सुन रहे हो मर्दवादी जहालत के रोगी जजों
बलात्कार को
सांस्कृतिक संत्रास का फल बताने वाले मनोरोगियों
इस कविता की औरत की गर्जना
जिसकी आज़ादी को तुम बदचलनी कहते हो
और खड़े हो जाते हो संस्कृति के पहरेदारों के साथ
जो कायर कुत्तों की तरह टूट पड़ते हैं
आजादी की मतवाली अकेली लड़की पर
जो जताती है रातों सड़कों पर अपने हिस्से की दावेदारी
जिसे देख गुस्से में तुम करवा देते हो सामूहिक बलात्कार
सुनो सांस्कृतिक जहालत के जजों
अब इस औरत को भी गुस्सा आने लगा है
नहीं मातुम कि तुम जानते हो कि नहीं
प्रलयंकारी होता है उत्पीड़ित का गुस्सा
जो दे रहा है तुम्हें सांस्कृतिक संत्रास
जिसकी निरंतरता से ही तुम मर जाओगे
सुन रहे हो सजा-ए-मौत देने वाले मर्दवादी जजों
अब यह औरत जो मर्दों की ही तरह सिगरेट शराब पीती है
आधी रात को सड़कों पर अकेली घूमती थी
अब कतारों में घूमने लगी हैं
जला रहीं हैं सारी लक्ष्मणरेखाएं और अशोक वाटिकाएं
फेंककर समुद्र मेें सारी अग्नि परीक्षाएं
लगाते हुए नारे
आज़ादी गर बदचलनी है तो हम सब बदचलन हैं
वैसे ही जैसे हम लगाते हैं नारे
सच कहना अगर बगावत है तो समझो हम सब बागी हैं
बिलों में घुस गए तुम्हारे सांस्कृतिक रणबांकुरे
नोचते थे अकेली लड़की की आज़ादी बदचलनी की सजा कहकर
झुंड में कायर कुत्तों की तरह
अंधे न्याय की खिड़की के बाहर झांको धर्मांधो
और देखो बाहर लक्ष्मणरेखा खींचने वाले तुलसीदासों
बलात्कार को बदचलनी की प्रतिक्रिया बताने वाले
बदचलन की पट्टी पहने दुनिया की सारी औरतों का हुजूम
और आत्मघात कर लोगे चीखते हुए
बाप रे बाप क्या हो गया है इन औरतों को
कब तक नहीं निकलोगे अंधी तराजू के दुर्ग से
सुनो संस्कारी जजों
चुपचाप स्वर्ग चले जाओ
इसी में तुम्हारी भलाई है
क्योंकि सारी औरतें बदचलन हो गयी हैं.
(सरला माहेश्वरी की कलकत्ता की पार्टस्ट्रीट सामूहिक बलात्कापर न्यायालय के मर्दवादी फैसले पर सुंदर कविता पर टिप्पणी)
(ईमिः 12.12.2015)
No comments:
Post a Comment