Tuesday, December 8, 2015

आग लगाना ही जिस मजहब का उसूल है

आग लगाना ही जिस मजहब का उसूल है
वह मजहब इंसानियत के लिए नामाकूल है
एक क्या सब मजहबों का यही है रंग-ढंग 
रहने नहीं देते इंसानों को एक दूजे के संग
सिखाता है मजहब आपस में बैर करना
मारकर एक दूजे को श्मसान की सैर करना
हुए हैं दुनिया में जितने भी रक्तपात 
सभी में रहा है मजहबी बैर का हाथ 
पड़ती है शोषित पर जब भूख की मार
मजहब में ढूंड़ता राहत का आधार
रहा है हर  युग में जो शासकीय हथियार
होने नहीं देता  जो मानवता का उजियार 
 देता धर्म गरीब को खुशी की खुशफहमी
बरकरार रहती अज्ञान से यह गलतफहमी
मिलेगी इंसान जब खुशी सचमुच की 
खत्म हो जायेगी जरूरत खुशफहमी की
साथ खड़ी होगी जब मेहनतकशों की कतार
खत्म हो जायेगी ईश्वर के सहारे की दरकार
खुद बंद हो जायेंगी मजहबों की दुकानें सारी
बेरोजगार हो जायेंगे सब मुल्ले पंडे और पुजारी
न बचेंगी दिगर खुदाओं की दिगर विरासतें
ख़ाक़ हो जायेंगी नफरत की मजहबी सियासतें
आयेगा दुनिया में तब अमन-चैन का बिहान
धरती बन जायेगी मानव मुक्ति का उद्यान 
(बस यों ही)
(ईमिः 08.12.2015)

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