Friday, December 18, 2015

बेतरतीब 2


13.12.2015

बेतरतीब 2
सुबह (4 बजे) जब पहली चाय बना रहा था तो दिमाग में आज के कॉलम (इसका मतलब नहीं कि यह दैनिक कॉलम है, इतना अनुशाषित नहीं हूं, होता तो अच्छा होता. लेकिन अब नहीं है तो नहीं है.) का विषय तथा कथ्य बिल्कुल साफ था. लेकिन पहली चाय के साथ शुरू हुआ ब्राह्म मुहूर्त के लंबे आत्मावलोकन तथा आत्मालाप ने और विषयों का समावेश करके मामला गड्ड-मड्ड कर दिया. अवसाद जन्य स्वैक्षिक एकांत के नफे नुकसांन की बात करना चाहता था लेकिन अब सोचता हूं गम की बात क्यों करूं क्यों न कलम को बेतरीबी में तरतीब बनाने के लिए खुला छोड़ दूं. कभी कभी मैं ऐसी मनोदशा में हो जाता हूं जिसके लिए शब्दाभाव में अवसाद कहता हूं. कई बार कारण थोड़ा थोड़ा दिखते हैं कई बार नहीं. भाग्यशाली हूं कि ऐसे दौरे के दौर ज़िंदगी में कम आये. मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता हूं. बार बार अपने को कहता हूं ऐसी ऐसी बातों में क्यों समय या दिमाग नष्ट कर रहे हो. कल को हंसोगे पहले की तरह इस मूर्खता पर. लेकिन मैं बेबस हो अपनी बात नहीं सुन पाता. इस बार का दौरा खास था. मैं एक अज्ञात आत्म-भय, आत्म-अविश्वास से ग्रस्त हो गया. शायद इसी को पागलपन कहते होंगे. मैं अपने विद्याथियों को कहा करता हूं कि प्रतिकूलताओं को ब्लेसिंग इन डिस्गाइज बना लो. अवसाद के दौरे का यह दौर एक कहानी का कथानक दे गया (अगर लिख पाया, शुरू कर चुका हूं) तथा विभिन्न बैचों की मेरी की इला कुछ हरकतों ने गोरख पांडेय कुछ अनपेक्षित बातों के बारे सोचने लगा जो समझ नहीं पाता था. जैसे 1984  की बात होगी क्योंकि खूनी पंजा तभी लिखा था. गोरख का कविता सुनाने की शैली इतनी प्रभावशाली थी कि कई कविताएं सुनते ही याद हो जाती थीं. जैसे खूनी पंजा तुरंत याद हो गया. वे सांस्कृतिक समूहों को अपनी गीथों के धुन भी बताते थे. ओल्ड कैंपस लाइब्रेरी कॉरीडोर में चाय के साथ इस कविता पाठ के बाद, पेरिस कम्यून पर चर्चा होने लगी. दिलीप उपाध्याय (दिवंगत, इनके बारे में फिर कभी) उर्मिलेश (वरिष्ठ पत्रकार), राजेश राहुल (1991-92 से लापता, इनके बारे में भी फिर कभी), शशिभूषण उपाध्याय (इग्नू में इतिहास के प्रोफेसर) के अलावा ठीक से याद नहीं कि और कौन थे. गोरख कम्यून के कुछ विशिष्ट नेताओं के बारे में बता रहे थे जो हम नहीं जानते थे. तभी चाय की दुकान वाला लड़का कप लेने आया, गोरखजी को पता नहीं क्या हुआ कि पेरिस कम्यून के बारे में बताते बताते उस लड़के पर पैर चला दिया. सब हतप्रभ. उन्हें जब एहसास कराया तो मॉफी मांग कर बताया कि उन्हें लगा कि वह उनके ऊपर चढ़ रहा था. वैसे बचपन में दादा जी मुझे पागल कहते थे. उनका अनुसरण हमउम्र बच्चों ने भी कर लिया. गांव की असंवेदनशीलता हैरान करती है. विकलांगता के हिसाब से लंगड़ या सूरदास जैसे नामकरण को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है, उनकी भी जिन्हें यह नाम दिया जाता था.

मैं अपनी शरीर के प्रति कृतज्ञ रहता हूं कि मैं इसके साथ गैर-इरादतन अत्याचार करता रहा हूं. अक्टूबर में स्टूडेंट्स के साथ मेक्लॉडगंज में लंबी ट्रेकिंग में इसने आश्वत किया. लेकिन मन की ऐसी मनमानी शरीर को सुस्त कर देती है, पैरों में कमजोरी महसूस होती है तथा बेमन से बढ़ते हैं क्योंकि उन्हें बढ़ना ही होता है.

बेतरतीब विषयांतर के लिए क्षमा चाहता हूं. दरअसल यहीं से शुरू करना था आत्मावलोकन तथा आत्मालाप का सिलसिला टूटा मोबाइल की घंटी से मतलब इमा उठ गयी

(अधूरा)





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