Tuesday, December 22, 2015

इक्कीसवीं सदी

लंबी कविता.

भूमिका
घर के एकांतवास की जड़ता तोड़ने के लिए कल बहुत दिन बाद तीनमूर्ति लाइब्रेरी चला गया, एत लंबित लेख की शुरुआत करके 500-600 शब्द लिख कर इतना खुश हुआ कि लंच के लिए कैंटीन लैपटॉप के साथ चला गया तथा खाने के बाद चाय लेकर उद्यान की कुहासी धूप में बैठने का मन हुआ. सोचा किताब तो कन्सल्ट नहीं करना है तो जब तक लैपटॉप की बैटरी है वहीं काम कर लूं, जो एक गलत फैसला था. कलम का मन बदल गया. मुझे लगा 2015 के अवसान पर 21वीं सदी के इस कालखंड पर एक संक्षिप्त टिप्पणी करना चाहता है, लेकिन यह तो अराजकता की हद तक मनमाना हो गया है, मैं भी नियंत्रण में ढील देता रहता हूं. जिस तरह यूरोप के प्रबोधन काल(1650s-1810s)  को लंबी 18वीं सदी कहा जाता है वैसे ही कलम के दिमाग में लंबी 20वीं सदी की बात कलम को सूझी लेकिन शीर्षक 21वीं सदी ही रहने दिया. मार्क्स ने कहा है कि अर्थ ही मूल है. जब से कलम पर आर्थिक दबाव हटा है, वेतन से महीना निकल जाता है, तबसे इसका मनमानापन बढ गया है तथा मेरे नियंत्रण की ढील भी. मार्क्स ने यह भी कहा है कि अन्य जीवों की रचनाशीलता पेट भरने के उपक्रम पर खत्म होती है मनुष्य की पेट भरने के बाद शुरू होती है. कलम की इस मनमानी आवारागर्दी ने कल सारा पूर्वान्ह तथा आज की पूरी सुबह लील लिया. तुकबंदी से मुक्त मेरी कविताएं मुझे बेहतर लगती हैं. सावधानी हटते ही दुर्घटना घटती है. मैं बहुत असवाधान व्यक्ति हूं. जब ध्यान जाता है तब तक कलम तुकबंदी शुरू कर चुका होता है. शुरू कर दिया तो पूरा भी करना पड़ता है. लिखने के तुरंत बाद इतनी लंबी कविता पढ़ने धैर्य नहीं बचा है. जो भी मित्र धैर्य दिखाएं, उनकी टिप्पणी के लिए आभारी रहूंगा.
इक्कीसवीं सदी

कैलेंडर करता जिसका इक्कीसवीं सदी कह प्रचार
हकीक़त में है लंबी बीसवीं सदी का विस्तार
यो जो देख रहे हैं लहलहाती सियासी फसल
बीसवीं सदी के शुरू में हो गया था
उसकी जमीन का अधिग्रहण
दंगों की धरती की अदृश्य़ तख्ती के साथ
फिरंगियों की शह पर बंटा था जब
संघर्षरत भारत का राष्ट्रवाद
जाते जाते हुए फिरंगी
अपने मकसद में कामयाब
फिरकापरस्त सियासत के शस्त्र से
बांट दिया भूगोल मुल्क का
बांट दिया इतिहास
बन गयीं उर्वर जमानें खून की दरिया के आर-पार
उगने लगी दोनों तरफ नफरत की फसल जोरदार
बढ़ने लगे दोनों तरफ नफरत खलिहान
शुरू किया जब हुक्मरानों ने बीजों का आदान-प्रदान
इस पार के बंटे मुल्क में
बहुत दिनों तक मुल्क पर भारत राष्ट्र का खुमार था
पेशोपश में दंगो की धरती का ज़मींदार था
उसने फिर चतुराई से बदला चोला
हिंदु राष्ट्रवाद की जगह गांधीवाद को बनाया मौला
हिली जब धरती बड़े पेड़ के गिरने से
सींचा उसने भाई की जमीन पूरे मन से
कुछ सरदार मार देने से मिला जनादेश बंपर
खलिहान तो लगा मगर उसके खेत से थोड़ा हटकर
उतार फेंका चोला गांधी वाद का चोला
फिर से घोषित कर दिया हिंदु-राष्ट्र को मौला
बिसरे राम की फिर से याद आई
मंदिर बनाने की तब कसम खाई
गोमांस की अफवाह का भी था इनपर उर्वरक
मंदिर का मामला था मगर ज्यादा उर्वरक
गया नहीं मंदिर की श्रद्धा का उपक्रम व्यर्थ
राम ने बना दिया इन्हें बाबरी मस्जिद तोडने में समर्थ
बनी जब उत्तरप्रदेश में राष्ट्रवादी सरकार
हुई नफरत के उन्नतिशील बीज की दरकार
जमींदार ने दिया काजी-ए-मुल्क ने हलफनामा
मस्जिद के बाहर है उसे भजन-कीर्तन करना
हो गया उसके मस्जिद-प्रेम से प्रभावित क़ाजी
दिल्ली की गद्दी पर बैठा था उसका मौसेरा भाई
तोड़ दी जब मस्जिद कार सेवा के हथियार से
रक्षा में जिसकी पुलिस-सैनिक तैनात थे
हो गया रक्तरंजित सारा देश
तैर गया हवा में नफरत का संदेश
फिर भी कई खेतों में फीकी थी नफरत की फसल
जमींदार ने सोचा करने को एडॉल्फ हिटलर की नकल
उसी तरह जैसे छिप कर लगाई थी
नाज़ी तूफानी दस्तों ने जर्मन संसद में आग
और क्रिया-प्रतिक्रिया में लगा दी यहूदी बस्तियों में आग
लगाई बजरंगियों ने छिपकर एक रेल डब्बे का आग
क्रिया-प्रतिक्रिया में लगा दी मुल्क की सामासिक संस्कृति में दाग
रक्त रंजित कर दिया धरती इंसानों के खून से
कसूर सिर्फ इतना कि वे जन्म से मुलमान थे
नफरत की सियासी फसल के लिए कत्लेआम नाकाफी था
सामूहिक बलात्कारों से बढ़ती है दंगे की धरती की उर्वरता
बिन बोये उगती रही नफरत की  फसल बार बार
सोचा उसने बढ़ाने का रकबा इस बार
खाप पंचायत को अपना हथियार बनाया
तमाम बाबा माइयों को नोटों से नहलाया
गोमाता के वंश पर पाकिस्तानी खतरा बताया
बहू बेटियों की इज्जत को मुद्दा बनाया
बचाते जो खाप का सम्मान अपनी ही बहू-बेटी मारकर
लव-जेहाद का बदला लिया सामूहिक बलात्कार कर
खत्म कर दिया सदियों से चला आ रहा भाईचारा
करते हुए बलात्कार लगाया बंदेमातरम् का नारा
हर कत्ल के साथ चिल्लाता जयश्रीराम
आगजनी करते लेता महादेव का नाम
मुजफ्फरनगर से उठा धुआं नफरत का
मुल्क बन गया मंच फिरकापरस्त सियासत का
क्या कहूं इस मुल्क के पढ़े-लिखे जनमानस को
आराध्य माना जिसने एक नरभक्षी अमानुष को
खत्म हो गये हैं इसकी क्रिया-प्रतिक्रिया के सारे तीर
बना रहा है मंदिर को फिर से फ़िरकापरस्ती का समसीर
किया था जिस अय़ोध्या से नफरत की खेती की शुरुआत
चुना है उसी जगह को उसने करने को आत्मघात
भक्तों में भी आती दिख रही है अब तो कुछ अकल
बेनकाब हो रही है जैसे-जैसे हत्यारे की शकल
उतरेगा अब लोगों की भक्तिभाव का खुमार
जनवादीकरण होगा सामाजिक चेतना के स्वभाव का
होगा तब लंबी क्रूर बीसवी सदी का खात्मा
शुरू होगी तब एक नई इक्कीसवीं सदी की शुरुआत
अमन-ओ-चैन की आग भस्म कर देगी नफरत की खुराफात
ऐसा नहीं है कि क्रूरता से ही भरी है लंबी बीसवीं सदी
देखा है इसने इंक़िलाबी उत्थान-पतनों की भी त्रासदी
दुनिया में दिखी इक उम्मीद समाजवाद की
हो गया मगर उस पर राष्ट्रवाद का भूत हावी
राष्ट्रवाद है विचारधारा पुरातन पूंजीवाद की
करना था दुनिया के मजदूरों की एकता का प्रसार
अंतरराट्रीय जनवादी सामाजिक चेतना का प्रचार
समझ सके मजदूर जिससे पूंजी के अंतरविरोधों का सार
कर खुद को वर्ग चेतना से लैस हो सके क्रांति के लिए तैयार
मजदूर जो वर्ग है अपने आप में परिभाषा से
बन सके जो अपने लिए वर्ग वैज्ञानिक जिज्ञासा से
पार्टी लाइन के नाम पर लगाया मतभेदों पर रोक
करे सवाल जो पार्टी लाइन पर उसको दिया ठोंक
सर्वहारा तानशाही को बनाया अधिनायकवाद लालफीताशाही की
बुनियाद डाला इससे मार्क्सवाद के वैज्ञानिक सिद्धांत की तबाही की
साम्राज्यवादी गुटबाजी के विरुद्ध बन गया यह भी गुटबाज
वर्चस्व की लड़ाई में बन गया सामाजिक साम्राज्यवाद
इस बार उठेगी जब जनवाद की लहर
खत्म कर देगी हर वर्चस्व का जहर
सोचा था लिखने को कुछ पंक्तियां
इक्कीसवीं सदी की अमानवीय शुरुआत पर
भावी इंक़िलाब के आगाज पर
पर लगा खत्म नहीं हुआ अभी पिछली सदी का सिलसिला
जुट रहा है धीरे धीरे मानवता का एक नई सदी काफिला
लिखूंगा तब मर्शिया लंबी बीसवीं सदी का
और लंबा अफ्साना सुंदर इक्कीसवीं सदी का
(ईमिः 23.12.2015)




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