कभी कभी कुछ युवा साथी बीते दिनों की कुछ घटनाएं
सुनकर कहते हैं मुझे अपनी जीवनी लिखनी चाहिए लेकिन जीवनी तो असाधरण उपलब्धियों
वालों की लिखी जाती है मैंने कथनी-करनी में एका के निरंतर प्रयासों के साथ
ईमानदारी से जीते हुए साधरणता के अटूट प्रेम में पड़कर असाधरणता की तरफ ताका ही
नहीं. अभी युवा साथी तथा क्रांतिकारी कवि, लेखक अभिशेक को कहानियों पर राय के लिए
यह पत्र लिखते हुए दिमाग में आया कि असाधरणों की जीवनी तो और लोग भी लिख देंगे.
साधरणों को तो खुद ही लिखनी पडेगी. कोई जरूरी तो है नहीं कि जीवनी जन्म से ही शुरू
करके तो लिखी जाये कहीं से शुरू कर फ्लैश-बैकों की ऋखंला से
भी तो लिखी जा सकती है. मैं सोच रहा हूं टुकड़ों में लिख कर जोड़ता चलूं. फेसबुक
पर तुकबंदी में कमेंट करते करते कवि बन गया, कोई माने या न माने. इसका शीर्षक “बेतरतीब: एक आवारा के फुटनोट”
सोचा है तथा यह पत्र
पहला फुटनोट है.
साथी यह गुलेरी जी
की आत्मा का संपादित (भाषा) संस्करण है तथा उसी के आगे-पीछे की लिखी एक और.
गुलेरीजी की आत्मा में गुलेरी जी का नाम हटाने के लिए थोडा पुनर्लेखन करना पड़ेगा, पुराणों से किसी की आत्मा ढूंडनी पडेगी. इससे अच्छा इसका
बाप... हंस में स्वीकृत कर अस्वीकृत कर दिया था. एक अकारण के कारण हर सुबह गोरख
पांडे तथा खुर्शीद की याद आने लगी ..... खैर फोन पर बात करूंगा. मैं बचपन से ही
कहानियां लिखना चाहता था, लेकिन लिखने का आत्मविश्वास नहीं पैदा कर पाया, लंबे-लंबे पत्र लिखने के सिवा. यमए में कई शुरू
किया एक खतम भी, छपनीयता पर अविश्वास के चलते कहीं भेजा नहीं.
कालांतर में सब काल के गाल में समा गयीं. 1987 में
एक खास जानकारी से कहानीकार का भूत फिर सिर पर सवार हो गया तथा कॉमरेड का नौकर
शीर्षक से एक प्रयोगात्मक कहानी लिखा गयी. विषय गंभीर तथा वैचारिक होने के नाते
कभी उस पर फुर्सत से और काम करने के लिये टाल दिया और टला काम टल ही जाता है उसके
थोड़े दिनों बाद एक पत्रिका में नौकरी करते हुए एक व्यक्तित्व से प्रभावित
सातवां सवार लिखा. इसमें बेहतरी की संभावनाओं के चलते टाल दिया. नौकरी छूटने
के बाद कलम की मजदूरी से घर चलाते हुए, बौद्धिक-भौतिक
आवारागर्दी तथा धरने-जुलूसों में भागीदारी के समय में बिना कटौती के ब्यंग लेखन का
दस्साहसी इरादा किया और कबीर कौन था लिखा गया जो नभाटा के आठवां कॉलम में छपा
था.इंदिरा-राजीव शासन पर तुलनात्क लेख लिखना था. इससे अच्छा इसका बाप ही था कहावत
के तौर पर इस्तेमाल करने की सोचा लेकिन लगा कि लेख कभी भी लिख सकता हूं और इस
कहावत को किस्सागोई की कहानी में बदल दिया. उसके बाद गुलेरी जी की आत्मा लिखा गई.
ये दोनों कहानियां क्रमशः हंस तथा पहल की जवाबी डाक यात्रा के बाद वापस आ गयीं तथा
कहानीकार बनने का इरादा मद्धम पड़ते-पड़ते बुझ सा गया तथा समय भी बचना कम हो गया. 3 साल पहले इन दोनों कहानियों की सुंदर लिखावट में
(हा हा) पांडुलिपियां मिल गयीं. कहानीकार का भूत तो नहीं सवार हुआ लेकिन उन्हें
संपादित कर कम्यूटर में सेव करने का विचार मन में आया अंततः मन की बात अंगुलियों
ने मान ली. इस दौरान मैंने अपने अपने अंदर के कहानीकार का पुनर्अन्वेषण शुरू कर
दिया. एक बढ़िया कथानक सूझा कि एक अकारण से एक अज्ञात आत्म-भय तथा आत्म-अविश्वास
के अवसाद से ग्रस्त हो गया आज निश्चित आगे बढ़ाऊंगा. फाइलों के अगले खोज-अभियान
में शायद कुछ और पुरानी कहानियां मिल जायें. हां एक कहानी लिखी थी पात्र की तलाश.
इन्हें पढ़कर संपादन परामर्श देना.
आभारी रहूंगा. कोई संज्ञान ले न ले मैं कहानियां लिखता रहूंगा. 25 साल पहले 2 खंडों में नक्सल
आंदोलन पर एक उपन्यास की योजना बनाई. प्रामाणिकता के लिए 2 महीने की शोध की
जरूरत थी, खासकर 60 तथा 70 के अखबारों की. अब सोच रहा हूं बिना शोध के ही शुरू कर दूं, शोध लिखने के दौरान
होता रहेगा.
इंकिलाबी अभिवादन के से साथ
ईश
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