पुस्तक समीक्षा:
महिषासुर: एक जननायक
संपादक: प्रमोद रंजन
प्रकाशक: द मार्दिनलाइज्ड, वर्धा, 2016
दुर्गा-महिषासुर के मिथक का एक पुनर्पाठ
ब्राह्मणवाद के
विरुद्ध एक सांस्कृतिक विद्रोह
ईश मिश्र
एक मशहूर अफ्रीकन
कहावत है, “जब तक शेरों के अपने इतिहासकार नहीं होंगे, इतिहास शिकारी का ही महिमामंडन
करता रहेगा.” इतिहासकार ज्ञानेंद्र पांडेय ने सही कहा है कि इतिहास अतीत की
स्मृतियों का संकलन होता है और इसलिए उसका चरित्र संकलनकर्ता की वैचारिक निष्ठा पर
निर्भर करता है. सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास की दिशा निर्धारण में मिथकों और उन पर
आधारित पर्वों तथा रीत रिवाजों की अहम भूमिका होती है. कोई भी मिथक निर्वात से
नहीं पैदा होता बल्कि यथार्थ का ही खास परिप्रेक्ष्य से अमूर्तन होता है, कभी कभी
उसमें फंतासियों और अतिशयोक्त की प्रचुरता यथार्थ को अदृश्य बना देती हैं. यथार्थ
कुछ समय के लिए अदृश्य हो सकता है, खत्म नहीं, सूक्ष्म अवलोकन से सामने आ ही जाता
है. महिषासुर मर्दिनी, चंडी दुर्गा का मिथक सुर-असुर (आर्य-अनार्य) संघर्ष के ऐतिहासिक य़थार्थ से अमूर्तित मिथक है. पिछले
2-3 दशकों में दलित प्रज्ञा और दावेदारी में अभूतपूर्व उफान के फलस्वरूप,
ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक वर्चस्व के प्रतिरोध स्वरूप व कुछ दलित बुद्धजीवियों ने
मिथकों का पुनर्पाठ शुरू किया. शुरुआत 20011 में जेयनयू में इस मिथक के पुनर्पाठ
के लिए महिषासुर शहादत दिवस के आयोजन से हुई.
सुविदित है कि 24 फरवरी 2016 को संसद में जेयनयू को देशद्रोह का
अड़्डा की भगवा ब्रगेड की घोषणा और हैदराबाद विवि तथा जेयनयू में जारी सरकारी दमन
के औचित्य के पक्ष में, तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री, श्रीमती स्मृति इरानी ने लगभग
आधे घंटे का बयान दिया. यह भी सुविदित है जेयनयू के देशद्रोह का अड्डा होने के
दस्तावेजी सबूतों में 2014 में जेयनयू में महिषासुर शहादत दिवस के अवसर पर
जारी एक पर्चा पेश किया था, जिसे पढ़ने के पहले ‘इस पाप’ के लिए उन्होंने ईश्वर से
अग्रिम माफी मांग ली. यह पर्चा दुर्गा-महिषासुर मिथक का वैकल्पिक पाठ है. उपरोक्त
कहावत के संदर्भ में शेरों के अपने इतिहासकार पैदा हो गए जिन्होंने इतिहास में
शिकारियों के महिमामंडन का खंडन शुरू कर दिया. इस पर्चे में लिखा है कि महिषासुर
एक न्यायप्रिय, शक्तिशाली असुर (अनार्य) राजा था जिसे युद्ध में परास्त करने में
असमर्थ सुर (आर्य) छल से एक औरत के जाल में फंसाकर धोखे से मार दिया और चंडी
दुर्गा नाम देकर उसकी पूजा करने लगे.
जैसा कि सोसल मीडिया
में बहुचर्चित है कि आदिम जाति के तौर पर दर्ज असुर समेत तमाम आदिवासी तथा अन्य
वंचित समुदाय, मीडिया की दृष्टिसीमा से परे दुर्गापूजा के दिन महिषासुर शोक दिवस
मनाते आ रहे हैं. वे अपने को महिषासुर का वंशज मानते हैं. मामला तूल पकड़ा तथा जब
जेयनयू के कुछ क्षात्र समूहों ने महिषासुर शहादत दिवस पर सार्वजनिक कार्यक्रमों का
आयोजन शुरू किया. शेरों के इतिहासकारों का इतिहासबोध शिकारियों को नागवार लगना
लाजमी है. समीक्षार्थ पुस्तक, महिषासुर: एक जननायक, पिछले लगभग पांच
सालों के अंतराल में विभिन्न लेखकों द्वारा दुर्गा-महिषासुर मिथक की भिन्न पाठों
पर लेखों का संकलन है. उपरोक्त अफ्रीकी कहावत के संदर्भ में, यह शेरों
द्वारा शिकारियों के इतिहास को चुनौती देते हुए वैकल्पिक इतिहास लेखन के शुरुआती
दौर की एक महत्वपूर्ण कड़ी है.
देश के विभिन्न भागों में पिछले 4 सालों से
विभिन्न दलित, आदिवासी तथा पिछड़े वर्ग के समूहों द्वारा महिषासुर शहादत दिवस के
आयोजन ब्राह्मणवाद के विरुद्ध जारी सांस्स्कृतिक आंदोलन का हिस्सा बन गया है.
“दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में जब 25 अक्टूबर, 2011 को महिषासुर शहादत दिवस मनाया गया था, तब
शायद किसी ने सोचा नहीं होगा कि यह दावानल की सिद्ध होगा. महज चार सालों में ही इन
आयोजनों ने न सिर्फ देशव्यापी सामाजिक आंदोलन पैदा कर दिया है बल्कि ये आदिवासियों,
अन्य पिछड़ा वर्ग और दलितों के बीच सांस्कृतिक एकता का साझा आधार भी बन रहे हैं. इस साल देशभर में 300 से ज्यादा स्थानों पर
महिषासुर शहादत या महिषासुर समृति दिवस मनाया गया.”
(पृ.79)
पौराणिक कथा का
पुनर्पाठ क्यों? इस सवाल का पुस्तक के संपादक तर्कसम्मत जवाब देते हैं. “किसा भी
कथा ....... के निहितार्थ को समधने के लिए उसके पाठ का विखंडन जरूरी है. आप किसी
भी ब्राह्मण पौराणिक कथा को विखॆडित करते हुए पाएंगे कि वहां नायक-नायिकाओं द्वारा
किए गए अन्यायों और छलों को स्पष्टता से स्वीकार किया गया है तथा उन्हें ही उनका
शौर्य बताकर अतिशयोक्ति ढंग से महिमामंडित किया गया है. इससे यह तो स्पष्ट होता है
कि ब्राह्मणों की नैतिकता मुख्य रूप से शक्ति पर आधारित रही है. न्याय जैसी
अवधारणा से उनका दूर दूर तक का वास्ता नहीं था.” (पृ. 13) दर-असल हर युग में
मिथकों और उनपर आधाकित उत्सवों का इस्तोमाल वैचारिक/सांस्कृतिक वर्चस्व का एक
प्रमुख आधार रहा है. “वस्तुतः यह पुनर्पाठ न्याय की अवधारणा और मनुष्योचित नैतिकता
की स्थापना के लिए है. सामर्थ्य पर सच्चाई की विजय के लिए है.” पौराणिक सुर असुर
संघर्षों के बारे में राहुल सांकृत्यायन समेत तमाम विद्वानों ने सुर-असुर संघर्षों
को आर्य-अनार्य संघर्षों का पौराणिककरण बताया है.
“जिस तरह युद्धों के छलों का विवरण पौराणिक कथाओं में मिलता है, उससे प्रतीत होता
है कि महिषासुर अपने समयके शूर-वीर तथा उस सामाजिक तबके के सामाजिक-राजनैतिक
नेतृत्वकर्ता थे जिनके जीवन मूल्य सुरों (ब्राह्मण/आर्यों) से भिन्न थे. उनके पास
सुरों से अधिक शक्ति, साधन और धन भी था. उन्हें हरा पाना सुरों के ले संभव नहीं हो
पा रहा था. अतः उन्हें पराजित करने के लिए सुरों ने महिला का छलपूर्वक उपयोग कियौर
वे सफल रहे.” (पृ.14) अनादिकाल से आर्थिक-राजनैतिक वर्चस्व के लिए, शासक वर्ग
सांस्कृतिक वर्चस्व का इस्तेमाल करते आए हैं. जैसा कि मार्क्स ने जर्मन
आइडियालॉजी में लिखा है कि शासक वर्ग के
विचार ही शासक विचार होते हैं, जिसे युगचेतना कहते हैं. पूंजीवाद महज माल का ही
नहीं विचारों का भी उत्पादन करता है. जातिवाद के विनाश के लिए अस्मिता गत दलित
चेतना का जनवादीकरण जरूरी है, और सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के लिए जातिवाद का
विनाश जरूरी है. मिथक और पौराणिक कथाएं ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक वर्चस्व को खाद-पानी
प्रदान करते हैं. पुस्तक के संपादन प्रमोद रंजन ठीक कहते हैं कि महिषासुर का
पुनर्पाठ ब्राह्मणवाद के विरुद्ध एक ‘सांस्कृतिक क्रांति” का उद्घोष है. जैसा ऊपर
कहा गया है, शेरों ने शिकारियों का इतिहास मानने से इंकार कर वैकल्पिक इतिहास
लिखना शुरू कर दिया है.
पुनर्पाठ
किताब और विषयवस्तु
के परिचयात्मक. ज्ञानवर्धक लेखों के बाद पुनर्पाठ की शुरुआत प्रेमकुमार मणि के
शोधपूर्ण, तर्कसम्मत लेख, किसकी पूजा कर रहे हैं बहुजन? से होती है. “.....
शक्ति की आराधना का पुराना इतिहास रहा है, लेकिन यह इतिहास बहुत सरल नहीं है.
....... सिंधु घाटी सभ्यता के समय शक्ति का जो प्रतीक था, वही आर्यों के आने के
बाद नहीं रहा. पूर्व वैदिक काल, प्राक् वैदिक काल में शक्ति के केंद्र अथवा प्रतीक
बदलते रहे. आर्य सभ्यता का जैसे-जैसे प्रभाव बढ़ा, उसके विविध रूप हमारे सामने
आए.” (पृ.17) वे सिंधु घाटी सभ्यता को द्रविड़ों की सभ्यता मानते हैं जिनकी,
“सभ्यता में शक्ति पूजा का कोई माहौल नहीं था.” “शक्ति पूजा का माहौल बना आर्यों
के आगमन के बाद. सिंधु सभ्यता के शांत-सभ्य गोपालक द्रविड़ों को अपेक्षाकृत बर्बर
अश्वारोही आर्यों ने तहस-नहस कर पीछे धकेल दिया. द्रविण आसानी से पीछे नहीं गए
होंगे. भारतीय मिथकों में ये जो देवासुर संग्राम है वह इन द्रविड़ों और आर्यों का
ही संग्राम है.” (पृ.18) इसके बाद वाला लेख भी प्रेमकुमार मणि का है जिसमें वे वाजिब
सवाल उठाते हैं, “हत्याओं का जश्न क्यों?”
यद्यपि ब्राह्मणवादी
पाठ के इन वैकल्पिक पाठों में महिषासुर और दुर्गा के प्रतीकों की व्याख्या में
मतैक्य नहीं है, लेकिन इस बात पर आम सहमति है कि महिषासुर अनार्य, मूलनिवासियों,
असुरों का एक लोकप्रिय और जनपक्षीय राजा या गणनेता था जिसे आर्य (सुर) युद्ध में न
पराजित कर सके तो एक महिला के इस्तेमाल से छल-कपट से उसे मार दिया. मधुश्री
मुखर्जी का शोधपरख लेख, संथाल संहारक दुर्गा अपने शोध और पुस्तकों के हवाले
से इस निष्कर्ष पर पहुंचती हैं, “कुल मिलाकर दुर्गा और महिषासुर की कथा आर्यों और
आस्ट्रो-एशियाई कबीलों के बीच प्रागैतिहासिक संघर्ष की कथा है. संभव है संघर्ष के
पहले ही दुर्गा को मुख्यधारा में शामिल कर लिया गया होगा और वे
वर्चस्ववादीसंस्कृति की प्रतीक बन गयी होंगी.” ब्रजरंजन मणि का लेख, दलित-बहुजन
दृष्टिकोण और महिषासुर विमर्श ब्राह्मवादी ऐतिहासिक दृष्टिकोण पर करारी चोट
करते हुए, बताता है, “इसका मूल ग्रंथ ‘देवी माहात्म्य’ जो पांचवीं से सातवीं
य़ताब्दी के बीच मार्कंडेय पुराण में एक कविता के रूप में लिखा गया है. ....... यह
युद्ध की देवी उन पुरानी जादूगरनियों की परंपरा को एक हिंसक ऊंचाई तक उठा ले जाती
है.जिसमें मोहिनी (वेश परिवर्तित विष्णु) और
तिलोत्तमा (एक अलौकिक सुंदरी) असुरों या अनार्यों
को मोहित करती है ताकि सुर या आर्य ब्राह्मण उन्हें पराजित कर सकें.”(पृ.38) ब्राह्मणवादी ग्रंथों के हवाले से इस
सुव्याख्योयित लेख में, मणिजी बहुत प्रासंगिक सवाल उठाते हैं, “भारतीय ब्राह्मणों
ने सिर्फ इतिहास-पुराण क्यों लिखे, जो ऐतिहासिक दस्तावेजों के विपरीत मनगढ़ंत
विवरण भर होते हैं और जो सच्चाई को उजागर करने की बजाए उसे छिपाते अधिक हैं.”
(पृ.40)
ऐतिहासिक सच्चाई है
कि ब्राह्मणवाद ने वर्चस्व के लिए इतिहास को मिथकीय, पौराणिक और अलौकिक पात्रों और
चमात्कारिक काल्पनिक घटनाओं के जंजाल में कैद कर, समाज के आर्थिक-बौद्धिक विकास को
जड़ बनाए रखा. ऐसा वह ज्ञान को निहित स्वार्थों की सीमाओं में परिभाषित कर, शिक्षा
के माध्यम से उस पर एकाधिकार स्थापित कर सका. ज्ञान की ब्राह्मणवादी परिभाषा को
सर्वमान्य बनाने के लिए जरूरी था ज्ञान की अन्य परिभाषाओं तथा प्रतीकों को नष्ट
करना. गौर तलब है कि पुष्यमित्र शुंग द्वारा छल से आखिरी मौर्य सम्राट की हत्या कर
मगध सम्राट बनने के साथ ही लोकायत की भौतिकवादी ज्ञान प्रणाली और बौद्ध ग्रंथों
तथा संस्थानों-प्रतीकों को नष्ट करने की प्रायोजित शुरुआत हुई. जाने माने चिंतक
राम पुनियानी अपने लेख दुर्गा महिषासुर व जाति की राजनीति में पौराणिक
ग्रंथों की व्याख्या की जटिलता की बात स्वीकार करते हुए, मैसूर को महिषासुर के नाम
पर रखा बताते हैं. मिथकों की ब्राह्मणवादी व्याख्या पर विवेचना में वे कार्ल
मार्क्स को प्रतिध्वनित करते हैं. “वर्चस्वशाली विमर्श हमेशा वर्चस्वशाली
जातियों/वर्गों द्वारा निर्मित और प्रायोजित होता है.” (पृ.91) वे मिथकों की इन
वैकल्पिक व्याख्याओं को ब्राह्मणवादी वर्चस्व के विरुद्ध विमर्श का हिस्सा मानते
हैं. “यह व्याख्या उस सामाजिक परिवर्तन के साथ उभरी, जिसका आगाज पददलित वर्गों
द्वारा अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष शुरू करने से हुआ.”(पृ.92)
पुस्तक में, जेयनयू
में 2011 में पहले चर्चित आयोजन के बाद देश के विभिन्न हिस्सों में महिषासुर की
याद में आयोजित कार्यक्रमों तथा मीडिया और सोसल मीडिया में उस पर चले विमर्श का
विस्तृत लेखा-जोखा के बीच प्रेमकुमार मणि का भारत को समझो मोदी जी के जरिए
उनसे “झूठ के लाक्षागार” से निकलने का आग्रह, रेगिस्तान में मोती की तलाश सा लगता
है. इसी पौराणिकता की आड़ में तो उनका उल्लू सीधा हो रहा है, वे इस लाक्षागार से
खुद नहीं निकलेंगे. “वर्चस्व प्राप्त लोग उपनी पौराणिकता के बहाने अपने वर्स्व को
धार देते हैं, समाज के पीछे रह गए लोग अपनी पौराणिकता की नई व्याख्या कर
सांस्कृतिक प्रतिकार प्रतिरोध करते हैं. वर्चस्व प्राप्त लोग राम की पूजा करने को
कहते हैं, हमें अपने संबूक की याद आती है जिसकी गर्दन राम ने केवल इसलिए काट दी कि
वह ज्ञान हासिल करना चाहता था.”(पृ.97)
पुस्तक के संपादक
प्रमोद रंजन इस सांस्कृतिक क्रांति को ब्राह्मणवादियों तथा मार्क्सवादियों
से बचाने की सदिक्षा जाहिर किया है. मेरी राय में रोहित बेमुला की शहादत से उपजे जयभीम-लालसलाम
नारों की एकता के साथ चल रहा छात्र आंदोलन एक नए सांस्कृतिक क्रांति की शुरुआत का
द्योतक है. समकालीन तीसरी दुनिया में जेयनयू के छात्र आंदोलन पर दो लेखों –
भारत में नवमैकार्थीवाद: जेयनयू और देशद्रोह (अप्रैल, 2016) और जेयनयू
का विचार तथा संघी राष्ट्रोंमाद (मई, 2016) में इस लेखक ने जय भीम –
लालसलाम के नारे के साथ जारी छात्र आंदोलन को एक ब्राह्मणवाद और नवउदारवाद के
विरुद्ध एक सांस्कृतिक क्रांति की शुरुआत बताया है. जेयनयू में नवगठित संगठन भगत
सिंह अंबेडकर स्टूडेंट्स ऑर्गनाइजेसन का इस नई क्रांति की सैद्धांतिक यात्रा की प्रतीकात्मक शुरुआत की
है. इसका मुख्य नारा है, “जाति के विनाश बिना क्रांति नहीं, क्रांति के बिना जाति
का विनाश नहीं.” राम पुनियानी जी की बात से बिल्कुल सहमत हूं कि मिथकों की वैकल्पिक
व्याख्याएं एक नई दलित चेतना की द्योतक है. वंचितों को अहसास हो गया है कि जिन
शास्त्रों के बल पर ब्राह्मणवाद ने समाज को जाति-व्यवस्था का गुलाम बनाए रखा, उसका
विखंडन जरूरी है. मिथकों की नई व्याख्याएं इसी प्रक्रिया की कड़ियां हैं. चूंकि
वर्चस्व सब स्तरों पर होता है, आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक, प्रतिरोध भी सभी
स्तरों पर होना चाहिए, लेकिन एक दूसरे से अलग-थलग नहीं, मिलकर. जय भीम – लाल सलाम
नारे की एकता सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय की लड़ाइयों की एकता का प्रतीक है.
गुजरात और पंजाब में हाल दलित आंदोलनों में कुछ सफलताएं मिलीं क्योंकि प्रतिष्ठा
की लड़ाई जमीन की लड़ाई से एकीकृत हो गयी. वामपंथियों और सामाजिक न्यायवादियों
दोनों को समझना पड़ेगा कि भारत में शासक जातियां ही शासक वर्ग भी रहे हैं और जैसा
कि भगत सिंह ने कहा है, जातिवाद और सांप्रदायिकता की विचारधाराओं का विनाश
वर्गचेतना के प्रसार से ही होगा.
ईश मिश्र
17 बी विश्वविद्यालय
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विश्वविद्यालय
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