बाद भी उसके लिए लिखना और अनुवाद जारी रहा। युवकधारा, लिंक, कॉमर्स में नियमित लेखन तथा इग्नू के अध्याय तथा अनुवाद मेरी आय के नियमित स्रोत बन गए। स्कूल ऑफ सोसल साइंसेज के डायरेक्टर प्रो. पांडव नायक मेरे काम से इतने प्रसन्न थे कि उन्होंने मुझे अकेडमिक असोसिएट की नौकरी दे दी। लगा बिल्ली के भाग से छीका टूटा। तभी 1989 के नवंबर में दुर्भाग्य बाट जोह रहा था। वाम-दक्षिण के गॉडफादरों के हितों के टकराव में मुझे हिंदू कॉलेज में एक साल की अस्थाई नौकरी मिल गयी। एक साल बाद स्थाई का इंटरविव था। खुशफहमी पालकर, पैर पर कुल्हाड़ी मार कर इग्नू की नौकरी छोड़कर हिंदू कॉलेज ज्वाइन कर लिया। इग्नू में तबतक नीतिगत फैसला हो चुका था कि अकेडमिक असोसिएट का कैडर खत्म कर उन्हें लेक्चरर बना दिया जाएगा। मेरी जगह जेएनयू के मेरे ही एक सहपाठी जगपाल सिंह आए जो 2004 में प्रोफेसर हो गए।


1990 में हिदू कॉलेज में उस पद पर फिर इंटरविव हुआ और एक बड़े बाप के प्रतिभाशाली बेटे को वही नौकरी देने के लिए वाम और दक्षिण के गॉडफादरों में समझौता हो गया और मैं नौकरी से हाथ धोकर फिर से तलाशेमाश में मशगूल होकर कलम की मजदूरी से घर चलाने लगा। इग्नू के लिए अनुवाद और लेखन आदि भी आय का प्रमुख स्रोत था। फ्री-लांसिंग के दूसरे दौर में टेलीविजन का काफी काम किया। 1995 में संयोग से स्थाई नौकरी मिलने तक (इसकी कहानी फिर कभी) पूर्णकालिक कलम की मजदूरी से घर का खर्च चलता रहा तथा उसके बाद पूरक आय के लिए। जिस उम्र में नौकरी मिली तब जितनी बेसिक होनी चाहिए, उतनी ग्रास बनती थी। छठे वेतन आयोग के बाद वेतन से आराम से घर चलने लगा और मैंने पैसे के लिए लिखना बंद कर दिया, पैसा भी मिल जाए तो बोनस। क्षमा कीजिएगा, कमेंट लिखना था हैंड राइटिंग पर लेकिन तलाशेमाश पर फुटनोट इतना लंबा हो गया कि टेक्स्ट गौड़ हो गया।


2 comments:

  1. आपका जीवन संघर्ष में बीता है।तभी इतने सीजंड हो।आपके जज्बे को सलाम।

    ReplyDelete