Saturday, December 12, 2015

बदचलन

सुन रहे हो मर्दवादी जहालत के रोगी जजों
बलात्कार को 
सांस्कृतिक संत्रास का फल बताने वाले मनोरोगियों
इस कविता की औरत की गर्जना
जिसकी आज़ादी को तुम बदचलनी कहते हो
और खड़े हो जाते हो संस्कृति के पहरेदारों के साथ
जो कायर कुत्तों की तरह टूट पड़ते हैं 
आजादी की मतवाली अकेली लड़की पर 
जो जताती है रातों सड़कों पर अपने हिस्से की दावेदारी
जिसे देख गुस्से में तुम करवा देते हो सामूहिक बलात्कार
सुनो सांस्कृतिक जहालत के जजों
अब इस औरत को भी गुस्सा आने लगा है
नहीं मातुम कि तुम जानते हो कि नहीं 
प्रलयंकारी होता है उत्पीड़ित का गुस्सा
जो दे रहा है तुम्हें सांस्कृतिक संत्रास 
जिसकी निरंतरता से ही तुम मर जाओगे
सुन रहे हो सजा-ए-मौत देने वाले मर्दवादी जजों
अब यह औरत जो मर्दों की ही तरह सिगरेट शराब पीती है
आधी रात को सड़कों पर अकेली घूमती थी
अब कतारों में घूमने लगी हैं 
जला रहीं हैं सारी लक्ष्मणरेखाएं और अशोक वाटिकाएं 
फेंककर समुद्र मेें सारी अग्नि परीक्षाएं
लगाते हुए नारे 
आज़ादी गर बदचलनी है तो हम सब बदचलन हैं
वैसे ही जैसे हम लगाते हैं नारे
सच कहना अगर बगावत है तो समझो हम सब बागी हैं
बिलों में घुस गए तुम्हारे सांस्कृतिक रणबांकुरे
नोचते थे अकेली लड़की की आज़ादी बदचलनी की सजा कहकर 
झुंड में कायर कुत्तों की तरह
अंधे न्याय की खिड़की के बाहर झांको धर्मांधो 
और देखो बाहर लक्ष्मणरेखा खींचने वाले तुलसीदासों 
बलात्कार को बदचलनी की प्रतिक्रिया बताने वाले 
बदचलन की पट्टी पहने दुनिया  की सारी औरतों का हुजूम
और आत्मघात कर लोगे चीखते हुए
बाप रे बाप क्या हो गया है इन औरतों को
कब तक नहीं निकलोगे अंधी तराजू के दुर्ग से 
सुनो संस्कारी जजों
चुपचाप स्वर्ग चले जाओ
इसी में तुम्हारी भलाई है
क्योंकि सारी औरतें बदचलन हो गयी हैं. 
(सरला माहेश्वरी की कलकत्ता की पार्टस्ट्रीट सामूहिक बलात्कापर न्यायालय के मर्दवादी फैसले पर सुंदर कविता पर टिप्पणी)
(ईमिः 12.12.2015)

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