Monday, December 7, 2015

इससे अच्छा इसका बाप ही था

कहानी
इससे अच्छा तो इसका बाप ही था
n  ईश मिश्र

एक था राजा’, के बाद का पॉज थोड़ा लंबा हुआ तो लिप्पी सर पर सवार हो गयी। फिद्दी भर की लड़की, बच्चों के अधिकार तथा बापों के कर्तव्य पर लेक्चर देने लगी। हम लोगों की बाप के सामने बोलती बंद रहती थी।   यह लड़की, छुट्टियों में कुछ दिन मां के साथ रह कर आती है तो नाक में दम कर देती है। कहां से लाऊं रोज-रोज इतने किस्से? अब मां की बात अलग है। पढ़ी-लिखी तो नहीं है लेकिन उसके पास किस्सा-कहानियों का अंबार है। घर के सारे काम, गाय-बकरी का चारा-पानी, अब्बा का हुक्का-पानी सब जिम्मेदारियों के बीच गोधूली बेला में किस्से सुनाने का वक़्त अब भी निकाल ही लेती है। सालों साल से वही किस्से सुनाये जा रही है। बच्चों का यह मनोरंजन ही उसका भी मनोरंजन है। उसका किस्सागोई का अंदाज़ ऐसा है कि हम बच्चे किस्से को कभी, किसी लोक की सच्ची घटना मान उस समय के उस लोक में मन-ही-मन विचरण करने लगते। हमारे बचपन में महज धुनियाने के ही नहीं यहां तक बभनौटी और ठकुराने के बच्चे भी घर वालों से बहाना बनाकर आ जाते थे। पूरे गांव में दो ही किस्सागो के किस्से बच्चों की विमर्श के विषय होते। बच्चों में  नूरी काकी बड़ों में नूरी जुलाहन यानि मेरी मां तथा बदामा पासिन। वैसे धुनियाने में जुलाहा परिवारों की संख्या अधिक है, शायद कभी कम रही होंगी या बाद में बसे होंगे। पसियाना तथा धुनियाना सटे हुए हैं। जहां तक पढ़ाई-लिखाई का सवाल है तो मां क्या धुनियाने का कोई मर्द भी स्कूल नहीं जाता था। मां की पीढ़ी की तो छोड़िए हमारी पीढ़ी में भी प्राइमरी के आगे पढ़ने वाला धुनियाने का मैं अकेला लड़का था। बचपन की यादों का विचरण लंबा चलता यदि लिप्पी का धैर्य गुस्से में न बदलता।

अजीब बाप हो, किस्सा शुरू करते ही पूर्णविराम लगा दिया। जब भी कहीं से कोई नया शब्द सीखती है सबसे पहले मुझ पर प्रयोग करती है। मैं किस्सा-कहानियों के राजा-रानियों के बारे में सोचने लगा और यह भी कि राजा-रानी के बिना किस्से क्यों नहीं बनते। मेरा मन किस्से से उचट चुका था। मैं उसे समझाने की कोशिस करने लगा कि दादी-नानी टाइप के किस्से अब बीते दिनों की बात हो चुकी है। यह सच्चाई भी समझाने का प्रयास किया कि इस तरह की किस्सागोई हमारे गांव जैसे या जंगली आदिवासी इलाकों में ही सीमित रह गये जो बिजली या टेलीविजन की असुविधा से हीमैन, स्पाइडरमैन, सुपरमैन, मिकीमाउस जैसे अति आधुनिक, चमत्कारिक, गतिशील चरित्रों की पहुंच से बाहर हैं।

 लेकिन यह लड़की अपनी जिद पर अड़ी रही। मैंने उसे राजकाज के किस्सों की जटिलता में सर खपाने की बजाय टेलीविजन पर कार्टून देखने  या फिर बाकी बच्चों की तरह गुड्डा-गुड़िया खेलने की बिन मांगी सलाह दी. इस सब का उल्टा असर हुआ. वह नारे लगाने लगी, एक था राजा, उसके बाद. एक था राजा........ “. समर्पण ही एकमात्र विकल्प था. मैं इस शर्त के साथ किस्सा जारी रखने को राजी हो गया कि वह ज्यादा नुक्ता-चीनी नहीं करेगी.
 
एक था राजा. उसके शिलालेखों में लिखा है  वह बहुत पराक्रमी, विद्वान तथा नेक दिल था. वह अपनी वफादार प्रजा पर जान लुटाता था, प्रजा भी उससे बेइंतहां प्यार करती थी इतना कि........

समझौते की शर्त भूल लिप्पी पूछ बैठी. शिलालेख, क्या होता है? “  

 शर्त का पहला उल्लंघन था. चेतावनी देकर किस्सा आगे बढ़ाता कि मैडम सारा लाज-लिहाज ताक पर रख कर सीधे नाम के संबोधन पर उतर आयीं.   सुनिए अज़ादार अंसारी सा, नुक्ता-चीनी की शर्त है, सवाल पूछने की नहीं. आप चाहते हैं आपकी बातें नमाज की तरह बिना समझे सुनती जाऊं. शिलालेख क्या होता है?” बच्चों से दोस्ती ढेले की सनसनाहट वाली कहावत सही लगी. चुप ही रहना मुनासिब था नहीं तो अपना तकिया कलाम दोहरा देगी कि उसके बाप ने यही सिखाया है। निजी अवमानना को बापों की जमात की सामूहिक अवमानना समझ नज़रअंदाज करने में ही भलाई थी। वैसे बात में उसके दम  तो था लेकिन कहने का ढंग अशिष्ट था। समुचित संबोधन का मेरा आग्रह यह कहकर खारिज कर दिया कि किसी को सही सही नाम के साथ साब लगाकर बुलाना अनुचित नहीं होता। अभिव्यक्ति की आज़ादी सिर्फ बापों के लिए नहीं है, बच्चों के लिए भी होनी चाहिए। बहस का उल्टा असर देख, उसके सवालों का जवाब देने में ही भलाई थी। शिलालेख विभाग शासनतंत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता था. इस विभाग का संचालन राजा के विश्वस्त, प्रतिभाशाली विद्वानों, कलाकारों तथा इतिहासकारों के हाथ में था. यह विभाग राजा की नीतियों तथा पुण्य कामों, युद्ध के मैदान में उसके पराक्रम वगैरह वगैरह की बातें लोकलुभावन भाषा में, चुनिंदा शिलाखंडों पर लिख कर समुचित जगहों पर गाड़ दिया जाता था जिससे कि आने वाली पीढ़ियां उन्हें पढ़कर अपने गौरवशाली अतीत पर गर्व करते हुए वर्तमान की समस्याओं को भूलकर सुंदर भविष्य का सपना देख सकें. इसीलिए ऐसी सारी बातें मिटा दी जाती हैं जिन्हें पढ़कर भावी पीढ़ियां अतीत पर शर्म महसूस करें और भविष्य के सुंदर सपने न देख सकें. ऐसा करते समय भावी इतिहासकारों की सुविधा का भी ध्यान रखा जाता था उसके चेहरे पर गंभीर प्रश्नचिन्ह देख मैंने उसे सारनाथ यात्रा के दौरान अशोक के लाट की याद दिलाया तो उसे शिलालेख समझ में आ गया और बोली, फिर, और क्य़ा लिखा है, उसमें, शिलालेख में?”

राजा बहुत पराक्रमी था। उसका बाप भी पराक्रमी था और उसका भी बाप। बहुत बड़ी सेना उसे विरासत में मिली थी जिसे इसने और बड़ा किया। आस-पास के राज्यों पर हमला करके विरासत का विस्तार किया। कई राज्य हमले के डर से खुद मिल गये तथा राजा से सूबेदार बन गये बीच में टोककर बोल पड़ी, दादी के किस्सों में तो राजा-रानी होते हैं, सूबेदार कहां से आ गया”?  मैं उसके साथ इस बात पर उलझने की बजाय कि यह नुक्ता-चीनी है या सवाल-जवाब, इतिहास की गतिविज्ञान के नियम का सहारा लिया.

इतिहास की गाड़ी में रिवर्स गीयर नहीं होता तथा हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है. उनकी कहानी में रानी होती है और इस कहानी में सूबेदार है.मेरी इस बात पर उसका मुदित होना ज्यादा देर रहस्य नहीं रहा. अजादार से सीधे पूज्य पिता पर आ गयी. मासूमियत के अभिनय के साथ बोली,तारीफ के लिए शुक्रिया पूज्य पिताजी, मैं तो यह पहले से जानती हूं. तभी तो आप को बुद्धू बना देती हूं. ऐसे खिलखिला कर हंसने लगी जैसे कोई बहुत बड़ी जंग फतह किया हो, वापस सवाल पर आ गयी, लेकिन यह सूबेदार होता क्या है”?

यह लड़की है कि सवालों की पुड़िया. शर्त में सवाल-जवाब भी शामिल कर लेना चाहिए था, लेकिन अब सोचने से क्या फायदा? कोई उदाहरण ही तुरंत नहीं आ रहा था दिमाग में? मैंने उल्टा सवाल किया, तुम किस देश मे रहती हो”? अबकी वाकई मासूमियत से बोली, आप ही की तो बेटी हूं, आपके ही साथ रहती हूं, यहीं दिल्ली में, इंडिया की राजधानी, कैसे कैसे सवाल करते हो, सही में बुद्धू हो क्या? मैं तो सोचती थी दादी प्यार में बुद्धू कहती हैं. सूबेदार के बारे में नहीं बताना है तो मत बताओ। किस्सा आगे बढ़ाओ। उल्टे-सुल्टे सवाल मत पूछो। प्यारे अब्बू ज़िगर। अजीब बकैती है, इनके सवाल सीधे-सीधे हैं और मेरे उल्टे-सुल्टे! “इंडिया यानि हिंदुस्तान का राजा कौन है?” खिलखिलाने की बजाय ठहाका मार कर बोली, इतना भी नहीं जीनते कि यहां राजा नहीं होता। प्रधानमंत्री राज करता है। इतना तो बच्चे भी जानते हैं कि राजीव गांधी प्रधानमंत्री हैं। उनकी अम्मी भी प्रधानमंत्री थी जिन्हें बदमाशों ने मार दिया था। उनके नाना भी प्रधानमंत्री थे, जो खुद मर गये थे। चलो किस्सा सुनाओ. नहीं जानना सूबेदार को

उसे शांत करते हुए बात खत्म किया, प्रधानमंत्री के दूत के रूप में जैसे हर सूबे में एक राज्यपाल होता है वैसे ही सूबेदाऱ अपनी रियासत में राजा का दूत होता था। तुनक कर बोली, धत्तेरे की। इत्ती सी बात इत्ता लंबा खींच दिया

राजा जिस राज्य को फतह करता तो लूट की सामग्री में बहुत सी औरतें भी होतीं। चुनिंदा-चुनिंदा अपने हरम के लिए रख लेता बाकी वज़ीरों तथा किस्म-किस्म के खासम-खासों में योग्यता तथा राजनिष्ठा के अनुपात में बांट देता

उसके चेहरे पर प्रश्नचिन्हों का कोलाज सा बन गया लेकिन बिना कुछ पूछे बालसुलभ उत्सुकता से मुझे देखती रही। मुझे लगा उसे हरम शब्द खटक रहा होगा. हरम शब्द तुम्हारे लिए शायद नया होगा। हरम महल में राजा की बीबियों की रिहाइश के हिस्से को कहा जाता था। किसी राजा को जो भी औरत पसंद आ जाती उससे शादी करके हरम में डाल देता। जंग में लूटी गई औरतें तो बाकी माल की तरह राजा की संपत्ति होती थीं, जो चाहे सो करे। कोई कोई राजा अपने हरम को रनिवास कहते थे. समझीं”?

उसके सर हिलाने से हां या न स्पष्ट नहीं हो पा रहा था। निराशाभाव में बोली, जो थोड़ा बहुत समझ आया सो आया, जितना समझाते हो उससे अधिक उलझाते हो। हरम तो समझ आ गया। जैसे घोड़ों के घर को अस्तबल कहा जाता है वैसे ही बीबियों के घर को हरम। एक बात कहूं, बुरा मत मानना लेकिन या तो तुम्हारी हर अगली पीढ़ी के तेजतर वाली बात गलत है, या तुम अपवाद हो। दादी की किस्सागोई में जो सरल प्रवाह है कि एक था राजा से किस्सा खतम, पैसा हज़म तक ऐसी लय होती है कि पता ही नहीं चलता कि कब किस्सा शुरू कब खतम. तुम इतनी देर से एक था राजा, शिलालेख, हरम पर अटके हुए हो। उतने में ही इतने सवाल खड़ा कर दिया कि पूछने लगू तो किस्सा अटका ही रहेगा। औरतों को लूट कर लाता था जैसे कोई गाय-भैंस हों. छि छि। और क्या करता था”?

लिप्पी किस्से के प्रक्षेपणों से बोर हो रही थी, लेकिन ऐतिहासिक तथ्यों के साथ छेड़-छाड़ भी तो नहीं कर सकता। अपवाद न होना प्रमाणित करने में और समय नष्ट न कर किस्सा जारी रखा। राजा कला-साहित्य-ज्ञान का संरक्षक था। सारे बड़े कवि, लेखक, नाटककार, इतिहासकार, शिल्पी, कलाकार तथा अन्य़ फनकाऱ ऊंची तनख्वाह पर दरबार की शोभा बढ़ाते थे. इनका मुख्य काम था राजा का मनोरंजन तथा महिमामंडन और शिलालेख की ऐतिहासिक सामग्री का चयन एवं संकलन

दरबार में नाटककार की उस्थिति उसे खटक रही थी, लेकिन नाटककार को तो थियेटर में होना चाहिये दरबार मे उसका क्या काम? अब यह मत कहना कि यह नुक्ता-चीनी है। गुस्सा होने की बजाय मैं दुलार कर बोला, दरबार भी थिएटर ही होता था, जहां हर पल हर कोई अभिनय कर रहा होता। नाटककार टू-इन-वन होते थे. अपने अभिनय से राजा का मनोरंजन करते तथा राजाको अभिनय सिखाते तथा रिहर्सल, करवाते। दरबार में नाटककारों के खास रुतबे से अन्य दरबारी जलते थे तथा नाटककार न होने की ग्लानि से ग्रस्त रहते थे. नाटककार, यह समझो कि राजा के अभिनय के ट्यूटर से थे। अभिनय-कला का ज्ञान शासन-शिल्प की अनिवार्य योग्यता थी। लोगों की धार्मिक भावनाओं की बात न होती तो अयोध्या के राजा राम के मर्यादा पुरुषोत्तम से भगवान बनने में उनकी अद्भुत अभिनय क्षमता की भूमिका का ज़िक्र करता। लिप्पी अभिनय तथा शासन-शिल्प के संबंधों की व्याख्या में उलझने की बजाय रामायण सीरियल से अर्जित ज्ञान बघारने का मौका कैसे छोड़ती। हनुमानी अंदाज़ में बोली, जयश्रीराम वाले राम जी। प्रतिक्रिया की बिना प्रतीक्षा के बोली, फिर”?

राजा के सैनिक अपने भेष में तथा जासूस भेष बदलकर राज्य के हर कोने में फैले थे। इनकी ड्यूटी थी प्रजा के अंदर वफादारी और देशभक्ति की भावना का संचाऱ करना तथा उन्हें स्वेच्छाफूपूर्वक अपने महान राजा के प्रति निष्ठावान बनाए रखना। राजा के प्रति निष्ठा की अपूर्णता देशद्रोह था। जासूसों की ड्यूटी संभावित देशद्रोहियों की पहचान करना तथा उसके बाद सेना कभी गुप्त तो कभी घोषित तरीके से संभावनाओं को जन्मने से पहले समाप्त कर देती थी। इस कन्या में चिंताजनक हद तक आध्यात्मिक धैर्य की कमी है। सेना तथा जासूसी विभाग की और जिम्मेदारियों का वर्णन करता कि टपक पड़ी, टपका देते थे”? बच्चों की भाषा पर बंबइया फिल्मों के असर पर प्रवचन पर समय नष्ट बेजा ही होता.  

हां टपका देते थे। लेकिन टपकाने से पहले उनके नाम राज्य के सनद विभाग  द्वारा देशद्रोही की सनद जारी की जाती थी। सेना तथा जासूसों की  सबसे अहम जिम्मेदारी थी राजा की सुरक्षा। प्रजा में वफादारी तथा राजनिष्ठा की सामग्री तैयार करने तथा जन-जन तक पहुंचाने के काम राजनिष्ठा विभाग का था। शिक्षा विभाग इसका एक उपविभाग था। राज्य का सर्वश्रेष्ठ निष्ठावान विद्वान इस विभाग का अध्यक्ष होता था जो निष्ठा की कसौटी पर कसकर अन्य पदों पर विभिन्न क्षेत्रों के विद्वानों का चयन करता। राजकीय गुरुकुल के प्राचार्य तथा राजपुरोहित इस विभाग के परामर्शदाता थे। लिप्पी राजा की  सुरक्षा पर अटकी हुई थी। राजा जब इतना नेक तथा प्रजा मे लोकप्रिय था प्रजा उससे बेहद प्यार करती थी तो उसे सुरक्षा की जरूरत थी? और हां यह वफादारी क्या चीज होती है”?

यह तो सवाल-जवाब नहीं, नुक्ता-चीनी थी। याद दिलाने पर बोली कि यह नुक्ता-चीनी नहीं बल्कि पहला सवाल टोका-टोकी था  दूसरा सवाल-जवाब है। बहस बेकार थी। मां-बाप को ढोने में जीवन बिताकर श्रवणकुमार तथा बिना चूचपाट 14 साल का वनवास सहकर मर्यादापुरुषोत्तम द्वारा स्थापित पिता के आज्ञापालन की गौरवशाली परंपरा के पालन की तो बात ही छोड़ दीजिए यहां तो बड़े-छोटे के लिहाज की धज्जियां उड़ाई जा रही थी। पता नहीं यह पीढ़ीगत प्रवृत्ति है या यह लड़की अपवाद? जरा सी चुप्पी पर कुपित हो गयी. अब क्या हो गया? नहीं मालुम तो मत जवाब दो. राजा की सुरक्षा तथा वफादारी से आगे भी बढ़ोगे”?

अब तो मेरे ज्ञान को ही चुनौती दो डाला, देखो, तुम कुछ ज्यादा बढ़ रही हो।मेरे मालुमत पर सवाल उठा रही हो। जो मालुम होता है वही कहता हूं। बात फिर बीच में काट दी। बढ़ूंगी नहीं तो क्या घटूंगी? तुम्हारे मन की मालुमात मुझे कैसे पता चलेगा. जो बताओगे वही तो जानूंगी। मन ही मन कहा, कहां फंस गये अज़ादार, जोर से कहने पर बाप के कर्तव्य और बेटियों के विरुद्ध सामाजिक अन्याय पर भाषण का खतरा था। बच्चों को धरना-जुलूसों तथा सभा-रैलियों में नहीं ले जाना चाहिए। लेकिन अब सोचने से क्या फायदा? चलो, तुम्हारे दूसरे सवाल से शुरू करते हैं. वफादार वह होता है जो जो भी कहा जाय, चुपचाप, बिना अपना दिमाग लगाए मान ले तथा जो भी आदेश मिले, उसे, अनुचित-उचित के झमेले में फंसे बिना, अमल में लाये। अजीब लड़की है, क्या अब्बू,.... । कह कर जोर-जोर हंसने लगी। हंसते-हंसते बोली, छिःछिः। मैं तो कभी वफादार न बनूं। कोई अपना नहीं तो किसका दिमाग लगाएंगा? अब पहले सवाल का”? चलो बच गया, लगा कि यह न पूछ दे कि पहले का जवाब पहले क्यों नहीं दिया। मैंने थोड़ा घुमा-फिरा कर जवाब देने की सोचा। वैसे तो बदले की भावना किसी के प्रति नहीं होनी चाहिए, बेटी से तो बिल्कुल नहीं, लेकिन बापों में भी तो अहं होता है। 

देखो, राजा किसी भी राज्य की पहिआ की धुरी होता है तथा बाकी अंग धुरी को पहिए से जोड़ने वाली तीलियां। एकाध तीली टूटने से भी पहिआ चलता रहता है, लेकिन धुरी टूट जाए तो? इसीलिए राज्य में राजा की अहमियत देखते हुए सबसे चौकस सुरक्षा प्रबंध उसी का होता है। और भले लोगों के हजारों अदृष्य दुश्मन होते हैं। कब कौन सी अदृश्य शक्ति सत्ता पलटने की साजिश कर दे या कब कौन ग्रह किस नक्षत्र से टकरा जाये क्या पता? वैसे भी राज-काज जरूरत के नहीं, आचार-संहिता के हिसाब से चलता है। जरूरत हो या न हो राजा का अभेद्य सुरक्षा कवच में घिरे रहना राजधर्म का अनिवार्य अंग है। राजा की सुरक्षा-व्यवस्था शासनशिल्प के ग्रंथों का प्रमुख सरोकार है। मैं सोचा कि ग्रहों-नक्षत्रों की बातों में फंसेगी लेकिन बच्चे बहुत तेज होते हैं। खीझ के लहजे में बोली, अरे यार अब्बू! समझ गयी कि राजा को सुरक्षा की जरूरत होती है। बच्ची समझ कर ग्रहों-नक्षत्रों की गोली मत दो। राजा की सुरक्षा के बाद फिर”?

सुरक्षा व्यवस्था का एक फायदा यह था कि राजा तथा प्रजा के बीच समुचित दूरी बनी रहती थी। राजा-प्रजा के साश्वत संबंधों की सुदृढ़ता में इस दूरी की अहम भूमिका होती है। राजा और प्रजा मर्यादित दूरी से एक दूसरे के दर्शन करते थे

फिर”?

कुछ ऐसे लोग भी थे जो न प्रजा थे न राजा, दोनों के बीच में थे

बालसुलभ उत्सुकता रोकने मे असमर्थ हो सवाल किया, जो बीच में होता है उसका भी तो कोई नाम होता होगा”? टेढ़े-मेढ़े उत्तर देकर अब और उलझाना उचित न समझ, कहा, आज की भाषा मे बीच वाले को सर्विस प्रोवाइडर, एजेंट, डीलर, लजिस्टिक सेंटर आदि नामों से जाना जाता है तथा उसकी अपार आमदनी, सर्विसचार्ज या गुडविल अमाउंट कही जाती है। कुछ कम पढ़े, भाषा-सौंदर्य से अपरिचित असभ्य लोग उन्हें दलाल कहते हैं और उनकी आमदनी को दलाली। लेकिन उस वक्त के शब्दकोश में ये शब्द नहीँ थे. ये लोग राजकवि, रजकलाकार, राजपुरोहित आदि नामों से जाने जाते थे तथा इनकी आमदनी का नाम वज़ीफा होता था

फिर”?  

प्रजा में कुछ जघन्य अभागे राजा की नेकनीयती तथा प्रजा-प्रेम से आतंकित हो नगरों से गांवो तथा गांवों से जंगलों की तरफ भाग रहे थे। कुछ इतने कृतघ्न थे कि जन्मभूमि तथा राजा के प्रजाप्रेम से गद्दारी करके, सीमा सुरक्षकों को चकमा देकर दूसरे राज्यों में बस गये और प्रजाप्रेमी राजा के बारे में अप्रिय बातें फैलाकर मातृभूमि का नाम कलंकित कर रहे थे

फिर”?

फिर अब किस्सा शुरू होता है। अरे यह क्या? लिप्पी को क्या हो गया? बिस्तर पर तांडव की शैली में कूदने लगी। चीटर-चीटर, ब्लडी चीटर। अभी नाम लेकर घनचक्कर कह दूंगी तो मुझे दुनिया के सारे बच्चों के नाम संस्कारों तथा मर्यादा का भाषण सुनाने लगोगे। दादी से बताऊंगी। अपनी मां के नालायक पैदा हुए हो क्या? शर्म नहीं आती एक बच्ची को, छोटी सी बच्ची को, अपनी खुद की बेटी को उल्लू बनाते हुए? अभी तक क्या कर रहे थे? जाओ नहीं सुननी कहानी. मुझे दादी के पास जाना है। अभी। न तुम मेरे बाप न मैं तुम्हारी बेटी. मैं अपनी दादी के पास जाऊंगी। गंदे बाप......

यह प्रतिरोध तो बहुत बड़ी ज्यादती था.  बहुत पुचकार, दुलार कर, कान पकड़ म़ाफी के बाद शांत होने पर बोली, इतनी देर से किस्सा समझ सब्र से तुम्हारी बातें सुन रही थी। अब कहते हो किस्सा अब शुरू  हो रहा है

अभी जो बताया वह किस्से की भूमिका थी. बिना भूमिका के किस्सा ढंग से नहीं समझाया जा सकता। अब चुपचाप सुनो, सवालों को दिमाग में नोट करते जाना किस्सा खत्म होने पर सब एकसाथ पूछ लेना

प्रतिरोध प्रदर्शन तो थम गया लेकिन भूमिका की जरूरत पर संदेह का रुख कायम रहा,  मतलब दादी तो बिना भूमिका कहती हैं और इससे अच्छे ढंग से समझ आता है। अब और भूमिका मत बांधो, शुरू करो। बच्चों में तुलना की बुरी आदत होती है। बात को आगे बढ़ाने से परिस्थियां और प्रतिकूल हो सकती थीं। आलोचना स्वीकारना ही स्वहित समझ, विनम्रता से कहा, अरे बेटी तुम्हारी दादी तजुर्बेकार किस्सागो हैं, मैं तो सिर्फ तुम्हारे लिए, मजबूरन किस्सागो बना हूं। तुनक कर बोली, ठीक है, ठीक है, ज्यादा मस्का मारने की जरूरत नहीं है। सुनाओ। और जो सवाल दिमाग में नोट नहीं हो पायेगा, तो पूछना ही पड़ेगा

ठीक है। राजा की दिनचर्या कीशुरुआत होती थी प्रजा की वफादारी के दर्शन से। हर सुबह प्रजा दरबार के बाहर, थोड़ी दूरी पर मैदान में इकठ्ठा होती थी और सेनापति उनको कतार में खड़ा करके जांचता-परखता था. उनमें से वह 10 लोगों को चुनकर देशभक्ति तथा वफादारी की परीक्षा का उस दिन का परीक्षार्थी घोषित करता। इस परीक्षा के प्रश्न तथा उत्तर हर रोज दोहराये जाते थे। प्रश्न होता था राजा का नाश्ता और उत्तर होता था पराक्षार्थियों का बिना चूं किए कोड़े खाना.........”  फिर बीच में ही टोक दिया, सीधे किस्सा सुनाओ पहेलियां क्यों बुझा रहे हो”?

देखो, बहुत बकैती हो चुकी। मैंने पहले ही कहा था राजकाज की कहानियां गुड्डे-गुड्डी का खेल या परीकथा नहीं है। इसमें पहेलियां तो होंगी ही इनकी जटिलता बच्चों को मुश्किल से समझ आती है। बाप रे, यह क्या कह दिया? अपनी समझदारी पर सवाल पर तो हंगामा कर देगी। लेकिन अपेक्षा के विपरीत नाच न आवे आंगन टेढ़ा उक्ति से ही भड़ांस निकाल, बोली, फिर”? उसकी याददाश्त परखने के लिए पूछा, कहां तक पहुंचे थे”? तपाक से बोली, राजा के नाश्ते तथा प्रजा के कोड़े खाने की पहेली तक. अब इसे सुलझाने की तरफ बढ़ें
                                                       
राज्य के कानून सख्त थे और सब पर समान रूप से लागू होते थे। राजा पर भी। एक प्रमुख कानून राजा के नाश्ते के विषय में था। राजा के नाश्ते का पचाव राज्य के समुचित संचालन के लिए जरूरी था तथा राजा जब तक दस लोगों को कोड़े खाते न देख ले तब तक उसका नाश्ता नहीं पचता था

फिर”? मैंने जवाबी सवाल किया, राजा के नाश्ते तथा प्रजा के कोड़े खाने की पहेली समझ में आई”?

जी, आ गयी। जब तक राजा दस लोगों को कोड़े खाते नहीं देखेगा तब तक उसका नाश्ता नहीं पचेगा और राजा का नाश्ता नहीं पचेगा तो राज-काज कैसे चलेगा तथा राजकाज नहीं चलेगा तो किस्सा आगे कैसे बढ़ेगा? छिः, फिर”?

यह छिः मेरे लिए था या राजा के लिए? का स्पष्टीकरण मांगे बिना कहना जारी रखा। जिन दस भाग्यशाली लोगों को परीक्षार्थी बनाया जाता, उन्हें सुरक्षाकर्मियों का विशेष दस्ता घेरे में ले लेता तथा लेकर ड्रिल के अंदाज में बढ़ते हुए महल की सीढ़ियों से सौ गज की दूरी पर बने चबूतरे तक ले जाता. इसे परीक्षा मंच कहा जाता था। चबूतरे तक परीक्षार्थियों की संक्षिप्त यात्रा के दौरान सैनिक तथा परीक्षार्थियों समेत वहां उपस्थित सभी लोग प्रजापालक, करुणानिधान यशस्वी राजा के जयकारे लगाते

फिर”?

फिर मंच पर पहुंचे परीक्षार्थियों के मैले-कुचैले कपड़े उतरवाकर नंगा कर दिया जाता था

छिः छिः, शेम शेम। फिर”?

छिः छिः की पुनरावृत्ति से आपत्ति जताने के आपत्तिजनक तरीके पर कुछ कहने का मन मार गया। फिर शंख बजाते पुरोहित प्रवेश लेता तथा कुछ अबूझ मंत्रों का उच्चारण करके लोटे के जल के छींटे से परीक्षार्थियों को पवित्र करता। 

 फिर”?

फिर प्रजापालक, प्रजाप्रेमी, करुणानिधान आदि विशेषणों से सज्जित जयनाद के साथ आकाशवाणी होती कि महामहिम महाराज परीक्षा के दर्शनार्थ पधार रहे हैं

फिर”?

आकाशवाणी के साथ ही महल के इर्द-गिर्द बने गुंबदों पर आक्रामक मुद्रा में तीरंदाज प्रकट हो जाते

फिर”?

फिर चंवर डुलाने वालों के भेष में, युद्धकौशल में निपुण, सर्वश्रेष्ठ जासूसों से घिरा राजा दर्शनार्थ प्रकट होता। मैं लिप्पी के चुपचाप किस्सा सुनने से प्रसन्न होने ही वाला था कि ज्ञान बघाऱने के अंदाज में मेरी बात की प्रामाणिकता को चुनौती देते हुए बोली, आपको कैसे मालुम चंवर डुलाने वाले जासूस थे”?

उसके राज में गोपनीयता गौड़ थी. सारी प्रजा जानती थी कि सबसे निपुण जासूसों को ही राजा का चंवरिया नियुक्त किया जाता था

जवाब से संतुष्ट तो नहीं हुई, लेकिन बोली, चलो ठीक है, फिर”?

राजा के प्रकट होते ही वहां मौजूद कवि तथा पुरोहित करतल ध्वनि से राजा का स्वागत करते तथा रटे-रटाए श्लोकों से उसका गुणगान करते। तब तक करते रहते जब तक राजा खास अंदाज़ मे हाथ उठाकर रुकने का इशारा न करत। इशारा पाकर सबके साथ मिलकर राजा की जयकार के साथ सब शांत हो जाते। 

लिप्पी ने कहा, जैसे स्कूल में सुबह-सुबह रोज भगवान की रटी-रटाई प्रार्थना दुहराते हैं।  फिर”?

हां स्कूल की प्रार्थना की ही तरह लेकिन इसमें भगवान की जगह राजा ले लेता था। उस दिन के लिए चुने गये परीक्षार्थियों के कोड़े खाने के पूर्वाभास से राजा का दिल पसीज जाता, कभी कभी तो रोजमर्रा का रटा भाषण शुरू करने से पहले उसके आंसू निकल पड़ते तथा उसके रोम रोम से करुणा छलकने लगती

फिर”?

फिर वह करुण रस में रोजमर्रा का भाषण दुहराता, ऐ मेरी प्राणों से भी प्यारी वफादार प्रजा! मैंने देखा है, देख रहा हूं तथा देखूंगा कि आप राज्य के गौरव तथा राजा के नाश्ते के लिए गर्व से तत्पर रहते हैं। बिना चूं-चपाट कोड़े खाते देख मुझे आप पर महानतम गर्व होता है। मेरा चौड़ा सीना और चौड़ा हो जाता है। इस चौड़े सीने में छिपा कमल सा कोमल दिल आप को कोड़े खाते देख चिग्घाड़ मारकर रोना चाहता है लेकिन दुर्भाग्य से राजधर्म में भावुकता की कोई जगह नहीं होती। कर्तव्य के लिए भावनाओं की कुर्बानी देनी पड़ती है

लिप्पी के भावनाओं की कुर्बानी की बात अटपटी लगी, लेकिन कुर्बानी तो बकरीद में बकरे की दी जाती है, उसे हलाल करके”?

इस नुक्ताचीनी पर आपत्ति से प्रतिरोध प्रदर्शन की संभावनाओं की आशंका से उसकी उत्कंठा शांत करना ही उचित समझा। कई तरह की कुर्बानियां होती हैं। जैसे रमजान में खुदा के लिए बकरा अपनी जान कुर्बान करता है, किसान विकास के लिए खेत कुर्बान करता है उसी तरह राजा राज्य की परंपराओं के लिए अपनी भावनाएं कुर्बान करता था।  

इस उत्तर से वह संतुष्ट तो न दिखी लेकिन लगता है किस्से के लिए उसने अपना असंतोष कुर्बान कर दिया, बोली, फिर और क्या कहता था”?

अपना भाषण जारी रखते हुए कहता, ऐ मेरी प्राणों से भी प्यारी वफादार प्रजा! आप सब जानते हैं कि मैं आपसे उतना प्यार करता हूं जितना राज्य के भूगोल के विस्तार से, शायद उससे भी ज्यादा। उतना जितना रोम के सम्राट नीरो रोमवासियों से करते थे, शायद उससे भी ज्यादा। प्रजा की खुशी में राजा की खुशी होती है और राजा की खुशी में प्रजा की। लेकिन आप जानते ही हैं कि राज्य की तरक्की के लिए राजा के नाश्ते का पचना कितना अनिवार्य है। काश! राजा का नाश्ता पचने का कोई और तरीका होता? राज्य के वैद्य सालों के शोध के बाद भी अभी तक ऐसी औसधि ईजाद नहीं कर पाये हैं। इतना कह कर राजा के दुःखी भाव से पॉज लेते ही एक चंवरिया चांदी की तत्सरी में मखमली रूमालें पेश करता और राजा आंसू पोछने के अभिनय के बाद रूमाल नीचे फेंक देता

फिर”?

फिर वह भाषण जारी रखते हुए कहता, ऐ मेरी प्राणों से भी प्यारी वफादार प्रजा! स्वादिष्ट पकवानों की जगह कोड़ों का नाश्ता करते देख मेरा दिल टुकड़े-टुकड़े हो जाता है लेकिन राजवंश की मर्यादा के लिए और राज्य के कानूनों के प्रति निष्ठा के लिए कष्ट तो सहना ही होता है। राजसिंहासन फूलों का हार नहीं कांटों का सेज होता है। राजधर्म की रक्षा के लिए दिल पर पत्थर रखना पड़ता है

फिर”?

फिर दिल पर पत्थर की पीड़ा से व्यथित एक और पॉज़। चंवरिया फिर तस्तरी पेश करता, राजा फिर आंसू पोछने के बाद रूमाल फेंक कर फिर परीक्षार्थियों की तरफ ऐसे देखता जैसे कसाई कुर्बानी के बकरे को देखता है। संबोधन दुहराते हुए कहता, ऐ मेरी प्राणों से भी प्यारी वफादार प्रजा! मुझे पूरा विश्वास है कि इसी तरह बिना चूं किए कोड़े खाकर वफादारी का सबूत देकर राजा के नाश्ता-पाचन की गौरवशाली प्रथा को आगे बढाते रहेंगे। फिर वह तहेदिल से उस दिन के परीक्षार्थियों का आभार व्यक्त करता

लिप्पी को राजा का लंबा भाषण उबाऊ लग रहा था, राजा के आभार ज्ञापन से सोचा भाषण खत्म और राहत की सांस लेकर बोली, फिर”?

भाषण जारी रखते हुए वह ........ लिप्पी बीच में टोक कर बोली, राजा का भाषण यहीं खत्म नहीं कर सकते, नेताओं की तरह सब झूठ-झूठ ही तो बोल रहा था ..... उसकी बात काट कर बोला, नहीं बेटी, किस्से में राजा का भाषण संपादित करने की मनाही है। राजा जो भी बोलता है सच हो जाता है। हार कर दबे मन बोली, ठीक है लेकिन ऐ मेरी प्राणों से भी प्यारी वफादार प्रजा! ’ बार बार मत दुहराओ। मेरे यह कहने पर भाषण से तकियाकलाम नहीं हटाया जा सकता, बोली, अच्छा जो बात हर बात में दुहराई जाती है वो तकिया कलाम होता है? चलो आगे का भी भाषण सुना दो

“‘ऐ मेरी प्राणों से भी प्यारी वफादार प्रजा! मुझे पता चला है कि राज्य के कुछ अराजक तत्व विदेशी तत्वों के साथ मिलकर प्रजा में असंतोष की भावना पैदा करने का दुष्कर्म कर रहे हैं। कुछ चरमपंथी गुट राजा के नाश्ता-पाचन की गौरवशाली प्रथा को अत्याचार बता कर इसे नेस्त-नाबूद करने की गुप्त साजिशें रच रहे हैं। लेकिन हमारे रणबांकुरे सैनिक और जासूस जल्दी ही उन्हे काबू में कर लेंगे। राजद्रोहिओं को बख्शा नहीं जाएगा। मुझसा प्रजाप्रेमी राजा भला प्रजा पर अत्याचार कर सकता है? मुझे पूरा यकीन है कि मेरी प्राणों से भी प्यारी वफादार प्रजा इन खतरनाक गिरोहों के जाल में नहीं फंसेगी तथा राजा के नाश्ता पाचन की गौरवशाली प्रथा पर आंच नहीं आने देगी। मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि इन राजद्रोही गिरोहों की जानकारी की कोई भी जानकारी जासूसों को देकर राज्य की एकता अखंडता बनाए रखने में पहले की ही तरह हमारी मदद करते रहेगे

राजा के भाषण की लंबाई तथा ऊबाई से लिप्पी के सब्र का बांध टूटने लगा. प्लीज, अब्बू राजा का भाषण और नहीं। उसकी पीड़ा का गुरुत्व समझ, शांत्वना देते हुए कहा, बस खत्म ही समझो। उसके बाद खतरनाक चरमपंथियों का सहयोग करने या सुरक्षा तंत्र से असहयोग करने वालों को कड़ी-से-कड़ी सजा देने की घोषणा करके परीक्षा शुरू होने का सब्र से इंजार करता। लिप्पी के चेहरे पर खुशी के भाव दिखे पर वे क्षणिक साबित हुए।

फिर”?

फिर राजा के प्रधानमंत्री का भाषण शुरू होता। एक और भाषण की बात से लिप्पी के चेहरे से खुशी के भाव छूमंतर हो गये। पहली बार सिफारिसी लहजे में आग्रह किया, प्लीज अब्बू, आज एक ही भाषण से नहीं काम चल सकता”?

उसे प्रधानमंत्री की अहमियत समझा कर बताया कि उनका भाषण पूरी तरह तो नहीं काटा जा सकता लेकिन संपादित करके छोटा करने का खतरा उठाया जा सकता था। वह दबे मन से मान  गयी। 

गौरवशाली रावंजश की परंपरा के चमकते सूर्य, महामहिम महाराज और उनकी गरिमामय, वफादार प्रजा तथा आज के सौभाग्यशाली परीक्षार्थियों! आप को तो मालुम ही है कि राज्य की एकता और अखंडता के लिए, देवतुल्य, प्रजाप्रेमी, करुणानिधान महामहिम महाराज का नाश्ता पचना कितना जरूरी है। आप यह भी जानते हैं कि महामहिम ने जब से गद्दी संभाला है राजा के नाश्ते तथा कोड़े की परीक्षा में अभिन्न संबंध स्थापित है। बल्कि यों कहें कि बिना चूं किए कोड़े खाना राजभक्ति तथा राजा की वफादारी का साश्वत मानदंड बना हुआ है। जो भी वफादारी की परीक्षा से इंकार करता है उसका नाम वफादारों के रजिस्टर से काटकर राजद्रोहियों के रजिस्टर में दर्ज हो जाता है। आप यह भी जानते हैं कि राजद्रोहिओं के लिए कितने सख्त कानून हैं। न फरियाद, न दलील। हमारे सैनिक और जासूस राजद्रोहियों से निपटने के तजुर्बेकार हैं

लिप्पी को जैसे कुछ याद आगया हो। संकोच के साथ बोली, जैसे वह कानून जिसके जुलूस में हम गये थे, क्या तो नारे लगा रहे थे रद्द करो, रद्द करो? हां, टाडा जिसे सब काला कानून कह रहे थे। तो क्या राजद्रोही आतंकवादी होता था”? आज के बच्चे कहां कहां दिमाग दौड़ाते हैं। हां कुछ ऐसे ही, जो भी राजा के नाश्ता पचने में बाधा डालता यानि कोड़े खाने की परीक्षा में शामिल होने से इंकार करता उसे राजद्रोही घोषित कर दिया जाता था

फिर”?

बाकी भाषण में काफी कुछ वही होता जो राजा पहले कह चुका होता इसलिए प्रधानमंत्री का बाकी भाषण काट देता हूं। लिप्पी के मन की बात कह दिया। गाल पर गर्म गर्म पप्पियां चस्पाकर बोली थैंक यू डैडी, थैंक यू सो मच। बहुत बहुत शुक्रिया अब्बूजान। डैडी, अब्बू, बाप, अजादार अंसारी साब सारे सबोधन अदल-बदल कर इस्तोमाल करती थी। जब बहुत इज्जत देने का मन हुआ या मजाक बनाना हुआ तो पूज्य पिताजी पुकारती थी। इतनी खुश दिखी कि फिर”? का तकिया कलाम भूल गयी। मैंने किस्सा जारी रखा, फिर सुरक्षाकर्मियों की सुरक्षा घेरे मे स्थित परीक्षामंच पर विशाल काया वाला हाथ में लपलपाते कोड़े के साथ एक आदमी प्रकट होता। राजा की तरफ मुंह करके जमीन पर सिर रगड़कर अभिवादन करता और उठकर फरीक्षार्यों को खूंखार नजरों से घूरता। राजा इस बार खुद अपनी जयकार की शुरुआत करता, बोलो प्रजाप्रेमी, करुणा निधान, न्यायप्रिय राजा की जय। परीक्षार्थियों समेत उपस्थित सभी लोग राजा की जयकार करते। जो परीक्षार्थी जितनी धीमी आवाज में जयकार करता, उसे उतने अधिक कोड़े पड़ते

आदत के प्रतिकूल लिप्पी ने बहुत देर से अपना ज्ञान नहीं बघारा था। अपने गणित ज्ञान से अवगत कराती हुई बोली, आवाज़ की ऊंचाई तथा कोडों की संख्या में विलोमानुपात होता है? ”

बिल्कुल। उत्तराधिकार की दावेदार राजा की एक ही वैध संतान थी। राजा ने उसकी शिक्षा-दीक्षा के लिए उसे राज्य के सीमांत इलाके में एक विश्वस्तरीय  गुरुकुल में भेज दिया था। वैसे तो शिक्षा की समुचित व्यवस्था राजधानी में भी हो सकती थीं, लेकिन उन दिनों राजकुमारों द्वारा तख्तापलट तथा राजा को बंदी बना लेने या कत्ल कर देने की आशंका निर्मूल नहीं थी। कई मिशालें मौजूद थीं। वह अपने ही बेटे द्वारा बंदी बनाए जाने या कत्ल किए जाने का खतरा नहीं मोल लेना चाहता था। वैसे उसे अपनी जान की उतनी परवाह नहीं थी लेकिन जितनी अपने उत्तराधिकारी के पितृहंता या पितृद्रोही की बदनामी से थी

फिर”?

राजकुमार बाप की छाया से दूर गुरुकुल के अन्य विद्यार्थियों साथ उन्ही की तरह पढ़-बढ़ रहा था। बाप के नाश्ते की प्रथा पर मन-ही-मन शर्मिंदा होता था। इसी तरह राजा के नाश्ता-पाचन तथा वफादारी की परीक्षा के साथ राजकाज चलता रहा। मरणासन्न होने पर युवराज को बुलाने उसने, तेज रफ्तार की ऊंटनी पर एक दूत भेजा तथा बेसब्री से इंतजार करने लगा। राजा को चिंता थी कि कहीं युवराज के लौटने में देर न हो जाये तथा खाली सिंहासन पर प्रेत छाया पड़ जाये

फिर”?

युवराज को अपने जासूसों से राजा की बीमारी की खबर पहले ही लग चुकी थी

फिर”?

राजा को ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा। युवराज संदेशवाहक के प्रस्थान के ही दिन दल-बल के साथ राजधानी पहुंच गया

फिर”?

सभी दरबारी, अधिकारी तथा नगर के अन्य जाने-माने लोग युवराज के आगमन की खबर मिलते ही स्वागत के लिए नगर के द्वार पर उमड़ पड़े

फिर”?

स्वागत की रस्म के बाद, युवराज अपने जयकारों के साथ महल के द्वार पर पहुंचते ही भक्ति भाव से प्रधान पुरोहित की अगुवाई शंख बजाते पुरोहितों का हाथ जोड़ अभिवादन किया तथा दल-बल को हाथ के इशारे से जयकारा बंद करने का आदेश दिया। पुरोहितों ने मंत्रोच्चारण के साथ नारियल फोड़कर तथा चारणों ने राजकवियों के अथक प्रयास से तैयार मंगलाचरण गाकर युवराज का स्वागत किया

फिर”?

फिर जयकारों को द्वार पर ही कतारबद्ध अनुशासन से जय-जयकार का आदेश देकर अस्त्र–शस्त्रों से लैस युवराज प्रधान पुरोहित के साथ महल में प्रवेश किया तथा राजा के स्वास्थ्य कक्ष की तरफ बढ़ा। राजा को भी राजकुमार के आगमन की खबर लग गई थी। सिंहासन पर प्रेत की छाया की संभावना लगभग टल चुकी थी। देर से खबरी भेजने के अपराधबोध से उबर कर इत्मिनान से युवराज की राह देखने लगा। राजा कक्ष के दरवाजे तक पहुंचे युवराज की तरफ हाथ उठाकर विस्तर से उठने के प्रयास में सेवकों की सहायता से बैठ पाया। युवराज दरवाजे पर ठहर कर कक्ष में उपस्थित चांवरियों, चिकित्सकों तथा सेवक-सेविकाओं का पैनी निगाहों से इस अंदाज़ में मुआइना किया जैसे कि अंदर आने की अनुमति की प्रतीक्षा में हो। राजा व्यग्र निगाहों से युवराज को देखा बुलंद आवाज़ की कोशिस में अश्रुपूरित मद्धिम स्वर में बोला, मेरे कलेजे के पास आ जाओ, मेरे प्राणों से भी प्यारे, राजवंश के चमकते सितारे, तुम आ गये, अब मैं सुकून से पूर्वजलोक प्रस्थान कर सकूंगा। उनकी विरासत पर प्रेत छाया की संभावना की शर्मिंदगी नहीं महसूस करना पड़ेगा। अरे अभी वहीं खड़े हो?‘ ”

फिर”?

पिता की भावुकता ने पुत्र में अतिभावुकता पैदा कर दी। आंखों को छलकने से रोकते हुए आंसुओं को अनुशाषित कर पिता के चरणों में गिर पड़ा। पिता ने खींचकर गले लगाते हुए, लंबी आयु तथा राजवंश की मर्यादा में चारचांद लगाने और राजवंश नाक लंबी करने का आशीर्वाद देकर कहा कि स्वैच्छिक पुत्र-विछोह तथा पुत्र-सुख की वंचना का रोना रोने में जीवन के अंतिम क्षणों के कुछ क्षण नष्ट नहीं करना चाहता क्योंकि भविष्य के लिए भूत को स्वहित त्यागना ही पड़ता है

फिर”?


फिर पिता-पुत्र की गले-मिलाई के बाद, प्रधान पुरोहित ने युवराज को विस्तर के पास के स्वर्णिम आसन पर बैठाया। बैठते हुए युवराज ने राजा को संबोधित करके कहा, हे राजवंश के चमकते सूर्य, प्रजाप्रेमी, करुणानिधान, महामहिम पिताश्री महाराज, सिंहासन पर प्रेत छाया पड़ने की चिंता मुझे आप से अधिक है। आप भूत होने के करीब हैं और मैं भविष्य के। और पड़ ही गयी प्रेत छाया तो स्थाई भाव भी तो ग्रहण कर सकती है। इसलिए वक़्त की नजाकत समझ बुलावे का इंतजार किए बिना ही आ गया। वैसे मैंने भूत में ही वर्तमान की सुरक्षा का इंतजाम कर लिया। शिक्षा के दौरान ही प्रशिक्षित तथा सुशिक्षित, मजबूत जासूसी तथा सैनिक तंत्र तैयार कर लिया है। मेरे जासूस महामहिम मेरे पिताजी महराज की बीमारी की गहनता की पल-पल की जानकारी दे रहे थे। कुछ नगर के बाहर जयकार कर रहे हैं कुछ महल के बाहर

बाप रे! ऐसे बुलाता था अपने बाप को, कह कर हसने लगी। मैं तो तुम्हें पूज्य पिताजी चिढ़ाने के लिए भी कहती हूं तो हंसी निकल आती है। मैंने कहा, और नहीं तो क्या सारे बच्चे तुम्हारी तरह थोड़े होते हैं कि छोटे-बड़े का लिहाज ही भूल जाये, प्राणों से अधिक प्यार करने वाले पिता से तू-तड़ाक करें।......

अब बाप रे! करने  की पारी मेरी थी। लेकिन मन में ही। भाषणबाजी से थोड़ा पकाने की सोचा मगर लेने-के-दिने पड़ गए। जब देखो राजा के रोजाना के भाषण की तरह रटे-रटाये डायलाग मारते रहते हो। जब देखो छोटे बड़े का लिहाज, हम अपने बाप के सामने ऐसे रहते हैं वैसे रहते हैं, वगैरह वगैरह। यह तुम्हारी समस्या है मैं क्या कर सकती हूं, मैं तो ऐसे ही हूं। जो करना हो कर लो। मैंने मनाने की कोशिस में विनम्रतापूर्वक कहा, बेटी, मैं तुम्हारा नहीं युवराज का मजाक बना रहा था, उसकी..... । फिर बाप रे! यह तो उल्टा पड़ गया, दहाड़कर बोली, झूठ बोलकर ऊल्लू मत बनाओ, दूध पीती बच्ची नहीं हूं, सब समझती हूं। लोगों के सामने अच्छा बनने के लिए कहते फिरते हो बेटियां दोस्त होती हैं, बिल्कुल बराबर, कहते हो न! जरा सा नाम लेकर बुला दिया वो भी साब के साथ तो बापों की जमात पर अपमान का बादल टूट गया। तुम वही हो जो सब बाप होते हैं, क्या? हां हां, हिपोक्रेट। एक किस्सा सुनाना शुरू किया तो किस्से से ज्यादा भाषण पेल देते हो”। एकाएक, आश्चर्यजनक रूप से उसके लहजे में रौद्र रस की विनम्रता आ गयी। बेचारेपन का अहसास कराने सा मुंह बनाकर मेरे गाल पर प्यार से हाथ फेरने लगी। मैं समझ नहीं पा रहा था कि हृदय परिवर्तन का मामला है कि तूफान के पहले की शांति का? बच्चे कितने अनप्रेडेक्टिबिल होते जा रहे हैं? व्यंग्य के पुट के साथ विनम्रता से बोली, पूज्य पिताजी, आज मुझे आपकी अम्मी की बहुत याद आ रही है। दादी ने आपको कभी दिया नहीं न, तो लो दादी का फर्ज़ पोती पूरा कर देती है”। मैं जब तक कुछ समझता वह एक सौ अस्सी अंश का चक्कर काटकर आगे से पीछे पहुच गई। इस गतिविज्ञान का निहितार्थ सोचने का मौका ही नहीं मिला, सीधे अर्थ प्रत्यक्ष। बोली, कभी नही पाए हो, आज के बच्चे बड़े-बूढ़ों का लिहाज नहीं करते न, तो लो, कर देती हूं लिहाज। और लो-लो कहती शुरू हो गयी घसा-घस। उसकी नन्हीं मुट्ठियो से पीठ पर तो उतनी चोट नहीं जितनी बाप-बेटी के संबंधों की मर्यादा पर। अच्छा हुआ किसी ने देखा नहीं तथा बाप-बेटी का यह रिश्ता मिशाल बनते बनते रह गया। एक अदना से अहिंसावादी बाप को पीटकर सामने आकर मुट्ठी पर ठुड्डी टिकाकर इस अंदाज़ में खड़ हो गयी जैसे कोई तोप मार ली हो। पीट कर पढ़ाने वाले मास्टरों के अंदाज में, परसंतापी सुख के साथ पूछने लगी, इसे क्या कहते हैं पूज्य पिता जी”?

चोट से कराहाने के अंदाज़ में जवाब दिया, अकूप्रेसर”? मेरे कराहने के प्रति संवेदनशील होने की बजाय, चुटकी लेने के अंदाज़ में सवाल किया, और इतिहास क्या कहता है”? 

इतिहास में किसी लड़की का ज़िक्र नहीं मिलता जो बाप का इतना अच्छा अकूप्रेसर करती हो”। तुनक कर बोली, मैं इतिहास दोहराती नहीं, बनाती हूं। फ़क्र करो कि तुम मेरे बाप हो”।

दबी आवाज में डरने का अभिनय करते हुए कहा, करता हूं न”।

सोचा उसको बता दूं कि बल प्रयोग से विमर्श विकृत हो जाता है लेकिन बेफायदा समझ नहीं बताया। तपाक से कह देगी कि मेरे बाप ने यही सिखाया है, डांटना हो तो उल्लू की पट्ठी कह दो। कोई और सुनता तो सोचता, सही में मैंने ही सब सिखाया है। खैर, जैसा बोओगे, वैसा ही काटोगे। मैं भूल गया कि उसके सवाल का जवाब दे चुका और कहा करता तो हूं, बहुत बहुत फ़क़्र, और कितना करूं”? खिलखिलाते हुए, गोद में चढ़कर बोली, थोड़ा और। क्या लड़की है? अभी अभी रणचंडी बनी थी और अब स्नेह की मूर्ति।     

असल में बेटी के हाथों पिटने का यह पहला सुअवसर नहीं था। सच में एक ही पीढ़ी में इतनी तब्दीली! हमारे बचपन में हमारे मन में बापों के प्रति एक अमूर्त भय भरा रहता था। कोई बच्चा बाप से ऊंची आवाज़ में बात करने की कल्पना भी नहीं कर सकता था। वह भी लड़की!  बेटी से पिटने की यह पहली घटना नहीं थी। वैसे इसका  जिम्मेदार खुद ही हूं। जब बिल्कुल छोटी थी तो मैंने इसे मारना सिखाया और इसने पहला हाथ मुझपर ही आजमाया था। जब थोड़ा बड़ी हुई तो जब भी पीठ पर थपकी देता तो उसे मारना समझ घसाघस दे देती। तब उसकी नन्हीं मुट्ठियों की चोट पीठ पर मालिश सा सुकून देती। जब भी मालिस कराने का मन होता तो उसकी पीठ पर थपकी दे देता। अब भी ज्यादा त बाप पर हाथ उठाने की अनैतिकता पर बहस से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि उसके बाप ने यही सिखाया है। उसे एक गीत सिखा दिया था, सहो मत प्रतिकार करो”। लेकिन यह तो प्रतिकार नहीं महज वार था। सविनय प्रतिरोध दर्ज करना तो बनता था। उसने जवाब दिया,  यह तो थपकी के बहाने पिटाई से भी बड़ा वार था तुमने राजा के बेटे से तुलना करके मेरे चरित्र हरण की कोशिस की”।

चरित्र-हरण नहीं, चरित्र-हनन”।

वही, वही चरित्र-हनन”।

लेकिन बेटी मैं तो युवराज का मजाक बना रहा था”। उसने प्रतिवाद किया,
देखो, मैं सब समझती हूं। गड़े वो मत उखाड़ो, क्या”? गड़े मुर्दे, मैंने याद दिलाया। हां वही मुर्दे। तुम सॉरी बोलो तो मैं भी बोल दूंगी। बरब्बर। वैसे बरब्बर तो नहीं था, फिर बोल ही दिया उसने भी. शर्त की अब उसकी बारी थी, एक तो राजा का इत्ता लंबा बेकार सा भाषण सुना दिया, बीच बीच में अपने भी पेल देते हो। अब बाकी किस्से में भाषणबाजी नहीं सहूंगी, असहिष्णुता का जवाब असहिष्णुता से दूंगी, जैसे लोग ईंट का पत्थर से देते हैं। राजा-युवराज के मिलन के तमाशे तक पहुंचे थे, फिर”?

बिना यब बताये कि राजा-युवराज के शाही मिलन समारोह को तमाशा बताना कितना बड़ा राजद्रोह होता, किस्सा जारी रखना ही वाजिब समझा।

पुरोहित ने चांदी की तस्तरी राजा के सामने बढाया जिसमें चंदन तथा चावल से राजा ने युवराज का राजतिलक किया, पुरोहित ने राजा के सिरहाने से उठाकर हीरा-मोती से जड़ा मुकुट पहनाकर मंत्र पढ़ने लगा तथा मौजूद अन्य पुरोहित संख बजाने लगे। राजा की मरमरणासन्न स्थिति के मद्दे नजर इस समारोह को चमक-दमक से दूर रखा गया”।

फिर”?

फिर, फिर पिता-पुत्र का शासनशिल्प तथा राजवंश की नाक पर लंबा संवाद चलता है। हर वाक्य के पहले राजा युवराज को राजवंश का चमकता सितारा तथा युवराज राजा को राजवंश का दीपक कह कर संबोधित करते हैं। पूरा संवाद सुनाऊं या सारांश”?

अपेक्षित उत्तर मिला, सारांश

राजा ने युवराज को शासन-शिल्प की कई बारीकियां बतायी जिनमें ज्यादातर वह पहले से ही जानता था। शासनशिल्प में प्रजा की संपूर्ण वफादारी तथा देशभक्ति एवं राजा की निरकुंशता के महत्व पर विस्तृत प्रकाश डाला। राजवंश की गौरवशाली मर्यादा का वर्णन करते हुए दर्जन भर गौरवशाली पूर्वजों की मिशाल दी जिन्होने अपने अपने ढंग से राजवंश की मर्यादा को गौरवशाली बनाया तथा नाक को बढाया या कम-से-कम छोटी होने से बचाया। प्रजा की वफादारी सुनिश्चित करने के लिए राजा के नाश्ते का कोड़ों के साथ अभिन्न संबंध स्थापित कानूनी समीकरण के अपने अन्वेषण की भूरि-भूरि प्रशंसा की। राजा के पूर्वजों की वीरगाथा का सार यह है कि प्रजा के साथ क्रूरता में में वे एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी थे

फिर”?

राजवैद्य ने राजा की नाड़ी का परीक्षण करके घोषित किया कि महाराज अभी मरे नहीं

फिर”?

फिर राजा ने आह भरते हुए कुछ और दिन राज्य की सेवा न कर पाने के अफशोस से इंकार कर युवराज की दक्षता में भरोसा जताते हुए हिदायत दिया कि उनके पूर्वजलोक प्रस्थान करते ही धूम-धाम से उनकी अंत्येष्टि से पहले उछलकर सिंहासन पर बैठ जाये। प्रेत का कुछ भरोसा नहीं। प्रजा की निगाह में राजा में प्रभु की आत्मा निवास करती है जो  राजा के हर काम को पुण्य में बदल देती है। प्रजा सोचती है तो सत्य ही होगा। इस सत्य की रक्षा को हर शासक का पुनीत ही नहीं अपरिहार्य कर्तव्य बताया। पूर्वजलोक प्रस्थान करते ही प्रभु की आत्मा पुराने राजा से निकल कर नये राजा में प्रवेश कर जाती है।     

 फिर? राजा मर गया”?

नहीं, राजवैद्य ने फिर से नाड़ी देखकर घोषित किया कि राजा अभी मरा नहीं था। युवराज अपने बाप की बातें, उसके मरने के इंतजार में तटस्थ भाव से सुन रहा था। राजा ने उसका हाथ पकड़ गूढ़ रहस्य का उद्घाटन किया कि राजा-प्रजा के फर्क को न समझने वाला शासक कुल गौरव को कलंकित करता है। उसने युवराज को इस साश्वत सत्य से भी अवगत कराया कि कुछ भी जीवन में मुफ्त में नहीं मिलता, हर उपलब्धि की कीमत चुकानी पड़ती है। अच्छा शासक बनने के लिए संवेदनशीलता कुर्बान करनी पड़ती है। इसके बाद युवराज से राजवंश की नाक बचाने-बढ़ाने का वचन लेकर राजा ने आखें मूद ली

फिर? राजा मर गया”?

नहीं, अभी भी जान थी। राजा के आंखें मूंदते ही युवराज राजा के ऊपर गिर कर, पिताजी महाराज, पिताजी महाराज, की चिग्घाड़े मारने लगा। राजा के पैरों में छटपटाहट हुई, राजवंश के नवोदित सूरज..... , वाक्य पूरा करने के पहले ही आवाज बंद हो गयी। 

राजा मर गया? फिर”?

हां, अब राजा मर गया। नये राजा के दरबार में अपनी स्थिति की अनिशचितता में फंसे दरबारी युवराज की नगर वापसी के ही दिन राजा की मौत के संयोग को लेकर कानाफूसी करने लगे, जो कि अनुचित था। जो भी पैदा हुआ है उसे एक-न-एक दिन मरना ही है, दस-पांच दिन आगे-पीछे से क्या फर्क़ पड़ता है”?

उचित-अनुचित की राय किसी ने पूछा क्या? फिर”?

लोग ऐसे ही कहते हैं कि बच्चे सीधे-सादे होते हैं। दबंगई पर उतारू बेटी से अभिव्यक्ति की आज़ादी पर विमर्श बेकार था। किस्से से बाहर की किसी बात को भाषण साबित कर देगी।

नये राजा ने राज्य में तेरह दिनों का राजकीय शोक घोषित किया तथा परीक्षा के नये नियमों की घोषणा तक वफादारी की दैनिक परीक्षा निलंबित करने की भी घोषणा की। पुराने राजा की मौत से लोगों ने राहत की सांस ली, लेकिन खुलकर नहीं

फिर”?

इन 13 दिनों के दौरान युवराज कभी ठीक से सो नहीं पाया। राजा की अनिद्रा के कारणों के बारे में विद्वानों में मतभेद था। कुछ पिता की मृत्यु के अवसाद को इसका कारण मानते थे तो कुछ तो कुछ राजवंश की नाक की चिंता को

विद्वानों की राय छोड़ो, फिर क्या हुआ”?

विद्वानों की राय इस लिए नहीं छोड़ी जा सकती क्योंकि दोनों ही कोटि के विद्वानों के विचार सही थे। पिता की मौत के अवसाद का अभिनय कर रहा था जो कि आचार संहिता का हिस्सा था और राजवंश की नाक की लंबाई बढ़ाने के उपायों के अन्वेषण में मशगूल था। वैसे असली कारण उसके पूर्वज थे

वह कैसे”? अच्छा लगा कि लिप्पी, फिर”? के तकिया कलाम का तकिया नहीं लगाया।

राजा जब भी सोने की कोशिस करता कोई-न-कोई पूर्वज उसके सपने में कूद पड़ता। हर कोई अपने शासनकाल की गौरवगाथा गाता, तथा राजवंश की मर्यादा तथा नाक के लिए अपने योगदान तथा उपलब्धियो की फेहरिस्त पेश करता। जाते-जाते हर कोई राजवंश की मर्यादा तथा नाक की हिफाजत की नसीहत देता

फिर”?
                
वह किसी नई क्रूरता के विषय में सोचने लगता जिससे राजवंश की नाक की लंबाई बढ़ा सके

लिप्पी नाक की सीध में उंगली से अपनी नाक की कल्पित लंबाई का इशारा करके हंसते हुए बोली, फिर”?


राजकीय शोक के तेरहवें यानि अंतिम दिन दिवंगत राजा की स्मृतिभोज के बाद जैसे उसे उसकी चिंता को कोई मंत्र मिल गया और घोड़े बेच कर सोया

युवराज के डायलॉग की नकल करते हुए, बोली, एक जिज्ञासा प्रकट करने की अनुमति चाहती हूं महामहिम पिताजी महाराज। मेरी प्रतिक्रिया जाने बगैर ही बात बढ़ाती गयी। शुक्रिया महामहिम पिताजी महाराज। पहली जिज्ञासा जिज्ञासा नहीं है बल्कि अपने तुक्के की पुष्टि है। मरे हुए को दिवंगत कहते हैं न? समृतिभोज क्या होता है? और सोने के लिए घोड़े क्यों बेचता है”?

तुम चीटिंग कर रही हो। पहले तो महामहिम पिताजी महाराज की नौटंकी बंद करो। दूसरे एक जिज्ञासा की अपने आप अनुमति लेकर इतनी जिज्ञासाएं प्रकट कर दी। ढंग से समझाऊंगा तो कहोगी भाषण दे रहा हूं

अजीब घनचक्कर बाप हो यार। प्यार से अजादार अंसारी कह दूं तो आफत, सम्मान से महामहिम पिताजी महाराज कह दूं तो आफत। बेटी हूं न

बेटी हूं न, इसका आजमाया हुआ ब्रहमास्त्र है। ज्यादा करोगी तो बेटा कह दूंगा। मुट्ठी भींचती हुई बोली, तुम बेटा, मैं क्या करूंगी, तुम भी जानते हो, और तेज तेज दूंगी। उसे हिंसा के रास्ते जाने से रोकने के लिए उसकी जिज्ञासाएं शांत करना ही एकमात्र विकल्प था। मैंने उसके तुक्के को सही होने की पुष्टि की तो अपनी उपलब्धि पर तालियां बजाने लगी। उसे गांव में किसी की तेरहवीं की याद दिलाकर उसे समृतिभोज समझाया। घोड़े बेचने वाली बात पर अटक गया। बचपन से ही मुहावरा इस्ताल कर रहा हूं लेकिन इसके श्रोत के बारे में तुरंत एक कहानी गढ़ी जो मेरे ख्याल से सही होनी चाहिए। यह मुहावरा घोड़े के व्यापारी की कहानी से लिया गया है। जब तक घोड़े बिके नहीं थे व्यापारी माल यानि घोड़े रखवाली में रात भर सो नहीं पाता था, बिक जाने पर निश्चिंत होकर सोता था

जिज्ञासा शांत होनेपर बोली, फिर, राजा के घोड़े बेचकर सोने के बाद क्या हुआ”?

अगली सुबह प्रजा की नींद खुली शाही हरकारों की मुनादी से। वे डंके की चोट पर शाही फरमान का ऐलान कर रहे थे। सुनो, सुनो, सुनो, महान राज्य की महान वफादार प्रजा सुनो। इस महान राज्य के नये महान राजा पितृशोक से उबर चुके हैं तथा राजवंश की नाक बड़ी करने के प्रण के साथ शासन की बागडोर मजबूती से थाम ली है। महान, विद्वान महामहिम महाराज ने महान गुरुकुल की महान उच्च शिक्षा से अर्जित महान ज्ञान का बड़ा हिस्सा महान प्रजा की भलाई में निवेश करने का फैसला लिया है। सुनो, सुनो सुनो। विद्वान होने के साथ नये महामहिम महान महाराज नेकदिल भी हैं। पुराने राजा के शासन में जो भी गड़बड़ हुआ उसके लिए नये महामहिम महान महाराज को खेद है तथा उनकी जांच के लिए एक आयोग गठित किया जायेग। इस आयोग की अध्यक्षता दिवंगत राजा के प्रधान चांवरिया जी करेंगे। जांच पूरी होने तक करते नये राजा ने अपने विश्वस्त सहपाठियों को इस कैडर में पहले ही नियुक्त कर चुके हैं। बाकी पुराने चांवरियों को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति दे दी गयी है। सुनो, सुनो, सुनो, राजवंश की महान वफादाऱ प्रजा सुनो। इस आयोग को निर्देश देने तथा इस पर नज़र रखने के लिए एक शिष्टमंडल गठित किया जाएगा इस शिष्टमंडल में कला, साहित्य, संगीत, ज्ञान-विज्ञान आदि क्षेत्रों की प्रखर प्रतिभायें होंगी। इन प्रतिभाओं की पहचान नये महामहिम, महान महाऱाज ने गुरुकुल में रहते ही कर ली थी। इसमें राज्य के गणमान्य श्रेष्ठिगण भी होंगे

मुनादी लंबी होती जा रही थी। मैं उसके धैर्य की दाद देने ही वाला था कि वह बोल पड़ी, श्रेष्ठि कौन होता है”?

सवाल वाज़िब था। नामी-गिरामी व्यापारियों को श्रेष्ठि कहा जाता था। जो समय के साथ बिगड़कर सेठ हो गया
अच्छा, अच्छा। सेठ घनश्याम दास विड़ला वाला सेठ, जिनके यहां महात्मा गांधी रुकते थे

मुझे इसकी ऐसी बातें सुनकर कभी कभी शिक्षा में सख्त सेंसरशिप लागू करने की प्लेटो की योजना से सहमत होने का मन करता है। लेकिन कह नहीं सकता क्योंकि बारंबार असहमति सार्वजनिक कर चुका हूं। मुझे चुप देख उसे लगा मुझे उसकी बात अच्छी न लगी हो। आदत के विपरीत विनम्रता से, खुशामदी लहजे में बोली, है न अब्बू, वही वाला सेठ न? मैं सही समझी न”?

आप समझी तो सही मैडम शीफा अंसारी उर्फ लिप्पी, लेकिन महात्माजी के बारे में आपकी समझ पूर्वाग्रहग्रस्त है

अरे! किताब में तो यही लिखा है, अजादार अंसारी साब, तुम्ही ने तो दिलाई थी वो किताब। फिर पूर्वाग्रह-दुराग्रह की बात कहांसे आ गयी? और तुम इसलिए आप आप कर रहे हो कि मैं भी तुम्हारी नकल करूं, मैं नकलची बंदर नहीं हूं

देखो बेटी, महात्माजी कहीं भी रुक जाते थे बिना भेदभाव के। हो सकता है विड़ला जी सेठ न होते तब भी उन्ही के यहां रुकते। महात्मा लोग किसी का आतिथ्य अस्वीकार नहीं करते तो बिड़लाजी का कैसे करते? महात्माजी सारी सुख-सुविधा त्याग कर ऋषि-मुनियों की भांति साबरमती आश्रम से राष्ट्रीय आंदोलन का संचालन करते थे। हरिजन बस्तियों में जाकर छुआछूत के विरुद्ध जनजागरण करते थे। महात्मा लोग राजा और रंक में भेद नहीं करते

राजा की फरमान में बिघ्न डालने के लिए उसे डांटने ही वाला था कि वही उल्टा चढ़ गयी। क्या बाप, जरा सा मेरा ध्यान हटा तो तुम महात्मागीरी पर भाषण देने लगे, शिष्ट मंडल गठित हो गया, फिर”?

हरकारे डंके की चोट पर फरमान की मुनादी जारी रखते हुए ऊंची आवाज़ में ऐलान कर रहे थे कि नये महान महामहिम ने पिता के शोककाल के दौरान ही पता कर लिया कि उनके पिता के शासनकाल की सारी गड़बडियां उनके प्रधानमंत्री के कारण हुई, उन्हें बंदी बनाकर बाकी राजकर्मियों को कर्मठता का संदेश दे दिया गया है। नया युवा प्रधानमंत्री महामहिम का सहपाठी होने के साथ बहुत विद्वान तथा दूरदर्शी है

फरमान की मुनादी आधी भी नहीं हुई थी, फरमान की प्रमुख बातें बाकी ही थीं  कि लिप्पी बोर होने लगी थी। बेचारी सी शकल बनाकर बोली, और कितना लंबा है फरमान? राजा-युवराज संवाद की ही तरह इसका भी सारांश नहीं पेश कर सकते? प्लीज अब्बू! ”, फिर बांहे चढ़ाने का अभिनय करते हुए, शरारती मुस्कान के साथ बोली, नहीं तो”?

कर देता हूं, नहीं तो की नौबत नहीं आयेगी। फरमान का साऱांश यह कि नया राजा बहुत ही न्यायप्रिय है। न्याय के अंधेपन का विरोधी। जांच आयोग यदि निष्पक्ष जांच नहीं करेगा तथा उसके निष्कर्षों से राजवंश की मर्यादा पर विपरीत प्रभाव की संभावना होगी तो उसे भंगकर उसके सदस्यों को बंदी बनाकर उसकी जांच का आयोग गठित किया जायेगा। इस नौबत की संभावना न के बराबर रहेगी क्योंकि आयोग के सदस्य वफादार राजकर्मी भी हैं

उसे जैसे कुछ याद आ गया हो, चहककर बोली, मेरे स्कूल में एक सीनियर टीचर के खिलाफ प्रिंसिपल ने जांच बैठाकर निकाल दिया। वह बच्चों को कोर्स के बाहर की बातें भी पढ़ाकर बिगाड़ती थी। यह एक लोकतांत्रिक देश है, बिना जांच के किसी को दंडित नहीं किया जाता। लेकिन मैं उसके स्कूल के लफड़ों की बहस से बचते हुए फरमान के साऱांश बाकी हिस्सा जल्दी पूरा कर दूं कि वह बोल ही पड़ी, फिर”?

फिर यह कि प्रत्यक्ष परोक्ष साक्ष्यों के आधार पर प्रधानमंत्री तथा उनके समर्थक लेखकों, कवियों, नाटककारों तथा इतिहासकारों और शिल्पियों को पहले ही बंदी बनाया जा चुका है। नये कानून में राजवंश की वफाधारी की परीक्षा प्रणाली बदल दी गयी है। पुरानी प्रणाली दोषपूर्ण थी। उसमें एक आदमी को एक बार से अधिक बार परीक्षार्थी बन सकने की संभावना समाहित थी। नई प्रणाली में प्रमाण पत्र स्थाई होगा तथा राज्य अन्याय करने से बच जायेगा। राजा के नाश्ते के समीकरण में कोड़ों की जगह खंजर ने ले ली तथा पीठ की नाक ने

मतलब”?

मतलब यह कि पुराने राजा का नाश्ता दस लोगों को कोड़े खाते देख पचता था नये राजा का नाश्ता पांच लोगों की नाक कटती देखकर पचेगा। राजा लंबे समय तक प्रजा की सेवा करके राजवंश तथा प्रजा की नाकों के अटूट रिश्ते को इतिहास में अमर करना चाहता था। इसलिए दैनिक परीक्षार्थियों की संख्या घटाकर दस से पांच कर दी गयी ताकि निकट भविष्य में राजवंश की नाक के लिए कटने को उद्यत नाकों की कमी न हो जाये

गंदा राजा। फिर”?

पुराने राजा की मौत से लोगों की राहत की अनुभूति टुकड़े-टुकड़े हो गयी। फरमान से लोगों में खुसफुसाहट-कानाफूसी शुरू हो गयी। एक बुजुर्ग ने कह ही दिया, इससे अच्छा तो इसका बाप ही था। लोगों ने देखा कि बुज़ुर्ग की नाक गायब थी। मैं सोच रहा था कि बुज़ुर्ग की नाक गायब होने पर सवाल करेगी, लेकिन वह अटक गयी थी बुजर्ग की बात पर, इससे अच्छा तो इसका बाप ही था। जैसे अचानक कुछ याद आगया हो, उचककर बोली, जैसे दादाजी कहा करते थे कि इससे अच्छा तो अंग्रेजों का राज था”? फिर”?

एक दिन अब्बा बेमतलबगंज से लुंगियां बेचकर लौटे थे। हफ्तेवाले सिपाही ने कुछ बदतमीजी से बात की थी, झुंझलाहट में ऐसे ही बोल दिया था।

 “फिर”?

उस राज्य में फुफुसाहट आम बोलचाल की भाषा बन गयी। वफादारी की परीक्षा से बचने के लिए कुछ सीमावर्ती राज्यों में भाग गये तथा कुछ अभेद्य जंगलों में छिप गये। इन सबको राजद्रोही घोषित कर ज़िंदा या मुर्दा पकड़ने का फरमान जारी कर दिया गया। इन भगोड़े राजद्रोहियों ने प्रचारित कर दिया कि वहां की दीवारों के कान ही जुबान भी है। दीवारों से फुसफुसाट होने लगी, इससे अच्छा तो इसका बाप ही था’”।  

फिर”?

नकटों ने इससे अच्छा तो इसका बाप ही था कहने वाले बुजुर्ग के नेतृत्व में जंगलों में छिपे राजद्रोहियों के साथ मिलकर इस चतुराई से नकटों की सेना बनाना शुरू किया कि राजा को कानोकान खबर न हो पाई। जब हुई तब तक देर हो चुकी थी। धीरे धीरे दीवारों की फुसफुसाहट स्पष्ट सुनाई देने लगी और बुलंदी अख्तियार करती गयी। दीवारों से निकली आवाज इससे अच्छा तो इसका बाप ही था, राजा के कानों तक पहुंचते-पहुंचते इतनी कर्कश हो गयी कि उसके कान फट गये

फिर”?

राजा फटे कान सहलाना शुरू किय़ा था कि इससे अच्छा तो इसका बाप ही था की आवाज़ पूरे महल में गूंज गयी। राजा के विद्रोही सैनिकों के साथ मिलकर नकटों की सेना ने राजमहल घेर लिया। राजा अपने सैनिकों पर चिल्लाने लगा। एक सैनिक ने आगे बढ़कर राजा की नाक काटकर हवा में उछाल दिया तथा विद्रोहियों ने नारा लगाया, इससे अच्छा तो इसका बाप ही था’; ‘राजवंश का विनाश हो’; ‘नकटा विद्रोह जिंदाबाद। राजा को बंदी बना लिया गया
किस्सा खतम पैसा हजम, अब्बू गये चाय बनाने लिप्पी खाये आलूदम। जुमले का बाद वाला हिस्सा पहली बार इस्तेमाल कर रही थी। मैंने भी उसी अंदाज में कह दिया, खतम नहीं हुआ है किस्सा, बचा हुआ है आखिरी हिस्सा। किसी सीरियल के किसी डॉयलॉग की नकल करती बोली, किस्से के आखिरी हिस्से का शीघ्र वर्णन किया जाय

किस्सों के इतिहास में इसे नकटा विद्रोह के नाम से जाना जाता है। वहाँ की दीवारों ने सुनना-बोलना बंद कर दिया।
राजपाट खतम
खतम कहानी
आलूदम खायेगी लिप्पी रानी

इस किस्से का अज़ादारी अंदाज, नकटा विद्रोह ज़िंदाबाद

नकटा-विद्रोह ज़िंदाबाद लगाते गोद से उतरकर दार्शनिक अंदाज में राय दिया कि किस्से का शीर्षक नकटा विद्रोह रख दिया जाये, यह समझाने पर कि फाइनल कर दिया गया शीर्षक बदला नहीं जा सकता, तो मान गयी।

वह तो थैंकयू, बाय कहके सोसाइटी के बच्चों के साथ खेलने चली गयी और मैं किचेन में आलू छीलते हुए सोचने लगा कि क्या वाकई, इससे अच्छा तो इसका बाप ही था का प्रतिध्वनित होना वाकई बंद हो गया है। मुझे तो नहीं लगता।

वैसे किस्सागोई के अनुभव का बयान तो यहीं खत्म हो जाता है लेकिन तभी एक अप्रिय पुनश्च हो गया जिसे वस्तुनिष्ठता के दबाव में अंतिम समय में शामिल करना पड रहा है। सवाल आलोचना की सहिष्णुता तथा श्रोता की आलोचना की प्रामाणिकता के सिद्धांतों का भी है।

पुनश्च :

मैं कुकर की सीटी बंद कर चाय लेकर कमरे में जाने ही वाला था कि लिप्पी जी ने  प्रवेश किया। चेहरे से टप-टप गंभीरता टपक रही थी। कहा कि बहुत जरूरी बात है मैं एक हाथ में चाय दूसरे में उसे उठाकर कमरे में आकर जरूरी बात पूछा तो उसने अतिगंभीर हो कर कहा, अब्बू, एक बात पूछूं, बुरा तो नहीं मानोगे”?

पूछो, मानकर भी क्या करूंगा”? एक एक शब्द पर जोर देती हुई बोली सो तो है। मैंने जब कहा कि ज्यादा हिरोइन न बने, पूछे जो पूछना है। तो भिफर गयी, सुनो, मिस्टर बाप! मैं बनती नहीं, होती हूं। तुम तो इतने असहिष्णु हो कि पूछने के पहले ही बुरा मान गये। अब बुरा मानो तो मानो। मैं पूछ रही थी कि दादू तुम्हें उजबक क्यों कहते हैं? और हां वह उजबेकिस्तान वाली झूठ बहकाने की पोल खुल चुकी है।  

बहुत बचपन में मेरे किसी बेफायदे के अच्छे काम की बात मेरे साथी बच्चों ने अब्बा को बताई तो उन्होने उजबक कह दिया, साथी बच्चे भी कहने लगे और नाम ही पड़ गया। पिछली बार जब घर गया तो अम्मी हर बार की करह बोलीं घर आने पर तो एकाध नमाज़ पढ़ लिया करूं और अब्बा ने वही जुमला दोहरा दिया कि उजबक है न अल्लाह का नाम लेने से छोटा हो जायेगा। सहिष्णुता की मिशाल पेश करते हुए सदा की तरह उनकी बात नज़र अंदाज़ कर दिया लेकिन ये उड़ ली उजबक उजबक चिल्लाते हुए। एक बार जब पहले पूछा था तो बताया कि वे मुझे पढ़ने उजबेकिस्तान भेजना चाहते थे। तभी से वो उजबक कहते थे। अब्बा ने उजबेकिस्तान का नाम ही नहीं सुना था। मैं कोई कहानी गढ़ने की सोचने लगा कि वही बोल पड़ी, मैं बताती हूं गुस्सा मत होना। होना भी तो सोच समझकर। तुम्हें दादू इसलिए उजबक कहते हैं कि उजबक हो। उस सीरियल की तरह जो दो घंटे की कहानी को दो महीने खींचता है, तुमने जरा सी कहानी को इत्ता-आ बड़ा कर दिया। एक बदमाश राजा था जो लोगों को कोड़े लगवा के नाश्ता करता था। मरते समय उसने अपने बेटे से खानदान की नाक का हवाला दिया। बेटे ने सोचा कि इतने बदमाश बाप की नाक बढ़ाने के लिए उससे बड़ा बदमाश बनना पड़ेगा और वह लोगों की नाक कटवा कर नाश्ता करने लगा, लोगों ने कहा इससे तो अच्छा इसका बाप था। बस। विद्रोह तुमने अपने मन से डाल दिया। तुम्हारी यह किस्सागोई तुम्हारे नारीवादी दावों की भी पोल खोलती है। इस किस्से रानी ही नहीं है। रानी की तो छोड़ो, एक भी महिला पात्र नहीं है। हिपोक्रेट, हिपोक्रेट हिपोकरेट। सहिष्णुता का प्रदर्शन करते हुए मैंने श्रोता की आलोचना को प्रामाणिक मान सिरोधार्य कर लिया।     

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