Friday, September 27, 2019

लल्ला पुराण 283 (बचपन 10)

मित्रों, एक सज्जन ने इस मंच पर एकाधिक बार एक पोस्ट इस मंतव्य का पोस्ट किया कि बच्चे लाड़-दुलार से उद्दंड हो जाते हैं, उन्हें मार-पीट कर; प्रताड़ित करके; दंडित करके उनमें गुणों का विकास करना चाहिए. इस तरह के लोग लगता है बचपन में मार खा खा कर खुद बंद-बुद्धि लतखोर हो जाते हैं और अपने बच्चों को भी खुद सा लतखोर बनाना चाहते हैं, इस तरह के बाल-अत्याचार के अपराधी अभिभावकों तथा शिक्षकों का चौराहे पर पंचलत्ती बोलकर स्वागत करना चाहिए.

मैंने जवाब में लिखा था कि मैं न तो कभी घर में मार खाया न स्कूल में, तो उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया! जरा अतीतावलोकन कीजिए और सोचिए जिन मां-बापों ने अपने बच्चों को दंडित करके गुणी बनाने की कोशिस की उनमें से कितने विद्वान बने? बचपन में विद्रोही तेवर के बावजूद "अच्छे" बच्चे की छवि थी. 9 सगे और कई चचेरे भाई-बहनों में लाड़-प्यार कितना मिला पता नहीं, लेकिन मार कभी नहीं खाया. एक बार (5-6 साल की उम्र में) पिताजी ने 1 रूपया खोने के लिए एक चांटा मारा तो दादी ने पलटकर एक उन्हें वापस दिया और पान खा रहे थे बाहर आ गया, हिसाब बराबर हो गया. पढ़ने-लिखने में तेज था, होम वर्क इसलिए पूरा कर लेता था कि टीचर क्लास में खड़ा न कर दे. 9 साल में प्राइमरी पास कर लिया सबसे नजदीक मिडिल स्कूल 7-8 किमी था. 12 साल में मिडिल पास किया, पैदल की दूरी पर हाई स्कूल नहीं था, साइकिल पर पैर नहीं पहुंचता था, सो शहर चल दिया और तबसे सारे फैसले खुद करने लगा. इलाहाबाद विवि में साल बीतते-बीतते क्रांतिकारी राजनीति में शिरकत के चलते आईएस/पीसीयस की तैयारी से इंकार करने के चलते पिताजी से आर्थिक संबंध विच्छेद कर लिया और अपनी शर्तों पर जीते हुए कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और अब इकसठिया गया हूं. इंटर में एक कमीन टीचर ने मारने के लिए छड़ी उठाया, मैंने पकड़ लिया कि बताओ क्यों मारोगे? उसने केमिस्ट्री प्रैक्टिकल में फेल करने की कोशिस की लेकिन लगता है एक्सटर्नल नहीं माना और 30 में 10 नंबर देकर पास कर दिया, तब भी टॉपर से 19 नंबर ही कम आए.

13 साल में जनेऊ तोड़ दिया, कर्मकांडी दादा जी हर बार घर आने पर मंत्र-संत्र के साथ फिर से जनेऊ पहना देते थे, लेकिन कभी हाथ नहीं उठाया, अंत में ऊबकर छोड़ दिया. भूत का डर तभी खत्म हो गया, 17 की उम्र तक नास्तिक हो गया, काल्पनिक भगवान का भी काल्पनिक भय खत्म हो गया. 2 बेटियों का फक्रमंद बाप हूं, दोनों ही मेरी ज़िगरी दोस्त हैं. ज्यादातर मां-बाप अभागे दयनीय जीव होते हैं, समता के अद्भुत सुख से अपरिचित, बच्चों से मित्रता नहीं करते और शक्ति के वहम-ओ-गुमां में जीते हैं.

बच्चे कुशाग्रबुद्धि, सूक्ष्म पर्यवेक्षक तथा चालू और नकलची होते हैं, मां-बाप को प्रवचन से नहीं दृष्टांत से उन्हें पालना होता है. मैं आवारा आदमी जब बाप बना तो सोचा अच्छा बाप कैसे बना जाय. 1. बच्चों के साथ समतापूर्ण जनतांत्रिक तथा पारदर्शी व्यवहार करें. 2. उन्हे अतिरिक्त ध्यान; अतितिरिक्त संरक्षण एवं अतिरिक्त अपेक्षा से प्रताड़ित न करें. 3. बच्चों के अधिकार तथा बुद्धिमत्ता का सम्मान करना सीखें. 4. बच्चों की विद्रोही प्रवृत्ति को प्रोत्साहन दें, विद्रोह में सर्जनात्मकता है. To rebel is to create. मार-पीट कर जो बच्चों को पालते हैं वे बच्चों के साथ अक्षम्य अमानवीय अपराध करते हैं तथा अपने बच्चों को भी खुद सा लतखोर गधा बना देते हैं. मेरी बेटियां नियंत्रण और अनुशासन की बेहूदगियों से स्वतंत्र पली-बढ़ी हैं तथा अपने अपने क्षेत्रों में, परिजनों में प्रशंसित होती हैं. लोग कहते हैं भगत सिंह पड़ोसी के घर पैदा हों, मुझे गर्व है कि दोनों भगत सिंह की उनुयायी हैं.

आप सबसे अनुरोध है कि अपने अहं और अज्ञान में बच्चों को दब्बू और डरपोक न बनाएं, उनके अंदर की विद्रोही प्रवृत्तियों को कुंद न करके उन्हें प्रोत्साहित और परिमार्जित करें. विद्रोही प्रवृत्ति में सर्जक-अन्वेशी संभावनाएं अंतर्निहित होती हैं. यदि किसी की बापाना भावनाओं को ठेस पहुंची हो तो उनका इलाज कराएं.

ईमि/27.09.2017

Thursday, September 26, 2019

शिक्षा और ज्ञान 245 (विमर्श)

किसी विषय पर स्वस्थ, वस्तुनिष्ठ विमर्श के लिए सामूहिक बहस होनी चाहिए, अरस्तू ने कहा था, 'सामूहिक समझदारी किसी भी एक व्यक्ति की समझदारी से बेहतर होगी, वह एक व्यक्ति कितना भी बुद्धिमान क्यों न हो'। इससे असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन असहमति का तर्क मुश्किल होगा, क्योंकि उस 'सबसे बुद्धिमान' की समझ भी सामूहिक समझ में शामिल है।

Saturday, September 21, 2019

लल्ला पुराण 282 (इतिहास)

इतिहास जनश्रुतियों पर नहीं तथ्यों पर लिखा जाता है। पुराण पुष्यमित्र शुंग के बाद बौद्धक्रांति के विरुद्ध ब्राह्मणवादी प्रतिक्रांति की दार्शनिक पुष्टि के लिए लिखे गए। वाल्मीकि राममायण (गीता प्रेस) के अयोध्याकांड सर्ग 110 श्लोक 34 में बौद्धों तथा नास्तिकों की बुराई की गयी है जिसका मतलब रामायण बुद्ध (पांचवीं शताब्दी ईशापूर्व) के बाद लिखी गयी है। युधिष्ठिर एक पौराणिक महाकाव्य के चरित्र हैं। वैदिक साहित्य (वेद तथा उपनिषद) में महाभारत के किसी पात्र का वर्णन नहीं है। बौद्ध संकलनों में भी महाभारत के पात्रों का वर्णन नहीं मिलता। कौटिल्य अपने समय तक मौजूद सभी धाराओं में शासनशिल्प का संदर्भ देकर अपनी बात कहते हैं। महाभारत का शांतिपर्व पूरा शासनशिल्प ही है, लेकिन अर्थशास्त्र में महाभारत का जिक्र नहीं है, इसा मतलब महाभारत कौटिल्य (तीसरी शताब्दी ईशापूर्व) के बाद की रचना है। त्रेता की तरह द्वापर भी जान-बूझ कर मिथकीय रखा गया है।

शिक्षा और ज्ञान 244 (वेद)

मैंने ऋगवेद संयोग से पहली बार 1978 में (जेएनयू में एमए करने के दौरान) पढ़ा। दरियागंज संडे बुक बाजार में 5 रू. में गोविंद मिश्र का बहुत ही सुंदर पद्यात्मक अनुवाद मिल गया, एक बार में ही पढ़ गया। दुबारा बीच-बीच से पलटा। बहुत आनंद आया पढ़ने में। एक मित्र पढ़ने के लिए ले गए लौटाए नहीं। 1995 में दिवि में भारतीय राजनैतिक दर्शन पर कोर्स लगा। भारत में राज्य (महाजनपद एवं संघ) का उदय वैदिक गणों के अवशेष पर हुआ, गणों का राजनैतिक अर्थशास्त्र समझने के लिए दुबारा अंग्रेजी अनुवाद पढ़ा। कोर्स में राज्य का बौद्ध सिद्धांत था जो कि एक सामाजिक संविदा सिद्धांत है जिसका पहला मिथकीय जिक्र अत्रेय ब्रह्मण में मिलता है। सुर-असुर (आर्य-अनार्य) के बीच अपरिहार्य युद्ध के नेतृत्व के लिए सुर इंद्र को नेता चुनते हैं तो अत्रेय ब्राह्मण का अध्ययन किया। राज्य की उत्पत्ति का पहला सिद्धांत बौद्ध संकलन दीघनिकाय में मिलता है, जो राजनैतिक विचारों के इतिहास में राज्य की उत्पत्ति सामाजिक संविदा सिद्धांत है। एक संपादित पुस्तक के लिए इसपर मैंने एक अध्याय लिखा है पुस्तक प्रेस में जाने के बाद शेयर करूंगा। बुद्ध और कौटिल्य ( अर्थशास्त्र) के सिद्धांत अदैवीय तथा अमिथकीय हैं। कौटिल्य की राज्य की परिभाषा में दैविकता या मिथकीयता नहीं है। मनुस्मृति में राज्य की उत्पत्ति दैवीय है। मनुस्मृति का शासनशिल्प खंड तथा महाभारत के शांतिपर्व (दोनों कोर्स में हैं) में शासनशिल्प का वर्णन लगभग एक-दूसरे के कॉपी-पेस्ट हैं। ऋगवेद में प्राकृतिक देवताओं (शक्तियों) (अरुण, वरुण, इंद्र..) तथा भौतिक संसाधनों तथा कुटुंबों (कबीलों) के राजनैतिक अर्थशास्त्र तथा युद्धों के वर्णन हैं। पशुधन की प्रधानता थी तथा सोमरस ( राहुल सांकृत्यायन के अनुसार भांग का पेय) के वर्णन की बारंबारता है। बैकुंठ के किसी देवता या वशिष्ठ तथा विश्वामित्र को छोड़कर रामायण-महाभारत के किसी पात्र का वर्णन नहीं है। ऋगवेद के सातवें मंडल में दस राज्ञ युद्धः का वर्णन है। विश्वामित्र भरत कुटुंब के राजा (मुखिया) दिबोदास के पुरोहित थे। उनका पुत्र सुदास जब मुखिया बना तो विश्वामित्र की जगह वशिष्ठ को पुरोहित बना दिया। विश्वामित्र ने कुपित होकर दस कुटुंबों के राजाओं (प्रमुखों) को लामबंद कर सुदास पर हमला कर दिया। सुदास विजयी हुए। वशिष्ठ और विश्वामित्र दोनों ही भरत कुटुंब के पुरोहित हो गए। बाकी फिर कभी।

Monday, September 16, 2019

बेतरतीब 50 (बचपन 9)

मैं तो अपने हिंदी मीडियम के विद्यार्थियों को अंग्रेैजी पढ़ने के लिए इसलिए प्रोत्साहित करता था कि हिंदी में बहुत कम किताबें हैं, जो हैं भी कुंजीटाइप या ऐसे अनुवाद जिन्हें समझना अंग्रेजी मूल से भी मुश्किल है। इंटर में हमारे कॉलेज में पढ़ाई हिंदी मीडियम में होती थी लेकिन मैं परीक्षा अंग्रेजी मीडियम में देता था। गणित, भौतिकी और रसायन की अच्छी किताबें मिल जातीं थी। रिश्तेदारों और मित्रों में खोजता था कि अंग्रेजी में पत्र किसे लिखा जा सके। दसवीं क्लास में अंग्रेजी बोलने का महत्व मुझे एक निजी अपमान की घटना से समझ आया। 13 साल का था, तथा दुबले-पतले लड़के अपनी उम्र से भी कम लगते हैं। जौनपुर पढ़ता था, एक शनिवार शाम को 5.35 वाली ट्रेन (लखनऊ-मुगलसराय पैसेंजर) छूट गयी। अक्सर देर से आती थी उस दिन कुछ मिनट देर से पहुंचा तो समय पर आ गयी। पैसेंजर से बिलवाई जाता था तथा वहां से 7 मील पैदल घर जाता था। काफी दूर तक बनारस-जौनपुर से आने वाले साप्ताहिक यात्रियों का साथ रहता, 3-4 किमी निर्जन रास्ता अकेले जाना पड़ता था। एक रास्ता भुलाने वाले सम्मानित भूत बाबा रास्ते में पड़ते थे लेकिन मुझे उनसे डर नहीं लगता था। उनको चुनौती देता था लेकिन वे कभी मुझे रास्ता न भुला पाए। खैर फुटनोट का विषयांतर लंबा हो गया। वापस हॉस्टल जाकर सुबह 5.35 की गाड़ी पकड़ना बेहतर रहता। लेकिन मुझे कुछ समय बाद एक मेल ट्रेन मिल गयी और मैं शाहगंज जंक्सन आ गया। वह मूर्खतापूर्ण फैसला था, एकाध बार पहले भी ऐसा कर चुका था। आलू-पूड़ी खाकर रात प्लेटफॉर्म पर बिताकर सुबह की ट्रेन से बिलवाई गया था। उससरात मैं वहीं रात भर खड़ी रहने वाली आजमगढ़ जाने वाली छोटी लाइन की गाड़ी में सो गया कि सुबह उसके छूटने के पहले उठ जाऊंगा। सुबह भोर में लोग जब चढ़ने लगे तो मैं उठकर उतरने लगा। एक ने पूछा मैं कहां जाऊंगा तो मैंने बता दिया, मैं उस ट्रेन से नहीं जाऊंगा, दूसरी ट्रेन से जाऊंगा। उस हरामजादे ने कहा 'जेब कतरे ऐसे ही होते हैं' और एक चांटा मार दिया, लोग भी उसकी तरफ से बोलने लगे, असहाय हालत का अपमान ऐसा लगा कि मैं उसे गुस्से में अंग्रेजी में गालियां देने लगा और एकाएक जनमत मेरी तरफ हो गया कि 'पढ़ा-लिखा. अच्छे घर' का लड़का है, मैं अंग्रेजी में गाली देता ही रहा, वह गायब हो गया, बहुत दिनों तक उसकी शकल मुझे याद थी। वह अपमान मैं बहुत दिनों तक नहीं भूल पाया। तबसे गुस्से में अपने आप अंग्रेजी बोलने लगता था। सोचिए एक 30-40 साल का आदमी एक 13 साल के लड़के पर बहादुरी दिखाने लगा।

इसे बाद में पुनर्लिखित करूंगा।

लल्ला पुराण 281 (धर्म और बलात्कार)

Arvind Kumar Mishra बलात्कार की संस्कृति किसी धर्म (जैसाआपने कहा इस्लाम) के प्रभाव से नहीं शुरू होती। अपने गांव के एक लड़के से बात हो रही थी, 5 भाई हैं, वह अपने अन्य भाइयों के एक-दूसरे से भिन्नता के बारे में बात कर रहा था। जब दो सगे भाई एक जैसे नहीं होते तो लाखों करोड़ों को एक ब्रैकेट में कैसे बंद किया जा सकता है? बलात्कार की ज्यादा घटनाएं मुगल काल में नहीं आधुनिक काल में हो रही हैं। स्वामी चिन्मयानंद, राम-रहीम, आसाराम, नित्यानंद आदि बलात्कारियों पर तो इस्लाम का असर नहीं है? व्यक्ति का चरित्र उसके जन्म के धर्म-जाति के संयोग का नहीं, समाजीकरण का परिणाम होता है। आइए समाज में समरसता बढ़ाएं, जाति-धर्म के नाम पर विद्वेष नहीं।

शिक्षा और ज्ञान 243 (जीवन संघर्ष)

जिंदगी के खास चरणों में, जीते समय जीने के संघर्ष जीने का हिस्सा लगते हैं, अलग से संघर्ष नहीं लगते। जिंदगी में हर शौक की कीमत चुकानी पड़ती है, नतमस्तक समाज में सिर उठाकर जीना बहुत मंहगा शौक है।

Sunday, September 15, 2019

बेतरतीब 49 (बेबसी का अपमान)

बेबसी का अपमान

मैं तो अपने हिंदी मीडियम के विद्यार्थियों को अंग्रेैजी पढ़ने के लिए इसलिए प्रोत्साहित करता था कि हिंदी में बहुत कम किताबें हैं, जो हैं भी कुंजीटाइप या ऐसे अनुवाद जिन्हें समझना अंग्रेजी मूल से भी मुश्किल है। इंटर में हमारे कॉलेज में पढ़ाई हिंदी मीडियम में होती थी लेकिन मैं परीक्षा अंग्रेजी मीडियम में देता था। गणित, भौतिकी और रसायन की अच्छी किताबें मिल जातीं थी। रिश्तेदारों और मित्रों में खोजता था कि अंग्रेजी में पत्र किसे लिखा जा सके। दसवीं क्लास में अंग्रेजी बोलने का महत्व मुझे एक निजी अपमान की घटना से समझ आया। 13 साल का था, तथा दुबले-पतले लड़के अपनी उम्र से भी कम लगते हैं। जौनपुर पढ़ता था, एक शनिवार शाम को 5.35 वाली ट्रेन (लखनऊ-मुगलसराय पैसेंजर) छूट गयी। अक्सर देर से आती थी उस दिन कुछ मिनट देर से पहुंचा तो समय पर आ गयी। पैसेंजर से बिलवाई जाता था तथा वहां से 7 मील पैदल घर जाता था। काफी दूर तक बनारस-जौनपुर से आने वाले साप्ताहिक यात्रियों का साथ रहता, 3-4 किमी निर्जन रास्ता अकेले जाना पड़ता था। एक रास्ता भुलाने वाले सम्मानित भूत बाबा रास्ते में पड़ते थे लेकिन मुझे उनसे डर नहीं लगता था। उनको चुनौती देता था लेकिन वे कभी मुझे रास्ता न भुला पाए। खैर फुटनोट का विषयांतर लंबा हो गया। वापस हॉस्टल जाकर सुबह 5.35 की गाड़ी पकड़ना बेहतर रहता। लेकिन मुझे कुछ समय बाद एक मेल ट्रेन मिल गयी और मैं शाहगंज जंक्सन आ गया। वह मूर्खतापूर्ण फैसला था, एकाध बार पहले भी ऐसा कर चुका था। आलू-पूड़ी खाकर रात प्लेटफॉर्म पर बिताकर सुबह की ट्रेन से बिलवाई गया था। उससरात मैं वहीं रात भर खड़ी रहने वाली आजमगढ़ जाने वाली छोटी लाइन की गाड़ी में सो गया कि सुबह उसके छूटने के पहले उठ जाऊंगा। सुबह भोर में लोग जब चढ़ने लगे तो मैं उठकर उतरने लगा। एक ने पूछा मैं कहां जाऊंगा तो मैंने बता दिया, मैं उस ट्रेन से नहीं जाऊंगा, दूसरी ट्रेन से जाऊंगा। उस हरामजादे ने कहा 'जेब कतरे ऐसे ही होते हैं' और एक चांटा मार दिया, लोग भी उसकी तरफ से बोलने लगे, असहाय हालत का अपमान ऐसा लगा कि मैं उसे गुस्से में अंग्रेजी में गालियां देने लगा और एकाएक जनमत मेरी तरफ हो गया कि 'पढ़ा-लिखा. अच्छे घर' का लड़का है, मैं अंग्रेजी में गाली देता ही रहा, वह गायब हो गया, बहुत दिनों तक उसकी शकल मुझे याद थी। वह अपमान मैं बहुत दिनों तक नहीं भूल पाया। तबसे गुस्से में अपने आप अंग्रेजी बोलने लगता था। सोचिए एक 30-40 साल का आदमी एक 13 साल के लड़के पर बहादुरी दिखाने लगा।

लल्ला पुराण 280 ( विज्ञान और साहित्य)

विज्ञान दुर्भाग्य से विज्ञान की तरह न पढ़ाकर कौशल की तरह पढ़ाया जाता है, जो विज्ञान को विज्ञान की तरह पढ़ लेते हैं वे दर्शन समझने लगते हैं। केपी (कृष्ण प्रताप) भाई हम लोगों के सीनियर थे, डीजे में रहते थे। वह अद्भुत बैच (विभिन्न विषयों का) था। विभूति ना. राय (आईपीएस), शीष खान(आईएएस), रमाशंकर प्रसाद (केंद्रीय सेवा), वियोगी जी(डीपी त्रिपाठी, एमपी), सदाबहार गोष्ठियों के सिरमौर रवींद्र उपाध्याय(प्रोन्नत आईएएस) ... [सभी सेवा निवृत्त] 'परिवेश' पत्रिका (अनियमित) निकालते थे, मैं भी इनके साथ छुटभैय्ये के रूप में लगा रहता था। हॉस्टलों में गोष्ठियों की भरमार रहती। सदा बहार कविवर रवींद्र उपाध्याय गणित के छात्र थे। उन्हें जीएनझा से इसलिए निकाल दिया गया था कि उन्होंने एक होली में बहुत से छात्रों, सुपरिंडेंडेंट, वार्डन, प्रॉक्टर, जाने-माने प्रोफेसरों, वीसी आदि पर कविताएं लिख डाला था, फिर वे हिंदू हॉस्टल में रहने लगे थे। हिंदी और भोजपुरी दोनों में लिखते थे। उनकी 2 सुंदर भोजपुरी कविताएं(कुक्कुर काव्य, पनही पुराण) याद हैं कभी टाइप करने की फुर्सत निकाल कर शेयर करूंगा। केपी भाई की एक कविता याद करके शेयर करता हूं, 'सदियों के सूखे के बाद एक हरी क्यारी नजर आई थी.....' इन्हीं लोगों की संगत में पीपीएच की किताबें पढ़कर मार्क्सवादी बन गया।

लल्ला पुराण 279 (क्रिकेट)

आप लोगों के समय में राष्ट्रीय स्तर का क्रिकेट मैच कभी इलाहाबाद में हुआ क्या? मेरे ख्याल से अंतिम ऐसा मैच 1973-74 (या 1972-73) में अंतिम बार होते होते रह गया था। शायद सीके नायडू मैच था। पक्ष-विपक्ष मिलाकर सुनील गवास्कर, मोहिंदर अमरनाथ, गुंडप्पा विश्वनाथ, चंद्रशेखर, बृजेश पटेल, सैय्यद किरमानी ... आदि सारे सितारे थे। आजाद पार्क में स्टेडियम में मैच शुरू हो गया था। मोहिंदर अमरनाथ बाउंड्री लाइन के पास फील्डिंग कर रहे थे। किसी लड़के ने ऑटोग्राफ मांगा, नहीं दिया। फिर किसी लड़की ने मांगा और दे दिया, जहां तक मुझे याद है, ऐसा ही हुआ था, मित्र नृपेंद्र के अलावा उस समय का कोई शायद चुंगी पर है नहीं। इसके अलावा क्या हुआ पता नहीं कि सारे लड़कों ने ग्राउंड में धावा बोल दिया हम 10-15 लोगों ने विश्वनाथ और चंद्रशेखर को घेरे में लेकर अंदर पहुंचा दिए। बृजेश पटेल ने आत्मरक्षा में विकेट उखाड़कर किसी को दौड़ाया और पिट गए। चारों तरफ अफरा-तफरी मच गयी, पुलिस आ गयी, दौड़ा-दौड़ाकर मारने लगी, हम लोग कैसे-कैसे बच-बचाकर साइंस फैकल्टी होते हुए यूनिवर्सिटी रोड पहुंच गए। हिंदू पॉस्टल गोलचक्कर पर पुलिस और छात्रों के बीच जमकर पत्थरबाजी हुई, हॉस्टल से किसी ने पुलिस को वापस जाने का माइक पर निर्देश दिया। ब्लॉक सर्वेंट और मेस कर्मचारी ईंट-पत्थर का इंतजाम कर रहे थे। धीरे-धीरे छात्र सब निकल कर ब्वॉेएज स्कूल की तरफ भाग गए। डॉ. हरदेव बाहरी को पुलिस वालों ने पकड़ लिया, वे बोले कि रीडर हैं, फिर तो दो-चार लाठी पड़ गयी और पुलिस ने यह कह कर पकड़ लिया कि लीडर है। फिर तो कई दिन पुलिस का डेरा रहा। उसके बाद शायद इलाहाबाद में राष्ट्रीय स्तर का क्रकेट मैच कभी नहीं हुआ। 45-46 साल पुरानी याददाश्त के आधार पर यह लिखा किसी को कुछ याद हो तो सुधार कर दें।

कृष्ण प्रताप की कविता

सदियों के सूखे के बाद एक हरी क्यारी नजर आई थी
विश्वास था, देखभाल का काम तुम्हें सौंपा था
विश्वास चलता रहा
बीच बीच में तुम्हारे साथ वाला कुत्ता भौका था
किया होता जो प्रत्यक्ष आघात
टूट जाता शायद विश्वास
पर तुमने तो निराई के बहाने फसल ही काट ली
अब दिला रहे हो ढाड़स (सही शब्द याद नहीं आ रहा)
बची है जो शेष घास
व्यथा सा चीखातो मुंह पर ताले लगाए
सत्ता की डोर इसलिए नहीं सौंपी
कि अपने ही गले का फंदा बन जाए
फंदा कमजोर है, मैं भारी हूं
टूट जाएगा
कहते हो नीचे गहरी खाई है
वह तो मेरे पूर्वजों की लाशों से पहले ही पट चुकी है
कहते हो मेरी जिंदगी मिर्च का धुंआ है
इससे तो वे डरते हैं जिनके सिर पर भूत रहा करते हैं
मैं तो खुश हूं कि मेरी जिंदगी मिर्च का धुंआ तो बनी
इससे तो बड़े बड़े भूत भगा करते हैं।
(दिवंगत कृष्ण प्रताप सिंह)

[गोंडा में डीएसपी थे फर्जी मुठभेड़ में पुलिस वालों ने ही मार दिया था, शशिभूषण उपाध्याय ने इसी पर हंस में एक कहानी लिखा था, 'बीसवां सिपाही']

लल्ला पुराण 278 (इवि का साहित्यिक माहौल)

विज्ञान दुर्भाग्य से विज्ञान की तरह न पढ़ाकर कौशल की तरह पढ़ाया जाता है, जो विज्ञान को विज्ञान की तरह पढ़ लेते हैं वे दर्शन समझने लगते हैं। केपी (कृष्ण प्रताप) भाई हम लोगों के सीनियर थे, डीजे में रहते थे। वह अद्भुत बैच (विभिन्न विषयों का) था। विभूति ना. राय (आईपीएस), शीष खान(आईएएस), रमाशंकर प्रसाद (केंद्रीय सेवा), वियोगी जी(डीपी त्रिपाठी, एमपी), सदाबहार गोष्ठियों के सिरमौर रवींद्र उपाध्याय(प्रोन्नत आईएएस) ... [सभी सेवा निवृत्त] 'परिवेश' पत्रिका (अनियमित) निकालते थे, मैं भी इनके साथ छुटभैय्ये के रूप में लगा रहता था। हॉस्टलों में गोष्ठियों की भरमार रहती। सदा बहार कविवर रवींद्र उपाध्याय गणित के छात्र थे। उन्हें जीएनझा से इसलिए निकाल दिया गयैॉा था कि उन्होंने एक होली में बहुत से छात्रों, सुपरिंडेंडेंट, वार्डन, प्रॉक्टर, वीसी आदि पर कविताएं लिख डाला था, फिर वे हिंदू में रहने लगे थे। हिंदी और भोजपुरी दोनों में लिखते थे। उनकी 2 सुंदर भोजपुरी कविताएं(कुक्कुर काव्य, पनही पुराण) याद हैं कभी टाइप करने की फुर्सत निकाल कर शेयर करूंगा। केपी भाई की एक कविता याद करके शेयर करता हूं, 'सदियों के सूखे के बाद एक हरी क्यारी नजर आई थी.....' इन्हीं लोगों की संगत में पीपीएच की किताबें पढ़कर मार्क्सवादी बन गया।

Saturday, September 14, 2019

The murder of the Kannad writer Kalburgi

The murder of the Kannad writer Kalburgi

As is well-known by now, the progressive Kannad poet, writer, scholar and researcher Prof Kalburgi was shot dead at his home in Dharwad, Karnataka. The murder of Prof Kalburgi was preceded by the murders of rationalists, Dabholkar and Govind Pansare. A Tamil writer had to write obituary to the writer in him. In Bangaladesh and Pakistan also the rationalists or those opposed to religious superstitions and practices are being eliminated, notwithstanding the claims of the religious leaders of all the religions that theirs is the most tolerant religion. Taslima Nasrin has to live, may be for the life time, in exile for her writings against orthodoxy. It seems that the medieval times were more tolerant that did not eliminate Kabir who flayed the religious practices of Islam and Hinduism both. The non-government censorship by the self claimed custodians of religion and culture has emerged as the most serious threat to the right to conscience, thought and expression.

Prof Malleshappa Madivallapa Kalburgi, former Vice Chancellor of the Kaqnnad University, at Hampi, was unafraid of asking critical questions and had the nerve to stand by the unpopular answer.“He was very open-minded and very progressive and he had the courage to speak the unsavory truth without fear of consequence,” according to the JNU UniverHS Shivaprakash, Kannada poet and playwright. Prof Kalburgi, a Lingayat himself, earned the ire of the Lingayats, said to be the most powerful community in Karnataka, in 1989 for his work on the 12th century philosopher, Basav that was considered to be blasphemous by the self claimed community leaders and was forced to omit few sections from the book. . Speaking to India Today at the time he said, “I did it to save the lives of my family. But I also committed intellectual suicide on that day."

The RSS outfits, VHP, who had celebrated the death of UR Ananathamurty by distributing sweets and creating congestion on social media. They celebrated the death of Prof Kalburgi also. One Bajarang Dal leader went to the extent of declaring on tweet the next target, another rationalist. The state is showing lack of will and capacity to restrain the communal hooliganism. In such a situation the responsibility of defending academic freedom that is being simultaneously curbed by draconian educational policies being pursued by the government and right to thought and expression falls on the shoulders of the democratic forces of the country.

It is in this context, Janhastakshep seeks to begin a series of discourses on Fundamentalist threat to academic freedom and freedom of expression among the students, intellectuals and writers to chalk out countervailing strategies to meet the menace.

13.09.2015

Friday, September 13, 2019

बेतरतीब 49 (जातिवाद)

मेरा बचपन एक तरह से पूर्व-आधुनिक (pre-modern) जातिवादी, सामंती सांस्कृतिक माहौल में बीता। मेरे बाबा (दादा जी) कट्टर कर्मकांडी तथा पंचांग के विद्वान की छवि वाले नामी व्यक्ति थे। पिताजी इलाके के नामी-गिरामी आदमी थे। बचपन से ही ठाकुर-भूमिहार समेत सभी जातियों के बुजुर्ग तक चरणस्पर्श या पांव लागी कहकर प्रणाम करते थे। हलवाहे काम के बाद अपने घर चले जाते थे, एक सिरवार (पशुओं को खिलाने-पिलाने तथा अन्य काम करने वाले) और एक चरवाहा दिन-रात रहते थे। शाम को नीम के नीचे पिताजी का दरबार लगता था, एक नाई (पाल भाई) ठंडाई रगड़ते थे बाकी सेवा के लिए एक कहांर (भगवानदास बाबा) रहतेे थे। मेरे पिताजी गप्पें हांकने और भूत-प्रेत-चुडैलों से संवाद और मुठभेड़ की कल्पित कहानियां-किस्सों के शौकीन थे। मध्यवर्ती जातियों के उनके अमीर मित्र भी जातीय श्रेणीक्रम में उनके चेलों सा ही व्यवहार करते थे। विषयांतर हो गया, कहना यह चाहता हूं कि मेरा बचपन ब्राह्मणीय श्रेष्ठताबोध के साथ बीता, पढ़ने में तेज छात्र की छवि ने इस श्रेष्ठताबोध में खाद-पानी का काम किया। 10 वर्ष की उम्र में कोई ऐसी घटना हुई कि मेरा श्रेष्ठताबोध डिग गया। वह मेरे जीवन में एक परिवर्तनकारी मोड़ (टर्निंग प्वाइंट) साबित हुआ। उस घटना का जिक्र कभी फिर करूंगा। उसने मुझे और मेरे श्रेष्ठताबोध को झकझोर दिया। 12 साल की उम्र में एक छोटे से शहर जौनपुर पढ़ने चला गया। हाई स्कूल इंटर की विज्ञान की पढ़ाई के बाद 17 साल की उम्र में मैं जब इलाहाबाद आया तो लगता था कि जात-पांत का मामला गांव के अपढ़ लोगों तक सीमित है। इलाहाबाद में पहला कल्चरल शॉक यह देखकर लगा की प्रोफेसरों की लामबंदी (गिरोह-बाजी) जातीय आधार पर है। कायस्थ लॉबी और ब्राह्मण लॉबी। कायस्थ लॉबी के नेता भौतिकशास्त्र के प्रोफेसर कृष्णा जी थे तथा ब्राह्मण लॉबी के नेता इतिहास के जीरआर शर्मा और भौतिकशास्त्र के युवा प्रोफेसर मुरली मनोहर जोशी थे। कायस्थ वीसी आता तो रजिस्ट्रार, डीन आदि कायस्थ होते और ब्राह्मण वीसी आता तो ब्राह्मण। दोनों के पास विद्यार्थियों के अपने अपने गिरोह थे।

Wednesday, September 11, 2019

बेतरतीब 48 (बचपन)

मैं तो आधुनिक शिक्षा में पहली पीढ़ी वाला हूं,पिताजी ने क्या पढ़ाई की थी नहीं जानता, इलाके के जाने-माने आदमी थे और लिखावट बहुत सुंदर थी, गुलशन नंदा, कुश्वाहाकांत किस्म के उपन्यास उनके कमरे में रहते थे। बाबा (दादा जी) पंचांग के ज्ञाता माने जाते थे, गीता और अन्य बहुत से संस्कृत ग्रंथ उनके ठाकुर (भगवान) के घर में रहते थे, नहा कर ठाकुर को भोग लगाने के बाद ही कुछ खाते-पीते थे। उनकी लिखावट के नमूने के लिए अपनी जन्मकुंडली संभाल कर रखा हूं। यह अनावश्यक फुटनोट लंबा हो गया, कहना यह चाहता था कि प्राइमरी में भाषा और गणित की ही पढ़ाई होती थी, पहाड़ा-जोड़-घटा-गुणा-भाग मुझे आसानलगता था, नंबर अच्छो आते थे इसलिए अच्छा विद्यार्थी माना जाता था, जो अच्छे बच्चे की छवि में सहायक था। सुबह 4 बजे दादा जी पढ़ने के लिए उठा देते थे लेकिन पढ़ाई के लिए कभी डांट-मार नहीं पड़ी। प्राइमरी स्कूल के बाद की कहानी बाद में।

Tuesday, September 10, 2019

बेतरतीब 47 (तलाश-ए-माश)


मैं 1972 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बीएससी में दाखिला लिया तो वहां रूल्ड नोटबुक और रजिस्टर नहीं मिलते थे, सादे। बाद में पता चला कि संघ लोक सेवा आयोग (आईएएस) और यूपी लोक सेवा आयोग (पीसीएस) की परीक्षाएं सादे कागजों पर होती थीं तथा विवि की भी। मेरी लिखावट अच्छी है तथा सादे कागज पर अपने आप सीधी लाइन बनने लगी। पत्र लंबे लंबे लिखता था मेरे एकमित्र ने फोटोकॉपी आ जाने के बाद मेरे कुछ पत्र फोटोकॉपी करके अपने पिताजी को भेजा था, अब सोचता हूं तब क्या लिखता रहा होऊंगा इतने लंबे-लंबे पत्रों में? 1973 में पिताजी से पैसा लेना बंद कर दिया। मार्क्स ने कहा है, अर्थ ही मूल है। वैचारिक स्वतंत्रता के लिए आर्थिक स्वतंत्रता जरूरी है। तब से गणित के ट्यूसन से काम चलाता रहा, 1976 में दिल्ली (जेएनयू)आने तथा 1977 में जेएनयू में दाखिला लेने के बाद भी गणित से ही आजीविका चलती रही। राजनीतिशास्त्र में जेएनयू में शोध करते हुए, 1981-1985 के दौरान डीपीएस (आरकेपुरम्) में गणित पढ़ाता था। 1983 के प्रवेशनीति की रक्षा में आंदोलन में 3 साल के लिए जेएनयू से निकाल दिया गया। 1985 में डीपीएस छोड़ने के बाद तय किया कि जबतक भूखो मरने की नौबत न आए आय के लिए गणित का इस्तेमाल नहीं करूंगा। नास्तिकता के चलते कॉलेज-विवि में नौकरी नहीं मिल रही थी। जब गॉड ही नहीं तो गॉडफादर कहां से आता? 1972 में शादी और 1975 में गौना के बाद का छात्रजीवन मैरिड-बैचलर का रहा। 1983 में बड़ी बेटी अपनी मां के पेट में थी तो मैरिड हॉस्टल के लिए अप्लाई किया, महानदी में नंबर आने ही वाला था कि माफी न मांगने के लिए रस्टीकेट हो गया। इसके बाद 7-8 महीने एक पाक्षिक (सारंगा स्वर) में नौकरी के अलावा कलम की मजदूरी से ही काम चलता रहा। हिंदी के प्रकाशन हस्तलिखित ले लेते थे, लेकिन अंग्रेजी वाले टाइप में ही लेते थे। एक मित्र (हरी सुब्रह्मण्यन) ने अपने पिताजी का पुराना पोर्टेवल टाइपराइटर दे दिया। काश 15 दिन टैइपिंग स्कूल में टाइपिंग सीख लिया होता तो बिना बोर्ड देखे दसों उंगलियों से टाइप करता लेकिन, बिना सीखे दो उंगलियो से टाइप करने लगा, लेकिन अब पछताने से क्या? अब भी वह टाइपराइटर मेरे पास है, लेकिन यहां से शिफ्ट करते हुए उससे भावनात्मक लगाव तोड़ना पड़ेगा। फुटनोट लंबा हो गया। सादे कागज पर मेरी लिखावट टाइप सी ही होती थी। हिदी-अंग्रेजी लेखन तथा अनुवाद से रोजी-रोटी चलती रही, बेटी स्कूल जाने की उम्र की हो गयी तो परिवार भी लाना पड़ापरिवार भी चलता रहा। मैं दिवि एवं अन्य विश्वविद्यालयों में इंटरविव देता रहा।


1986 में इलाहाबाद विवि में बहुत अच्छा इंटरविव हुआ, कुलपति (आरपी मिश्र) काफी रुचि ले रहे थे, 1 घटा 28 मिनट इंटरविव चला। समय का सही पता इंतजार करने वाले प्रत्याशियों से चला कोई क्लॉक कर रहा था। मैं सोचने लगा था कि गंगा पार झूसी बस रहा है वहां घर लूं या इस पार तेलियर गंज में? कुलपति महोदय कार्यकाल खत्म होने के बाद दिवि में भूगोल विभाग में प्रोफेसर थे। एक दिन दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉलामिक्स में मिल गए बोले सारे विरोध के बावजूद वे मेरा नाम पैनल में सातवें नंबर पर रखवा पाए। 6 पद थे।


1987 में जामिया में भी काफी देर और अच्छा इंटरविव हुआ। 3-4 महीने बाद एक एक्सपर्ट किसी सेमिनार में मिले। बोले वे और कुलपति मेरे इंटरविव तथा प्रकाशित कामों से काफी प्रभावित थे तथा तमाम तर के बावजूद मेरा नाम पैनल में चौथे नंबर पर रखवाने में सफल रहे। 3 पद थे। इस दौरान दिवि के जिस भी कॉॉलेज में अप्लाई कर पाता इंटरविव देता रहा। 1987-88 में हिमाचल विवि तथा म.द.विवि रोहतक में भी इंटरविव दिया।


अखबारों में फ्रीलांसिंग के साथ मैंने जेएनयू के एक मित्र (डी.गोपाल) के जरिए इग्नू के लिए अनुवाद करना और कुछ इकाइयां लिखना शुरू किया। अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद हाथ से ही करता था, 2000 में कंप्यूटर लेने के बाद भी हिंदी का काम हाथ से लिखकर करता था। इग्नू का ऑफिस सफदरजंग डेवलपमेंट एरिया मेंं किराए की बिल्डिंग में था। मैदानगढ़ी शिफ्ट होने के बाद भी उसके लिए लिखना और अनुवाद जारी रहा। युवकधारा, लिंक, कॉमर्स में नियमित लेखन तथा इग्नू के अध्याय तथा अनुवाद मेरी आय के नियमित स्रोत बन गए। स्कूल ऑफ सोसल साइंसेज के डायरेक्टर प्रो. पांडव नायक मेरे काम से इतने प्रसन्न थे कि उन्होंने मुझे अकेडमिक असोसिएट की नौकरी दे दी। लगा बिल्ली के भाग से छीका टूटा। तभी 1989 के नवंबर में दुर्भाग्य बाट जोह रहा था। वाम-दक्षिण के गॉडफादरों के हितों के टकराव में मुझे हिंदू कॉलेज में एक साल की अस्थाई नौकरी मिल गयी। एक साल बाद स्थाई का इंटरविव था। खुशफहमी पालकर, पैर पर कुल्हाड़ी मार कर इग्नू की नौकरी छोड़कर हिंदू कॉलेज ज्वाइन कर लिया। इग्नू में तबतक नीतिगत फैसला हो चुका था कि अकेडमिक असोसिएट का कैडर खत्म कर उन्हें लेक्चरर बना दिया जाएगा। मेरी जगह जेएनयू के मेरे ही एक सहपाठी जगपाल सिंह आए जो 2004 में प्रोफेसर हो गए।


1990 में हिदू कॉलेज में उस पद पर फिर इंटरविव हुआ और एक बड़े बाप के प्रतिभाशाली बेटे को वही नौकरी देने के लिए वाम और दक्षिण के गॉडफादरों में समझौता हो गया और मैं नौकरी से हाथ धोकर फिर से तलाशेमाश में मशगूल होकर कलम की मजदूरी से घर चलाने लगा। इग्नू के लिए अनुवाद और लेखन आदि भी आय का प्रमुख स्रोत था। फ्री-लांसिंग के दूसरे दौर में टेलीविजन का काफी काम किया। 1995 में संयोग से स्थाई नौकरी मिलने तक (इसकी कहानी फिर कभी) पूर्णकालिक कलम की मजदूरी से घर का खर्च चलता रहा तथा उसके बाद पूरक आय के लिए। जिस उम्र में नौकरी मिली तब जितनी बेसिक होनी चाहिए, उतनी ग्रास बनती थी। छठे वेतन आयोग के बाद वेतन से आराम से घर चलने लगा और मैंने पैसे के लिए लिखना बंद कर दिया, पैसा भी मिल जाए तो बोनस। क्षमा कीजिएगा, कमेंट लिखना था हैंड राइटिंग पर लेकिन तलाशेमाश पर फुटनोट इतना लंबा हो गया कि टेक्स्ट गौड़ हो गया।