14.12.2015
बेतरतीब 3
(दुर्गा
भाभा से इंटरविव के संस्मरण)
भाग 1
बेतरतीब 2 कल ही लिखा गया. लेकिन लेख की लंबाई, विषय की गंभीरता
तथा मुद्दे की संवेदनशीलता को देखते हुए संपादन-परिमार्जन के लिए मुल्तवी कर दिया
गया है. (मुल्तवी किये कई काम कर भी लेता हूं.)
सुबह चाय बनाते समय सोचा आज अपने हाईस्कूल के दिनों के कुछ
संस्मरण लिखना चाहता था जब मुझमें अधार्मिकता तथा सांप्रदायिकता का संचार साथ-साथ
हो रहा था. भूत का डर खत्म हो चुका था. भगवान का भय खत्म तो नहीं हुआ था लेकिन तंत्र-मंत्र
तथा सत्यनारायण की कथा से विश्वास उठ चुका था. नौवीं कक्षा में शहर पढ़ने जाने के
सालभीतर ब्राह्मण होने का पगहा तोड़ चुका था. लेकिन मेरे जीवन में योजनाबद्ध शायद
कुछ भी नहीं हुआ होगा. तभी इमा (मेरी छोटी बेटी) झोपड़ी में आ गई और पहली बार एक
नये संबोधन से दूसरी चाय का आग्रह किया(आदेश पढ़ें). ‘मिसरे’. किशोरावस्था के संस्मरण लिखने की सोच
मुल्तवी कर एक बेटे और एक बाप के अनुभवों के आधार पर सभ्यता के विकास में परिवार
की ऐतिहासिक भूमिका पर लेख लिखूं. उन अभागे बापों (दुर्भाग्य से बापों की क़ौम में
इनका बहुमत है, घट रहा है) के बारे में सहानुभूति होने लगी जो अनजाने में बेटियों
(बेटों का अनुभव नहीं है लेकिन अपने मेल स्टूडेंट्स की दोस्ती के अनुभव के आधार पर
इंडक्सन से बेटियों की जगह बच्चों पढ़ा जा सकता है) से दोस्ती न करके अपने बाप की
तरह बाप बने रह कर खुद को तथा बच्चों को समता के अद्भुत सुख से वंचित कर सुंदर
संभावनाओं के संबंध पर तनावग्रस्तता का अनुशासन लाद देते हैं. वर्ड पेज खोलते ही
एक और मिस्ड कॉल. पहला इमा का होता है अपने उठने की सूचना तथा चाय का निवेदन या
आदेश जो भी समझें. इस मामले में दोनों का अर्थ एक ही है. दूसरी चाय बनाते समय
अनपेक्षत रूप से हाथ जोड़कर बोली बहुत बहुत धन्यवाद परम पूज्य पिताजी. क्यों भाई
यह अचानक अति पितृभक्ति. पितृभक्ति नहीं एहसानफरोशी का सबूत. नीलांजना का मिस्ड
कॉल था लंदन से. यहां साउथ एशिया यूनिवर्सिटी से यमए के किंग्स कॉलेज से दूसरा
मास्टर्स कर रही है. मेरे स्टूडेंट्स को
ऑफर रहता है कि बैलेंस न होने पर ज्ञात मिस्ड कॉल पर मैं कर लूंगा. मैं
घबराया तो नहीं लेकिन सुबह 5 बजे, तब ध्यान आया लंदन में अभी रात होगी. यह बताने
के लिए किया था कि उसने वित्तीय सहायता का जुगाड़ कर लिया है अगली बार कॉल करेगी. पर
बातचीत में कानाताल की ट्रिप में ट्रेकिंग करते हुए मैं ऐसे कैसे हूं के गीता का
सवाल की बात पर हंसने लगे. सोचा मैं ऐसा कैसे हूं पर ही आज लिखूं. तब तक दुर्गा भाभी पर फेसबुक पर सचित्र
जीवनी की एक पोस्ट दिखी. उसपर निम्न कमेंट लिखते समय पिछले फैसले रद्द करते हुए कलम
ने दुर्गा भाभी के साथ एक दुर्लभ दिन की याद करने का फैसला ले लिया. मार्क्स ने
सही कहा है अर्थ ही मूल है. कलम पर जब से आर्थिक दबाव हटा वह नैतिक दबाव को दबाकर
अराजक हो जाता है तथा बेलगाम इतनी जगह दौड़ता है कि कहीं नहीं पहुंचता. इतनी बातें
लिखना चाहता है कि गोरख पांडेय के समझदार की तरह कुछ नहीं करता या कुछ का कुछ कर
देता है.
“एक
पाक्षिक पत्रिका में काम करते हुए 1987-88 में मैंने दुर्गा भाभी का इंटरविव किया
था. उस पत्रिका में मेरा वह सबसे प्रशंसित तथा अंतिम लेख था. खोजकर स्कैन करके
शेयर करूंगा. उसके 1-2 महीने बाद ही मुझे नौकरी से निकाल दिया गया. खैर
वह अलग कहानी है. 12-14 साल की उम्र में जब पहली बार इस घटना (1928 में भगत सिंह के साथ दुर्गा भाभी की यात्रा) के
बारे में पढ़ा था तो रोमांचित हो उठा था. (अतीत के समय निर्धारण मे मेरा हाल मेरा
मां की उम्र जैसा है. एक बार पूछने पर उसने बताया था यही कोई 50-55) सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी
दुर्गा भाभी का दर्शन कर पाऊंगा, पूरे
दिन के साथ की तो छोड़िये. मिलकर इतना गद गद था कि समझ ही नहीं पाया क्या पूछू.
पता नहीं क्या पूछा कि गुस्से में बोलीं तुम्हारे सवाल प्वाइंटेड नहीं हैं. मैं डर
गया, भगा न दें मगर उस दिन के संस्मरण अविस्मरणीय बन गये.”
एक दिन पत्रिका दफ्तर में दुर्गा भाभी के इंटरविव की बात चली.
दुर्गा भाभी से मिलने की संभावना देख उछल पड़ा. मेरी बात मान ली गयी. मैं तथा फोटो
जर्नलिस्ट बीरबहादुर यादव बिना अप्वाइंटमेंट लिए गाजियाबाद में उनके राज नगर पते
पर पहुंचने के लिए निकल पड़े. दोनों का पहला असायनमेंट. मेरा उस पत्रिका के लिए
अंतिम भी. उसी के कुछ दिनों बाद निकाल दिया गया. उसके बाद की कहानी फिर कभी. मैं
बचपन से ही अच्छा करके अच्छा बनने की कोशिस में हूं लेकिन कुछ लोगों इतना बुरा
लगता हूं कि निर्दयता के साथ रस्टीकेट-टर्मिनेट कर देते थे. उनके पास ताकत होती
थी, हमारे पास साहस. अभी न वे हारे हैं न हम जीते. लड़ाई जारी है. संयोगों की एक दुर्घटनाबस स्थाई नौकरी में भी
टुन्न-फुन्न लगी रहती है. इसके बारे में फिर कभी. हम बसों में चलते थे. ऑटो में चलना लक्ज़री होता
था. सो ऑटोरिक्शा तय किया आनंदविहार बॉर्डर पर रोक दिया. ऑटोचालक को भी शायद
अंतरराज्यीय सीमा की बात नहीं मालुम थी. हमारी हालत उस भुक्खड़ सी थी जिससे कहा
गया कि राजा बन जाय तो क्या करेगा तो बोला पहले तो पेट भर गुड़ खाऊंगा, फिर देखा
जायेगा. पीसीओ से दफ्तर फोन करके हमने एक ठेले पर पराठें खाया तबतक टैक्सी आ गयी.
दुर्गा भाभी के सेवा-निवृत्त इंजीनियर पुत्र शचींद्र ने दरवाजा
खोला. परिचय देने पर बिना फोन किए आने पर आश्चर्य जताया लेकिन अंदर बुलाकर कलात्मक
सजावट की बैठक में बैठाकर दुर्गा भाभी को खबर करने चले गये. गौरतलब है कि ये वही
शचींद्र हैं जो शूट-बूट में साहब बने भगत सिंह के साथ मेमसाहब बनकर, अंग्रेजीराज
के खुफियातंत्र को चकमा देते हुए लाहौर से कलकत्ता की यात्रा में दुर्गा भाभी की
गोद में थे. क्रांतिकारी नेता शचींद्र सान्याल की पुस्तक बंदी जीबन के प्रकाशन के
समय क्रांतिकारी सोच के बहुत लोगों ने अपने नवजात बेटों के नाम शचींद्र रखा.
दुर्गा भाभी के आते ही हम दोनों उठकर उनके सामने हाथ जोड़कर
खड़े हो गये. निःशब्द. काली लकीरों के साथ सफेद बालों में 83 साल की युवती, क्रांति की दुर्गा. उस अंक की
कवरस्टोरी का शीर्षक यही था – क्रांति की दुर्गा. 4 पेज का इंटरविव तथा 4 पेज का
प्रोफाइल. बीर बहादुर की अपने पहले ही असायनमेंट की तस्वीरों को लिये बहुत प्रशंसा
मिली. 40-50 सेकंड मैं हाथ जोड़कर खड़ा रहा. मुंह से प्रणाम, नमस्ते, इंक़िलाब
ज़िंदाबाद कुछ नहीं निकला. पीठ पर हाथ रख कर आशिर्वाद दिया. बचपन में पीठ पर दादी
के हाथों के स्पर्श सी अनुभूति हुई. जब किसी बच्चे को डांट देतीं कभी तो ज्यादा
प्यार करके भरपाई करतीं. मुझे समझ ही नहीं आ रहा था क्या पूछू. कुछ पूछना शुरू
किया तो डांट दिया – “तुम्हारे
सवाल प्वाइंटेड (सधे हुए) नहीं है“. मैं और बीरबहादुर सकपका गये कहीं भगा न दें. बीर
बहादुर विभिन्न कोणों से कैमरा घुमाते जा रहे थे. तब तक चाय आ गयी. मैं भी सामान्य
होने की कोशिस कर रहा था. मैं बंबई के गवर्नर पर गोली चलाने के फैसले से शुरू करना
चाहता था पर वही बोल पड़ीं कि यह मत पूछना क्रांतिकारी क्या खाते-पीते थे, या गाना
गाते थे कि नहीं, फिल्म देखते थे कि नहीं.
“क्रांतिकारी
भी औरों की तरह साधारण इंसान होता है, थोड़ा अतिरिक्त संवेदनशील, अधिक समझदार,
मानवता की सेवा के प्रति अडिग निष्ठा उसे साहसी बना देती है. विचारधारा उसका
हथियार है पिस्तौल कभी-कभी व्यापक हिंसा के विरुद्ध मजबूरी बन जाती है”.
इसे मैं प्रायः उद्धृत करता रहता हूं.
फिर तो 2 घंटे अविराम वार्ता. मुझे तो मजा ही रहा था, दुर्गा
भाभी को भी मजा आ रहा था. दरअसल सरकार, संगठन ही नहीं उनकी उपेक्षा कर रहे थे,
मीडिया भी. सब विषयों पर लंबी बात हुई – भगवती चरण वोहरा से विवाह, क्रांतिकारियों
से परिचय, क्रांति की तरफ झुकाव, राष्ट्रीय आंदोलन, कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी, जेल
यात्रायें, कांग्रेस में प्रवेश तथा मोहभंग, शिव वर्मा के साथ शहीद लाइब्रेरी की
स्थापना तथा संचालन, लखनऊ मांटेसरी, बंटवारा, आज़ादी के बाद की राजनीति. गांधी के
बारे कहा बनिया था सब फैसले नाप-जोख कर करता है तथा कहा अब कलम जेब में रख लूं.
आदेश देकर साथ लंच करने को कहा. मुझे लग ही नहीं रहा था मेरी दादी सी इस सरल-सहज
महिला महिला से अंग्रेजी राज इतना आतंकित था या इन्होने ही बंबई के गवर्नर पर गोली
चलाने के चक्कर में फौजी हाकिम को घायल कर दिया था. इसे उन्होने सुशीला दीदी के
साथ हताशा में उठाया गया कदम बताया था. सब खत्म हो गया था लोग मारे जा चुके थे या
जेलों में थे या मुखबिर बन गये थे ऐसे में एक और धमाके का फैसला था. लगभग 1 घंटे
की खोज अभियान के बाद वह अंक मिल गया है. इंटरविव स्कैन करके डाल दूंगा. इसलिए
इंटरविव के बारे में और यहां नहीं लिखूंगा. गांधी पर अपनी राय पर अहिंसा के
सिद्धांत के हवाले मेरे प्रतिवाद पर डांट दिया. “उसे सरकारी हिंसा हिंसा नहीं लगती थी.
जनता की हिंसा ही हिंसा थी. वैदिक हिंसा हिंसा न भवति. हम कहां कह रहे थे कि
इर्विन को गोली मार दो. हम तो सिर्फ क्रांतिकारियों के को मुद्दे को वार्ता के
एजेंडे में शामिल करने करने को कह रहे थे. गांधी क्रांतिकारियों के मुद्दे को
राष्ट्रीय आंदोलन का मुद्दा ही नहीं मानते थे. उसे डर था कि इर्विन के साथ वार्ता
में यह मुद्दा उठने से भगत सिंह सुर्खियों में आता और भगत सिंह की लोकप्रियता बढ़
जायेगी”.(वैसे तो यह शब्दशः होना चाहिए, न हुआ
तो मेल करके ठीक कर दूंगा.)
जब चलने को हुआ तो अविश्वसनीय, अनापेक्षित सौभाग्य की खुशी हुई.
दुर्गा भाभी ने कहा कि अगर समय हो तो कलम जेब में रख कर गप्पें कर सकता हूं. मुझे
कानों पर यकीन ही नहीं हो रहा था, बीरबहादुर की तरफ देखा तो चेहरे पर बिल्ली के
भाग्य से छीका टूटा वाले भाव थे. बगीचे में बैठ कर गप्पें करने की बीरबहादुर के
निवेदन को सहजता से मान लेने पर उसके चेहरे के भाव के लिए मैं कोई शब्द नहीं खोज
पाया. गप्पों में शाम हो गयी. मेरा वहां से जाने का मन ही नहीं हो रहा था, दुर्गा
भाभी का भी बातों में मन लग रहा था. यक़ीन ही नहीं हो रहा था कि भगत सिंह की
कॉमरेड से इतनी देर इतनी सहजता तथा अपनत्व से बतिया कर विदा ले रहा था. दुर्गा
भाभी ने खूब मजे लेकर वह वाकया सुनाया जिसे हम पढ़कर जानते थे. भगत सिंह खाने के
पैसे से फिल्म देखने चले गये तथा बिना खाये सो गये. आज़ाद ने 2 गल्तियों के लिए
डांटा दूसरी गलती थी कि खाने का पैसा फिर से न मांगने की. “उस वक्त भगत सिंह की शकल देखने लायक थी“, कहते हुए लगा कि दुर्गा भाभी 57 साल
पुराने इतिहास में खो गयीं थी. विदा लेते हुए दुर्गा भाभी ने जो कॉम्प्लीमेंट दिया
वह अपात्रता के बावजूद मेरे जीवन का सबसे कीमती कॉम्प्लीमेंट है. जेल में लेनिन की
किताब पढ़ते हुए भगत सिंह की बात की याद दिलाते हुए कहा दो क्रांतिकारियों की आज
की मुलाकात समाप्त. कभी भी फोन कर आने का न्योता दिया. बीच बीच में लखनऊ जाती
रहतीं थी. छपने के बाद मैं तथा बीरबहादुर पत्रिका दिने गये, मेरी मोटरसाइकिल से.
बहुत खुश हुईं. लखनऊ से आये कुछ लोगों के साथ शहीद लाइब्रेरी से संबंधित बातचीत
में व्यस्तता के चलते फिर आने को कह कर हमें ज्यादा समय नहीं दे पायीं, हम 10-15
मिनट में भी धन्य हो गये.
15.12.2015
भाग2
फिर कभी जाने की सोचते सोचते 12 वर्ष बीत गये तथा एक दिन सुबह अखबार
के तीसरे या चौथे पेज पर किसी कोने में 8-10 वाक्यों की उनके निधन की खबर पढ़ा.
उसी दिन प्रियंका वढेरा के मां बनने या ऐसी ही कोई महत्वहीन घटना हर अखबार तथा
चैनल की की सुर्खी थी. मीडिया के समाचारबोध पर हगने (कोई और शब्द नहीं सोच पा रहा
हूं, मिला तो बदल दूंगा) का मन हुआ तथा अपनी तत्कालीन अकर्मण्यता इस जीवन में नहीं
माफ कर पाऊंगा. मैंने सोचा उस मुलाकात को याद करते हुए एक लंबा लेख लिखने की सोचा.
हिंदी के एक दैनिक की संडे मैग्जीन के संपादक तथा एक अंग्रेजी दैनिक के संपादकीय
पेज के इंचार्ज से बात भी कर ली थी. आनंद स्वरूप वर्मा ने तीसरी दुनिया के लिए
लिखने को कहा. मैं एक भी नहीं लिख पाया. पता नहीं क्यों, वैसे यह तर्क (या अतर्क)
तर्कशील कौम में अमान्य है, मैं किसी विषय पर सोचता रहता हूं और लिखना शुरू नहीं
कर पाता, जब लिख लेता हूं तो खुद को गालियां देता हूं कि इत्ते से काम का राई का
पहाड़ बन जाता है. विद्वान इसे राइटर्स ब्लॉक कहते हैं. बुद्धिजीवी कितना चालू
होता है अपनी कामचोरी को भी दार्शनिक जामा पहना देता है. मुझे लगता है कि लेखन का
मेरा 40 साल पुराना आत्म-अविश्वास वापस आ जाता है. वायदा का काम न करने पर चोरों
सा मुंह बन जाता है. कई बार बेवकूफी की हद
वाली अतिसंवेदनशालता के इतनी महत्वहीन बातों से बहुत ही परेशान हो जाता हूं कि बाद
में याद ही नहीं रहता कि किस बात से इतना डिस्टर्व हो जाता हूं कि डेडलाइन का
सम्मान भूल जाता हूं जो कि नैतिक अपराध है. (वैसे जीवन में एक ही बार यह अपराध कर
पाया) ऐसा करते (परेशान होते) मैं जानता हूं मूर्खता कर रहा हूं फिर भी करता हूं.
इस मुल्क में क्रांतिकारी को जानने के अपराध में जेल हो जाती है.
हम 3-4 लड़के जी-जान से पत्रिका को पठनीय
बनाने का सफल प्रयास कर रहे थे. अंक प्रेस में जाना होता था तो कईबार प्रेस एरिया
के ठेलों से कुछ खाकर हम दफ्तर में ही दरी पर सो जाते थे. तभी एक पत्रिका के
अतिविनम्र, अतिमृदुभाषी दिल्ली ब्यूरो चीफ की नौकरी गयी थी. हमारे अतिविनम्र,
अतिमृदुभाषी संपादक ने (यदि कभी संपादन-संकलन की स्थिति आई तो सब पात्रों के नाम
जाहिर करूंगा) मालिक से कहकर इन्हें संपादकीय परमर्शदाता बना दिया तथा जल्दी ही
इनकी मालिक से अंतरंगता हो गयी. मालिक कभी कभी आता तो प्रबंधसंपादक की कैबिन में
बैठता, संपादक तथा परामर्शदाता वहीं चले जाते थे. प्रबंध संपादक एक भली महिला थी
जिसके बारे में मालिक को लेकर दोनों अतिविनम्र कभी कभी लिजलिजी दुअर्थी बातें करते
थे. संपादक जी मेरे बहुत प्रशंसक थे. ज्यादातर लेखों के इंट्रो मैं लिखता था. मुझे
नौकरी देने के अपने फैसले को सही साबित करने के लिए मेरा कोई पीस लेकर प्रबंध
संपादक की कैबिन में जाकर तारीफ से पढ़ते-पढ़वाते थे.
मैं मालिक को पहचानता था लेकिन कभी औपचारिक परिचय का अवसर नहीं
मिला तथा अपरिचितों से मैं दुआ-सलाम नहीं करता. कभी कुछ करना लोगों को बुरा लगता
है तो कभी कुछ न करना. दुर्गा भाभी का इंटरविव लिखकर मुदित हो जेयनयू के एक
सहपाठी, सहकर्मी के साथ चाय पीने गया. वह किसी से बात करने लगा और मैं दुर्गा भाभी
का प्रोफाइल लिखने अपनी कैबिन की तरफ जा रहा था कि कानों में आवाज आई “कहां से आ रहे हैं”? मुझे
नहीं लगा कि मुझे कोई कुछ कह रहा है. मैं अपनी कैबिन की तरफ बढ़ने लगा. तभी पीछे
से और तेज वही आवाज़ आई. मैंने पलटकर सामान्य आवाज़ में, जो इतनी तेज़ थी कि लकड़ी
के कैबिनों में बंटे दफ्तर में सबको सुनायी दे जाये, अंग्रेजी में कहा कि मैं
जानता नहीं कि वे कौन थे लेकिन मैं किसी को अपने ऊपर चिल्लाने का हक़ नहीं देता.
यह जनकारी भी दे दी कि मैं प्रोफेसनल नारेबाज हूं और वापस चिल्लाने से उनके कान फट
जायेंगे. मैंने सोचा मामला खत्म. लेकिन मामला तो अब शुरू हुआ. दोनों विनम्रों को
लगता था कि मालिक के साथ मैंने धृष्टता की थी. शायद मालिक को भी. मुझे नहीं लगा. लगता
तो अतिविनम्रों के परामर्श के बिना मॉफी मांग लेता. अगर अनजाने में बेटियों या
स्टूडेंटस के प्रति गलती होती है तो एहसास होते ही शर्मिंदगी से मॉफी मांग लेता
हूं. बेटियों से कान पकड़ कर मांगना पड़ता है. गलतियों और मॉफियों की कहानियां फिर
कभी, अभी तो अतिविनम्रों की बात. नौकरी के प्रोटोकॉल का हवाला देकर कहा मॉफी
मांगने से छोटा नहीं हो जाऊंगा. संपादक अतिविनम्र बहुत भले आदमी हैं वे किसी का
परिचय भी भले आदमी ही कह कर देते थे. इस विषय पर बहस ही नहीं थी कि गलती हुई है कि
नहीं. जानबूझकर मालिक का असम्मान तथा अवमानना की मेरी गलती उनके लिए स्वयंसिद्धि
थे, न मानना मेरा अहंकार. मेरे यह कहने पर कि मैं तो दफ्तर में चपरासी(नाम) जी से
लेकर संपादक(नाम) जी से नमस्कार करता हूं, सभी के नाम के साथ जी लगाकर बात करता
हूं. किसी को सर कहलवाने शौक हो तो न चाहते हुए वह भी कह दूं. लेकिन किसी अपरिचित
को सलाम न करने तथा उसकी बेहूदगी बर्दास्त करने से इंकार को न गलती मानता हूं न
मॉफी मांग सकता. स्नेह से मनाने के अंदाज़ में पीठ पर हाथ रखकर विनम्र मुस्कराहट
के साथ बोले, “ईशजी
आप ऐसे कैसे हो गये”? मैंने
कहा “हो नहीं
गया, हूं ही ऐसे”. इस
सवाल का सामना बचपन से ही करता आ रहा हूं और यही जवाब. खुद पूछता हूं तो भी यही
जवाब पाता हूं.
बचपन में ऐसे ही किसी “ऐसे-कैसे” में साबाशी के चक्कर में की गयी मेरे किसी
असमान्य बात पर बाबा (दादा जी) ने पागल कह दिया, दो-चार बार और कहा. हमउम्र बच्चों
ने बुलाने का यही नाम रख दिया. झगड़ने पर कहते पहले बाबा से झगड़ू. विवश हो
स्वीकार कर हैं लिया. कभी कभी क्षेपकों के चक्कर में मुख्य कथानक गौड़ हो जाता है.
लेकिन इस क्षेपक की अंतिम बात -- मेरे गांव के कहांर जाति के ऱामदास बाबा दिल्ली
में ब्रिटिश उच्चायोग में चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी थे. उनकी बेटी दिल्ली में
9वीं क्लास में पढ़ती थी. छुट्टी में घर आये थे. 1969-70 की बात है, मैं 15 साल का
था. मैं हर शनिवार लोकल ट्रेन से घर आ जाता था तथा रविवार को वापस, जौनपुर. वे
मेरे पिताजी से कह रहे थे कि उनकी जाति में पढ़े-लिखे लड़के कम मिलते हैं तथा
ज्यादा पढ़ लेगी तो शादी में दिक्कत होगी इसलिए अभी से लड़का ढूंढ़ना शुरू कर दिये
हैं. मैंने बहुत मासूमियत से कहा कि दूसरी जाति में ढूंढ़ लीजिएगा, उसकी पढ़ाई क्यों
छोड़ायेंगे. इतनी सी एक सहज बात से लगा जैसे मैंने कोई बम गिरा दिया हो. पिताजी
तथा रामदास बाबा चुप. पास खड़े बच्चे मुंह पर हाथ रखकर हंसने लगे. थोड़ी दूर जनेऊ
का सूत कातते बाबा के कानों तक मेरी बात पहुंच गयी तथा गुस्से से यह कहते हुए वहां
से चले जाने को कहा कि इसीलिए सब पागल कहते हैं. वैसे नाम तो उन्होने दिया था, डाल
दिया लोगों पर. मुझे समझ नहीं आया कि इस मासूम सी बात ने आस-पास के गांवों में
चर्चा का मुद्दा बना दिया. मुझे तो अपनी बात में कोई पागलपन नज़र नहीं आया लेकिन
वहाँ से चले जाना ही उचित समझा. लंबे क्षपक की मॉफी मांग वापस मुख्य कथानक पर आता
हूं.
दो-ढाई घंटे के सतसंग का सारांश यह कि दोनों मुझे शुभेच्छु के
नाते अपनी गलती मानने तथा सर से मॉफी मांगने का बड़प्पन दिखाने के अनेकानेक तर्कों
से प्रोत्साहित करने का प्रयास करते रहे
तथा मैं उनके तर्कों की काट. परामर्श महोदय ने रणनीति कूटनीति के तमाम सिद्धांतों
पर प्रवचन के बाद रहस्यमय अंदाज में कहा, लिखित मत दीजिए. हम तीनों रहेंगे तथा
प्रबंध संपादक और सर(मालिक). फिर और धीमी आवाज़ में बोले कि प्रबंध संपादक किन्हीं
अंतरंग क्षणों में सर को मना लेंगी. यह रहस्योद्घाटन भी किया कि सिद्धांत से पेट
नहीं भरता तथा थोड़ा व्यावहारिक और थोड़ा कूटनीतिक बनने की सलाह दी. वैसे
तलाश-ए-माश के लंबे दौर में ऐसे मसवरे अक्सर मिलते थे. प्रबंध संपादक के इस बेहूदे
चरित्रहरण पर कोफ़्त तो बहुत हुई लेकिन जेंडर पर इनको लेक्चर देने की बजाय सत्संग
समापन बेहतर विकल्प लगा. मैंने जेयनयू के
अपने निष्कासन (1983 के जेयनयू छात्र आंदोलन पर एक विस्तृत अध्याय लिखूंगा.) के
हवाले से उन्हें बताया कि जब पीयचडी
डिग्री, यूजीसी की सीनियर फेलोसिप तथा हिंदुस्तान के सबसे सुंदर कैंपस में अपना सा
कमरा 2 लाइन के मॉफीनामे के दांव पर थे, तब बिना गलती के नहीं मॉफी मांगा तो यहां
तो बस छोटी सी नौकरी दाव पर थी. संपादक जी ने खीझकर पूछा कि जेयनयू में इससे कौन
सी क्रांति हो गयी. वह अलग विषय है. हर आंदोलन की अपनी ऐतिहासिक भूमिका होती है.
संपादकजी के फैसलाकुन वक्तव्य से सत्संग की समाप्ति हुई कि मेरी यही प्रवृत्तियां
मुझे ले डूबेंगी.
पक्ष-विपक्ष की रेखा खिच गयी. शायद नौकरी के डर से दफ्तर के
मेरे पक्षधरों की पक्षधरता भूमिगत थी दफ्तर के बाहर इतने खुलेआम पक्षधर देखकर दिल
बाग-बाग हो गया. दफ्तर में लगभग ओक माह शीतयुद्ध का माहौल था. कभी कोई मुहावरा या
कहावत कहता विनम्र शंकित हो जाते कि उनपर कोई परोक्ष कमेंट तो नहं कर रहा हूं. (14
तथा 16 दिसंबर)
15.12.2015
भाग 3
मालिक के साथ मेरी अशिष्टता से दफ्तर का माहौल परामर्श
अतिविनम्र को मालिक से अपनी अंतरंगता का गुरुत्व बढ़ाने का मौका मिल गया. संपादक
हमेशा मालिक का आदमी होता है. मेरे पीछे दफ्तर तथा हिंदी पत्रकारों मैं चर्चा का
मुद्दा बन गया. (मुद्दे वाली खोज मेरी नहीं है, उस समय यूयनआई के पत्रकार मित्र
राजेश वर्मा की है, जिसकी चर्चा बाद में करूंगा.) मुझे “सुधारने/समझाने” का जिम्मा परामर्श अतिविनम्र ने लिया.
परामर्शदाता थे अपने वेतन का भी औचित्य साबित करना था. उन्हे अपने परामर्श की
पात्रता मुझ अपात्र में दिख गयी. दुर्गा भाभी के प्रोफाइल का लेख टाइप होने के बाद
उसके पहले 2-3 वाक्यों के साथ कुछ छेड़-छाड़ कर दी. मैं लेखक के रूप में
आत्म-अविश्वास का शिकार हूं, अति-आत्मविश्वास का भी. असंभव डेडलाइन के काम ले लेता
था, कर भी देता था. मैं कई बार तो पहला पैरा 3-4 बार फाड़ता था. इस लेख में तो
दिमाग के साथ दिल भी लगा था. मैंने टाइपिस्ट से पहला पेज फिर से जस-का-तस टाइप
करने को कह परामर्श महोदय से मुखातिब हुआ. “महामहिम परामर्श (नाम) जी दो-चार शब्द ज्यादा-कम
होने से भाषा का सौंदर्य बढ़ रहा हो तो जाने देना चाहिए“. मेरा व्यवहार उनकी अपेक्षा के
प्रतिकूल था. मालिक के हिटलिस्ट के आदमी की यह औकात कि मालिक के अंतरंग
परामर्शदाता का परामर्श खारिज कर दे. अपना गुस्सा पीकर या शायद गुस्सा पीने का ऐसे
लोगों का कोई स्वचालित मेकेनिज्म होता हो. सामान्य मृदुभाषिता से बोले, “ईशजी, पाठकों की रुचि का भी ध्यान देना
होता है“. मैं
भी विनम्रता तथा मृदुभाषिता का अभिनय करते हुए कहा, “माननीय परामर्शजी, आपने पाटकों की रुचि का जनमत
संग्ह किया है क्या कि भौंडी भाषा से ही रोचकता बढ़ाई जा सकती है? लिखना आता हो तो संजीदा भाषा से भी
रोचकता पैदा की जा सकती है. वैसे भी, विचारों में दम हो तो भाषा-शैली का
बोरिया-विस्तर अपने आप साथ हो लेता है“. परिवर्तन के तौर पर अपनाई गयी मेरी विनम्र
मृदुभाषिता को उन्होने मुंह चिढ़ा समझा. वैसे उनका ऐसा समझना उचित नहीं था.
अविनम्र व्यक्ति को भी विनम्रता का अधिकार होना चाहिए. जेयनयू वाला मेरा सहकर्मी
(जब तक नामों की घोषणा नहीं होती उसका नम कवि है. वह वास्तव में भी कवि है)
परामर्श की चाल समझ रहा था. उसने परामर्श पंगे की शुरुआत के रूप में दिया था. उसने
मुझे सिगरेट पीने बाहर चलने का निमंत्रण दिया. संपादक जी उस दिन रणनीतिक छुट्टी पर
थे. परामर्श जी ने रोकना चाहा. मैंने दुबारा जोर देकर परामर्श को खारिज किया.
ऐसा नहीं है मैं परामर्श नहीं मांनता बल्कि मांगकर मानत हूं.
भाषा या साहित्य का कभी विधिवत विद्यार्थी नहीं रहा हूं इसलिए कुछ मित्रों का इस
लिए आभारी रहूंगा कि उनकी सलाह से भाषा की कई त्रुटियां सुधारा हूं. जैसे लखनऊ के
मित्र आदियग ने बहुबचन युग्म सिखाया. मैं मंदिरों-मस्जिदों लिखता था. अब
मंदिर-मस्जिदों लिखता हूं. लेकिन परामर्श विनम्र जी का परामर्श माना उस लेख की
भावना के साथ अन्याय होता. सिगरेट पीते हुए कवि ने कहा मुझे निपटाने की साजिश चल
रही है. पंगे में फंसाने की जिम्मेदारी परामर्श ने ली है. मेरे यह कहने पर कि बकरे
की मां कब तक खैर मनाएगी बोला जब तक मन जाये. हम लोग हिंदी पत्रकारिता में में
यसपी (सुरेंद्र प्रताप सिंह, नभाटा के तत्कालीन संपादक) के योगदान की चर्चा करते
दफ्तर में घुसे, परामर्श जी की कैबिन के पास पहुंचकर मैंने कहा “अबे तुम लोगों ने तो यसपी को हिंदी पत्रकारिता
का मोगांबो बना दिया है”. कवि
ने परामर्श जी से मेरी बात पर परामर्श जी की राय मांगा तो वे धर्मसंकट में पडकर
बोले, मैं मूलतः अंग्रेजी का पत्रकार हूं. इसके बाद बात अंग्रेजी-हिंदी पत्रकारिता
की तुलनात्मक चर्चा छिड गय़ी. मैं अंग्रेजी में ही बोलते हुए बीच-बीच में बोल देता
था, “आई ऐम
वेसिकली फ्रॉम हिंदी जरनलिज्म”. अनवाद भी कर देता था कि
मूलतः मैं हिंदी पत्रकारिता से हूं. परामर्श जी मेरी तथा अमिताभ की बातों पर हां
नहीं करते रहे. बेचारे, न तो उनका परामर्श स्वीकृत हुआ न ही पंगा शुरू करने में
सफलता मिली. इसकेलिए संपादक को एक दिन और रणनीतिक छुट्टी लेनी पड़ी.
हम तीन लोगों ने (बाद में एक चौथा भी शामिल होगया) रिपोर्टिंग
के अलावा संपादन तथा पेज बनवाना बांट लिया था. संपादक जी, परामर्श जी हम लोगों को
निर्देश वगैरह देने के अलावा आपसी मरामर्श करते रहे थे. मालिक जी के आने पर
परामर्श स्थल प्रबंध संपादक का कैबिन बन जाता. कम्प्यूटर ने प्रिंटिंग उद्योग में
कई कैडर ही खत्म कर दिया. टाइपिस्ट, प्रूफरीडर, आर्टिस्ट. आर्ट रूम बेसमेंट में
था. ब्रोमाइड में स्पेस नापकर पेज बनाने वाला आर्टिस्ट कहता इतने शब्द काट दो. फिर
हंस कर कहता एक तरफ से ही काटो तो ठीक रहेगा. मैं कहता तुम्ही काट लो. बार बार वह
मेरे पास आए इससे अच्छा मैं ही उसके पास बैठ जाता था. पेज बनवाने का यह मुश्किल
काम था. एक शब्द यहां से काटो, दो वहां से. बेसमेंट में इक्झास्ट फैन था इसलिए
वहां सिगरेट भी पी सकता था. पूंजीवाद की मजबूरी है उत्पादन के तरीकों में क्रांति.
राजनैतिक अर्थशास्त्र की भाषा में पूंजी की जैविक संरचना यानि अचल कारक यानि मशीन
आदि तथा चल कारक यानि श्रम के अनुपात में वृद्धि. सीधी भाषा में इसका मतलब है, मजदूरों
की छटनी.
एक दिन बेसमेंट में
ब्रोमाइड में शब्द कम कर रहा था, तभी संपादक अतिविनम्र आ गये. वे प्रवचन मोड में
थे, मैं खैय्यामी के. वे पत्रकारिता के ऩीतिशास्त्र, मालिक-कर्मचारी संबंध, नौकरी
की समस्या, ऐक्टिविज्म की रूमानियत और मुझे नौकरी देने में आई बिघ्न बाधाओं तथा
मेरे प्रति अपनी कृपा पर प्रवचन दे रहे थे. मैं किसी रद्दी कागज पर कुछ गोंजते
हुए, सर नीचे किए उनकी बातें एक कान से सुनकर दूसरे से नीकालता जा रहा था. वे भांप
गये, विफर कर बोले, “ईशजी,
मैं आपसे बात कर रहा हूं“. कवि
भी वहीं था, मजे ले रहा था. अतिमृदुभाषी गुस्से में मृदुभाषी बन जाता है. मैं सिर
उठाए बिना बोला, “मान्यवर
संपादक (नाम) जी मैं आपकी ही बातें सुन रहा हूं, बातें सुनने के लिए शकल देखने की
जरूरत नहीं होती“. मुझे
थो नहीं लगा था लेकिन अन्य सहकर्मियों ने बताया कि मेरी बातें न महज संपादक जी को
नागवार लगीं बल्कि उन्हें भी. मैंने अपनी मनःस्थिति का हवाला देकर मॉफी मांग लिया.
मुझे लगा कि मॉफ कर दिया लेकिन किया नहीं था.
मालिक और उसके संपादक, प्रबंधसंपादक तथा परामर्शदाता की सामूहिक
सहिष्णुता का बांध अभी टूटा नहीं था लेकिन दरारें पड़ चुकीं थी, टूटना निश्चित था.
एक दिन दफ्तर पहुंचते ही लगा परामर्श जी मेरा ही इंतजार कर रहे थे. संपादक जी की
कैबिन खाली थी. समझ गया छुट्टी पर होंगे. मेरे साधारण से काम की भी तारीफ करने
वाले संपादक जी काम में मीन-मेख निकालने लगे थे. उन दिनों मैं सामान्य मनःस्थिति
में नहीं था. 2-3 महीने पहले मेरे बहुत ही प्रिय छोटे भाई की मौत से मैं थोड़ा
विक्षिप्तावस्था में रहता था, लेकिन काम में कोताही नहीं. पीयचडी कर रहा था.
अद्भुत बालक था. यमए का टॉपर तथा रेसलिंग चैंपियन, यूनिवर्सिटी बॉस्केटबॉल का
कप्तान. इस पर अलग अध्याय लिखूंगा. वैसे भी
क्षेपकों से कहानी का प्रवाह टूटता है. यदि कभी संपादन-संकलन हो पाया तो क्षेपकों
को फुटनोट बना दूंगा. बस इस भाग का अंतिम क्षेपक. इन लोगों को मेरी मनोदशा मालुम थी.
यह बात मुझे इनकी असंवेदनशीलता लगी. 3-4 बार ब्लैक आउट हो गया था या जो भी हुआ उसी
को ब्लैकआउट समझा[i].
एक दिन मालिक साहब दिखे तो उन्हें नमस्कार किया लेकिन उन्होने
मुझे बुरा सा मुह बनाकर देखा भर, जवाब नहीं दिया. उसके बाद कई दिन ऐसे ही बीत गये.
दफ्तर में मुझसे लोग बात करने में कतराने लगे. एक दिन दफ्तर पहुंचते ही देखा
परामर्श जी अपनी कैबिन के बाहर खडे जैसे मेरा ही इंतज़ार कर रहे हों. नमस्कार करते
ही बोले, “आइये ईशजी आपसे कुछ जरूरी बातें करनी है “. संपादक जी बहुत भले आदमी हैं, किसी
झंझट में नहीं पड़ते. अपेक्षा के अनुकूल छुट्टी पर थे. कवि तथा अकवि (एक और
सहकर्मी जिन्हें नाम की घोषणा तक इसी नाम से जाना जाये.) भी आ गये थे. हम लोग
सिगरेट पीकर आने को कह बाहर चाय की दुकान पर आ गये. कवि ने संभल कर बात करने की
सलाह दी इस जानकारी के साथ तुमसे निपटने काम परामर्श जी को सौंपा गया है. संपादक
जी छुट्टी पर हैं. मैंने तथा अकवि ने हंस कर कहा कि निपटने या निपटाने का. मैंने
कहा लेकिन मैं फौरी प्रतिक्रियायों का क्या करूंगा. सबको हंसी आ गयी. इसके बाद ये
दोनों भी मेरे साथ कम दिखने लगे. दोनो अभी भी मित्र हैं. इस बीच परामर्श जी में
मैं कहानी का एक पात्र ढूंढ़ने लगा. पूरा प्रकरण खत्म होने तक पात्र मिल गया, इसके
बारे में थोड़ी देर में बताऊंगा. परामर्श जी से संवाद लगभग शब्दशः निम्न है कवि
तथा अकवि भी इसके चश्मदीद थे:
“जी मान्यवर
आदेश दें”.
“अरे
ईश जी आपको कौन आदेश दे सकता है”?
“क्यों
नहीं, आप वरिष्ठ हैं, उम्र में ही नहीं, तजुर्बे में भी. उस (नाम) पत्रिका का
ब्यूरो चीफ रहते मेरे लेख छापकर आपने मुझे उपकृत किया है. मूलतः अंग्रेजी पत्रकार
होते हुए भी, मातृभाषा के प्रति अपार प्यार के चलते आप लगातार हिंदी पत्रकारिता की
सेवा करते आ रहे हैं. हिंदी पत्रकरिता की गुणवत्ता के प्रसार के लिये आपने इस नये
उपक्रम का संपादकीय परामर्शदाता बनना स्वीकार किया”.
“बाकी
छोडिये, ईशजी, यह बताइये कि लोग आपसे नाराज़ क्यों रहते हैं”?
“कौन,
आप”?
“नहीं,
नहीं, मैं तो आपके लेखन तथा स्पष्टवादिता का मुरीद हूं. मैं क्यों आपसे नाराज़
हूंगा?
मैं तो आप के ही भले की बात कर रहा हूं. अब आप
अकेले नहीं हैं. अब आपके ऊपर परिवार की जिम्मेदारी है. अब आप जेयनयू के स्वप्नलोत
में नहीं हैं. थोड़ा व्यावहारिक बनें. आदर्शवाद से पेट नहीं भरता”.
”मार्क्सवादी तो आदर्शवाद तथा
आध्यात्मवाद के अमूर्त, रहस्यमयता को फरेब मानता है तथा भौतिक यानि व्यवहारिक
करण-कारणों के आधार पर उदारवाद यानि पूंजीवाद के दोगलेपन को उजागर कर समाज की
तथ्य-तर्कों से प्रमाणित व्याख्या करता है तथा इसे बदल कर मानवता की मुक्ति पर जोर
देता है”.
मार्क्सवाद
की बात करके फंस गया. परामर्शजी राष्ट्रवादी प्रवृत्ति के हैं. जैसे आजकल
सोसलमीडिया पर जैसे ही फासीवादी प्रवृत्तियों पर या वंचित की पक्षधरता की बात सुनते
ही भक्तजनों के सिर नक्सलवाद का भूत सवार हो जाता है, वैसे ही परामर्शजी ने
अफवाहजन्य इतिहास में चीन तथा रूस में अत्याचारों की फेहरिस्त पेश कर दी. स्टालिन
द्वारा मारे गये लोगों की इनकी संख्या उस समय की सोवियत संघ की कुल आबादी से
ज्यादा है. संवाद के उस हिस्से को संपादित करके छांट देता हूं[ii].
विषयांतर कर मैं मूल मुद्दे पर आते हुए कहा –
”छोड़िए
मान्यवर, ये सब ऐसे ही थे, ये न होते तो आप जैसे राष्ट्रभक्त क्रांति की कतार में
होते. आप तो नहीं नाराज हैं, बस मेरे भविष्य के लिए चिंतित भर हैं, नाराज कौन है”?
”संपादक,
मालिक”.
मैंने संपादक का फोन मिलाया. उस समय कालर-आईडी नहीं होता था.
मैंने पूछा कि वे नाराज हैं क्या? उन्होने मना कर दिया.
”देखिए
मान्यवर, ये संपादक जी तो नहीं नाराज हैं”.
”चलिए
मालिक ही सही, आप ही से क्यों नाराज रहते हैं”?
”मुझस
यह सवाल आपकी जादती है. अभी मैं आपको कस कस के चार चमाट दूं, दूंगा नहीं मिशाल दे
रहा हूं, और कवि पूछे, परामर्शजी, ईशवा ने आप को कस कस के चार चमाट क्यों दिया? तो इसकी बद्तमीजी होगी. इसे मुझसे
पूछना चाहिए कि अबे तुमने परामर्शजी जैसे मूलतः अंग्रेजी के पत्रकार को कस कस के
चार चमाट क्यों दिया? तो
मान्यवर, उससे पूछिए कि क्यों नाराज है जिसके बाप-दादा दो-चार करोड़ छोड़ जाते हैं
तो सोचते हैं कि उन्हें किसी को भी बेइज्जत का हक़ है. मान्यवर हमारा अनुबंध
पत्रकारिता के कामों का है, और शौक है तो अलग अनुबंध की पेशकश कीजिए”.
ये लो तुरुप का पत्ता. ”मालिक नौकरी से निकाल दे तो क्या करेंगे”?
कहानी क पात्र की तलाश जो परामर्श जी के आगमन के साथ शुरू हुई
थी, इस प्रश्न के साथ पूरी हुई आगे की घटनाएं चरित्र-चित्रण निखारेंगी.
”महामहिम
परामर्श जी, मालिक तथा उसकी चरण पादुकाओं की जो ऐसी-तैसी कर पायेंगे, करेंगे.
लेकिन मेरे लिए यह कौई नई बात नहीं होगी. विश्वविद्यालयों तथा नौकरियों से
निष्कासन की मेरे पास लंबी फेहरिस्त है और फक्र है एक-एक पर”.
इतना कह कर मैंने वार्ता को विराम दिया. जंग का मौन ऐलान करते
हुए परामर्श जी के कौबिन से बाहर निकल गया. चाय सिगरेट की तलब हुई. कवि, अकवि के
चेहरों पर सन्नाटा के भाव देख मैं अकेले चाय पीने निकल गया[iii].
(15-16 दिसंबर)
भाग 4
अगले दिन दफ्तर में शांतिपूर्ण माहौल खौफनाक लगा. उसी बिल्डिंग
में उसी मालिक ने एक अंग्रेजी की पाक्षिक शुरू किया था. अंग्रेजी टीम में एक लड़का
था बाकी महिलाएं. सब खुशमिज़ाज़. सबसे दुआ-सलाम था. मेरे दोनों मित्र भी थोड़ा
औपचारिक से लगे. एक और, (एक अन्य सहकर्मी, नाम घोषित होने तक इन्हें ‘एक और’ नाम से जाना जाये)शायद मेरे अभिवादन के
जवाब के परिणाम के निहितार्थ की अनिश्चितता में नज़र-अंदाज़ करना वाजिब समझा. खैर
मैं अपने हिस्से की सबिंग (संपादन) करके दे दिया. उस अंक में मेरा कोई लेख नहीं
था. अकवि के एक लेख का थोड़ा व्यंग्यात्मक इंट्रो लिख दिया. अकवि पढ़कर इतना खुश
हुआ कि उत्साह में तारीफ करते संपादक जी के पास पहुंच गये. संपादकजी ने उदासीन भाव
से बोले कि ईशजी तो अच्छा ही लिखते हैं, थोड़ी अराजकता बंद कर देते तो बड़ा काम कर
सकते हैं. मैं यह सोचकर चुप रहा कि बिना जाने शब्द उछालना शायद समाज की हवा पानी
का हिस्सा सा है. यह अध्याय बहुत बड़ा होता जा रहा है इसलिए संक्षेप करूंगा,
विस्तार देना हुआ तो संपादन के समय. दफ्तर के लोग मुझसे बात करने से कतराने लगे.
शायद पेट का सवाल प्रतिष्ठा से पहले आता है, मेरा उल्टा मामला है प्रतिष्ठा से
जीने में रोटी का सवाल तो हल हो ही जाता है, येन-केन-प्रकारेण. मेरे पास तो गणित
पढ़ाने का विकल्प है[iv].
2-3 महीने चले नाटक के इस दृश्य पटाक्षेप हुआ, प्रतीक्षित की
प्रत्यक्षता से. मुझे दफ्तर जाते ही एक महीने की नोटिस के साथ निष्कासन पत्र मिला.
संपादक गर्मजोशी से मिले तथा मायूस हो बोले कि मैंने उनकेलिए कोई रास्ता ही नहीं
छोड़ा था. अपेक्षित दुष्परिणाम से भी मायूसी तो होती ही है, लेकिन ज्यादा देर
टिकती नहीं. उस एक महीने में दफ्तर से मैंने बहुत से जरूरी तथा गैरजरूरी यसटीडी
फोन किया. यह गलत था.
आश्चर्यजनक रूप से एक लगभग नई पत्रिका के मेरे जैसे अदना
पत्रकार के निष्कासन की खबर संप्रेषण क्रांति के पहले के जमाने में, दिल्ली के
पूरे पत्रकार जगत में फैल गयी. पल भर को लगा कि मैं कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति हो गया
हूं. सीना चौड़ा हो गया. लेकिन तुरंत ही एहसास हुआ यह मित्रों, शुभचिंतकों तथा
पत्रकार संगठनों का बड़प्पन था. सीना फिर भी चौड़ा ही रहा. उस समय तक पत्रकार
आंदोलन इतना कमजोर नहीं हुआ था तथा पत्रकार संगठनों को तवज्जो दी जाती थी. आनंद
स्वरूप वर्मा तथा अन्य पत्रकार मित्रों की पहल पर ईश मिश्र बहाली समिति बनी. मंडी
हाउस के श्रीराम सेंटर वाले कोने पर समिति की मीटिंग होती थी. मीटिंग के बाद
बाबूलाल की दुकान पर चाय पीकर श्रीराम सेंटर के बाबा के खोके से पान खाते थे. उस समय के लोग जानते हैं कि मंडी हाउस का इलाका
साहित्यकारों, कलाकारों, नाट्यकर्मियों तथा पत्रकारों की अड्डेबाजी की जगह थी. सबके
पास फोन नहीं होते थे या यों कहें कि हममें से कम ही के पास फोन था. श्रीराम सेंटर
के पानवाले बाबा जी तथा जेयनयू सिटीसेंटर के पानवाले हमारे संदेश वाहक थे. संपादक
जी मुझे तथा कवि, अकवि एवं मंडी हाउस में अड्डेबाजी करने वाले अन्य पत्रकारों को
आईटीओ पुल का पत्रकार कहते थे. सबके पास ऐरवर्माजी के अलावा समिति में राजेश वर्मा
तथा चंद्र प्रकाश झा (यूयनआई); प्रदीप सौरभ दैनिक (या साप्ताहिक) हिंदुस्तान; उपन्यासकार पंकज विष्ट तथा कवि पंकज
सिंह;
आदियोग, विरेंद्र सिंह सैंगर, क़मर नक़वी (चौथी दुनिया) की सक्रिय भूमिका थी. 28 साल हो गये, बहुत से नाम
रह गये, याद करके जोड़ दूंगा. पत्रकारों तथा सामाजिक कार्यकर्त्ताओं में हस्ताक्षर
अभियान चलाया गया. 100 से अधिक पत्रकारों के हस्ताक्षर का ज्ञापन सौंपा गया.
संपादक जी ने समिति को आश्वस्त किया कि कोई-न-कोई रास्ता निकलेगा.
आंदोलन के बारे में वर्माजी से राजेश तथा अन्य लोगों से पता
करके आंदोलन के बारे में जोड़-घटा करूंगा क्योंकि ये लोग मुझसे ज्यादा सक्रिय थे.
एक दिन मुझे समिति की मीटिंग में आने में देर हो गयी. राजेश ने कहा अभी मुद्दा तो
आया ही नहीं. सब हंस पड़े. तब तक मैं भी पहुंच गया. मैंने कहा कि गोया मैं ईश से
ईश्यू बन गया. इस पर भी सब हंस पड़े. इस डायलॉग को मैंने एक कहानी में इस्तेमाल कर
लिया. प्रतिकूलताओं में भी सर्जनात्मकता होती है. एक कहानी का पात्र मिल गया तथा
मेरे निष्कासन से जुड़ी घटनाओं को जोड़कर उसके चरित्रचित्रण के समायोजन से कथानक
तथा एक डायलाग जिसने फिछले अनुभवों से जुड़कर एक कहानी का विचार दे दिया. उसी रात
जाकर पात्र अन्वेषण वाली कहानी, सातवां सवार लिखना शुरू किया लेकिन आधा लिख कर पूरे
प्रकरण के समापन के लिए छोड़ दिया. राजेश के डायलॉग ने जिस कहानी की आइडिया था उसे
शुरू कर दिया.
आंदोलन की कुछ खास बातें अन्य आंदोलनों वाले वाले अध्याय में
लिखूंगा. आंदोलन के परिणाम स्वरूप प्रबंधन ने बातचीत का निमंत्रण दिया. वार्ता दल
में समिति की तरफ से आनंद स्वरूप वर्मा, बंधुआ मुक्ति-मोर्चा के कैलाश सत्यार्थी,
डीयूजे अध्यक्ष पांडेय जी (नाम याद करके लिखूंगा) और राजेश या प्रदीप सौरभ थे, ठीक
से याद नहीं है. प्रबंधन की तरफ से मालिक, उसका वकील, संपादक तथा प्रबंध संपादक के
नाम थे. वार्ता में बताया गया कि परामर्शजी की उपस्थिति पर समिति के वार्ताकारों
ने सवाल उठाया तथा समझौता हुआ कि परामर्श जी पर्यवेक्षक की हैसियत से उपस्थित
रहेंगे. सातवां सवार की कथावस्तु
कल्पना को यहां विराम मिल गया. य़मए करते हुए बहुत सी अधूरी कहानियां लिखी.
आत्म-अविश्वास या बौद्धिक अनुशासनहीनता या
फिर दोनों के चलते कोई पूरा नहीं किया. इस घटना के बाद कहानी लेखन में कुछ प्रयोग
करने को सोचा. सातवां सवार अगले 1-2 दिन में पूरी हो गयी. संपादन-परिमार्जन
के लिए कहीं सुरक्षित रख दिया[v]. कालांतर
में कागजों के बियाबान में कहीं खो गयी. किसी अगली खोज अभियान में मिल जाये तो ठीक
वरना पुनर्लेखन असंभव है. निष्कासन तथा समझौता वार्ता के बीच कितना समय लगा याद
नहीं है.
इतना लिखने तक मुझे लगने लग रहा है कि अतीत की यादों में, वह भी
ऐसी जिनका इतिहास में कोई महत्व न हो समय खर्च करना वर्तमान की समस्याओं से मुंह
मोड़ने सा है. इसलिए इस प्रकरण को जल्दी से पूरा करके बेतरतीब 4 अनंत काल
के लिए मुल्तवी करता हूं तथा उच्च शिक्षा नीति पर लंबे समय से मुल्तवी लेख
लिखूंगा.
संघर्ष-जनित समझौते ने निष्कासन को सम्मानजनक बना दिया. निषकासन
अवधि को काम की अवधि माना गया तथा मुझसे पूछकरकर वार्ताकारों ने मौखिक आश्वासन
दिया की मैं 4-6 दिन दफ्तर जाकर स्वेच्छा से 3 महीने की नोटिस की छूट यानि बिना
काम की तन्ख्वाह के साथ मैं इस्तीफा दे दूंगा. वैसे भी उस माहौल में काम करना
नामुमकिन था. 6 महीने की तन्ख्वाह एक साथ. एक अन्य पत्रकार मित्र (अब दिवंगत) ने
चुटकी ली कि ईश भाई का बढ़िया है कि एक जगह नौकरी करें, पंगा लेकर निकलवा लें,
संघर्ष करें, 3 महीने का वेतन लेकर छोड़ दें. लेकिन उसके बाद किसी ने नौकरी ही
नहीं दिया तथा फ्रीलांसर हो गया. 1982-83 से ही कालेज-विश्वविद्यालयों में भी
इंटरविव दे रहा था. उसकी कहाऩी कभी लिखूंगा. पूंजीवाद में वास्तविक विजयी मालिक ही
होता है, मजदूर अपनी पराजय को संघर्ष से सम्मानजनक बना देता है. 1970 के दशक में कभी
एक बार रेडियो कमेंटेटर कह रहा था सुनील गवास्कर की वीरतापूर्ण पारी वेस्ट इंडीज
के हाथों हार तो नहीं रोक पाये लेकिन हार को सम्मानजनक बना दिया. 3 महीने की
तन्ख़्वाह नौकरी की क्षतिपूर्ति नहीं होती उसी तरह जैसे मुआवजा खेती की
क्षतिपूर्ति नहीं होती. हर प्रतिकूलता में कुछ-न-कुछ ब्लेसिंग इन डिस्गाइज छिपी
होती है. मैं महीनों से भाई की मौत के गहन अवसाद में विक्षिप्त सा रह रहा था, ईश
मिश्र बहाली समिति ने विषयांतर कर दिया. 2 कहानियों का मसौदा मिल गया. 1 मिल गयी
दूसरी अभी नहीं. ईश मिश्र बहाली समिति के सदस्यों तथा आंदोलन के समर्थक सभी
साथियों का आजीवन आभारी रहूंगा.
इति बेतरतीब 3 (15-18 दिसंबर)
[i] एक
बार जयपुर में तो मैं डर गया फिर पहले 2 अनुभवों से आश्वस्त हुआ कि मरूंगा नहीं.
मेरी बहन बनस्थली में पढ़ती थी. लेने, छोड़ने, कभी-कभी मिलने जाना पड़ता था.
बनस्थली से बस 8 बजे पहुंच जाती थी लेकिन मैं 12 बजे के आस-पास की बस लेता था जो
सुबह 5-6 बजे दिल्ली पहुंचा देती थी. 2-3 घंटे कोई किताब पढ़ता था या किसी मित्र
के घर भोजन करने चला जाता था. बस अड्डे से 5 मिनट की दूरी पर एक होटल से खाना खाकर
निकला कि सिर में अजीब सा चक्कर आने लगा. कुहरे सी धुंध छा गयी. शरीर में कमजोरी
महसूस होने लगी. एक रिक्शा वाले से कहा बस अड्डे छोड़ने को कहा तो आश्चर्य से मुझे
देखने लगा. नशेड़ी न समझ ले इसलुए मैंने पैर में परेशानी का बहाना बनाया तथा पैदल
साथ चलकर बेंच पर बैठाने का अतिरिक्त किराया दिया. थोड़ा लंगड़ाकर चलने से उसे
यक़ीन हो गया कि पैर में वाकई दिक्कत होगी. मैं बैग कंधे में लटकाकर बेंच पर एक
खंबा कसकर पकड़के बैठ गया. किसी से सहायता इस डर से नहीं मांगा कि लोग पागल या
नशेड़ी न समझ लें. धुंध में चाय-पानी की दुकान की बत्ती टिमटिमा रही थी. सिर पर
पानी डालने से राहत मिलती. लेकिन जाड़े में सिर पर पानी डालते देख लोग क्या
सोचेंगे, सोचकर तय किया कि ऐसे ही बैठा रहूं 12.30 बजे की बस थी, तब तक ठीक हो
जायेगा. इतना मुझे यक़ीन था कि मरूंगा नहीं. बस छूट भी गयी तो मेरे पास एक और टिकट
का पैसा था. हर आधे घंटे पर बस मिलती थी. यही सोचते सोचते कब सो गया, पता ही नहीं
चला. 12.10 पर आंख खुली सब साफ दिख रहा था. शरीर में कमजोरी थी. मझे जो खुशी मिली,
उसके लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं. 12.00 की बस में टिकट नहीं मिला था नहीं तो छूट
जाती, तो क्या?
[iii] बचपन में अपने गांव का सबसे अच्छा लड़का माना
जाता था. परीक्षा में अंक (जिसकी प्रामाणिकता पर मुझे सदा से संदेह रहा है. अपने
बारे में सबकी राय से प्रभावित मेऱी भी वही राय बन गयी. लोग कहते थे पढ़ने में
बहुत तेज है. मैं भी अपने को तेज मानने लगा. इसका एक फायदा यह हुआ कि अपने से तेज
किसी को समझता नहीं था तो नकल करने की आदत नहीं पड़ी. मैं आज भी वही हूं लेकिन लोग
इतना बुरा समझते हैं कि रोजी पर लात र देते हैं. हा हा
[iv] 21
साल की उम्र में 1976 में स्वपोषित भूमिगत जीवन की संभावनाएं तलाशने दिल्ली आया तो
शरुआती 8 साल गणित की रोटी खाया हूं – 4 साल ट्यूसन तथा 4 साल डीपीयस, आरकेपुरम्.
1985 में डीपीयस छोड़ते समय तय किया कि आय के लिए गणित का इस्तेमाल भूखो मरने की
नौबत में ही. लेकिन वह नौबत अब तक न आई तो अब क्या आयेगी?
[v] एक
प्रासंगिक क्षेपक – कहानी लेखन के साथ प्रयोग मैं यह पत्रिका ज्वॉइन करने के पहले
ही कर चुका था. एक बार एक बड़े कॉमरेड के नौकर से मुलाकात हो गयी थी तो कॉमरेड
का नौकर लिख डाला था. आंदोलनजनित गुलेरीजी की आत्मा पूरी किया. उसके
बाद राजीव-इंदिरा के शासनों पर तुलनात्मक लेख लिखने के चक्कर में एक और कहानी इससे
तो अच्छा इसका बाप ही था लिखा गयी. हिंदी-अंग्रेजी में पूरी करने के लिए कई
अधूरी कहानियां लिखीं. आखिरी 2 दो प्रतिष्ठित पत्रिकाओं ने लौटा दिया तथा 1 के
बारे में एक वरिष्ठ कथाकार ने प्रतिकूल
टिप्पणी की. मैंने आत्म-अविश्वास, हतोत्साह या जो भी कारण हों. मैंने अपने अंदर के
कहानीकार का अंत मान लिया था.
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